पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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अनपहचाना घाट
Posted on 29 Sep, 2013 01:21 PM धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहिचानते हैं।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहिचानते हैं।

और मैं कितनी शती से यहां तुझको जोहता हूँ।
दुपहर
Posted on 29 Sep, 2013 01:19 PM नदी के किनारे कोई आसमान धो रहा है
दुपहर है,
महुए का पेड़ सो रहा है।

शाम, धुआँ और नदी


शाम है, धुआँ है,एक नदी है
और इस नदी में
कुछ लहरे हैं,
जो बहुत उदास हैं।

अभी यहां पछुआ थी और एक गान था।
अभी यहाँ आँसू थे और एक पाल था।
अब सब चले गए...सब चले गए।
शाम है, धुआँ हैं,
एक नदी है;
और इस नदी में कुछ लहरें हैं
सुनील गांगुली की यमुना
Posted on 26 Sep, 2013 01:56 PM क्यों मुझे अलकनंदा के प्रति
भय से चंचल कर देती है?

इससे अधिक कोई सार्थकता नहीं होती है नींद की। वह
मुझे कल्पना से अनुभव की घाटियों में ले जाती है।
एक अंधा विषदंत साँप,
पत्थर की नीली चट्टानों पर अपना फन पटकता रह जाए
सारी रात।

इससे अधिक सार्थकता क्यों चाहिए?
समय अगर चट्टान है, उसके किनारे सटकर उन्माद में
बहती हुई नदी है अलकनंदा।
पानी के संस्मरण
Posted on 26 Sep, 2013 01:54 PM कौंध : दूर घोर वन में मूसलाधार वृष्टि
दुपहर : घना ताल, ऊपर झुकी आम की डाल
बयार : खिड़की पर खड़े, आ गई फुहार
रात : उजली रेती के पार, सहसा दिखी
शांत नदी गहरी
मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं

(1954)

हिलकोरे
Posted on 26 Sep, 2013 01:53 PM हर रात समय की तिमिर नदी में एक लहर
जिस पर उजले सपने आते हैं छहर-छहर
नतशीश जिसे धारण करता रहता कगार
वह मानव जिसमें पत्थर की-सी क्षमता है
चुपचाप थपेड़ों को सह लेने की ताकत
लेकिन मिट्टी-सा घुल जाने की भी आदत
इसलिए लहर की अधिक उसी से ममता है।
सारा तूफान उसी पर आकर थमता है।
सच-झूठ तुम्हीं जानो मेरे इन स्वप्नों का
पर मेरे मन के विश्वासों की यह नौका
सरयू
Posted on 26 Sep, 2013 01:52 PM (जन्म : 1884)
तरल-धार सरयू अलौकिक छटा से,
सुबह की सुनहरी गुलाबी घटा से,
झलक रंग लेती चली बुदबुदाती,
प्रभाकर की जगमग में जादू जगाती।
किस कंदरे से समीकरण हो उन्मन,
उठा मानों करता मधुप का-सा गुंजन,
प्रसूनों की गंधों को तन में लगाकर,
विपिन के गवैयों को सोते जगाकर,
मृदुल मस्त सीटी एकाएक सुनाकर,
सनासन चला ओर सरयू की धाकर,
रात को नदी के किनारे वाली सड़क पर
Posted on 26 Sep, 2013 01:50 PM चाँदनी-(पिया-सी है!)
जैसे घटिया चीजों पर बढ़िया पालिश।
एक झुंड भूँकते कुत्तों की तरह
शहर का शोर-दक्षिण की ओर,
और चांद
जैसे खुले मैदान में एक डरा हुआ जंगली खरगोश:

बिदकते बछड़ों-सी लापरवाह हवा:
तट पर लोटतीं
अर्द्धनग्न सोनपंख परियाँ,
घास पर बिछाकर
फूलों की दरियाँ:
नदी में डूबे मछिलियों के महल,
समापन
Posted on 26 Sep, 2013 01:48 PM मैं गुजरता रहा, बल्कि बहता रहा
जैसे नदियाँ-बिना कुछ चाहे-
जो किनारे नहीं लग पातीं
किनारे लगा सकती हैं अगर कोई चाहे!

क्या तुम्हें मालू है कैसे एक नदी
सागर हो जाती है?
वह, बस, भटकती रहती है और एक दिन
किनारा पाकर खो जाती है।

‘परिवेश : हम तुम’ में संकलित ‘समापन’ शीर्षक कविता की अंतिम आठ पंक्तियाँ

दो छायाचित्र
Posted on 26 Sep, 2013 01:47 PM (1)
नदी-पथ पर डगमगाते चंद्रमा के पाँव।
नदी-तट पर खोजते शायद प्रिया का गाँव!

(2)
नदी की गोद में नादान शिशु-सा
अर्द्धसोया द्वीप-
झिलमिल चाँदनी में नाचती परियाँ,
लहर पर लहर लहरातीं
बजाकर तालियाँ गातीं
सुनाती लोरियाँ-
सुनता नदी का लाड़ला बेटा,
चमकते चाँद के चाँदी-कटोरे से
मजे में दूध पीता।
एक चित्र : दो पट
Posted on 26 Sep, 2013 01:45 PM रात का निस्तब्ध छाया वन,
न कुछ-सा नदी-तट पर वृक्ष
जैसे एक मुट्ठी-भर अँधेरा,
पास ही सिर डालकर सोई हुई-सी नदी
गाढ़े कोहरे को ओढ़कर चुपचाप-
(जैसे किसी फोटोग्राफ का धुँधला नेगेटिव)

सुबह सब कुछ पुनः आभासित,
समूचा दृश्य तीखी रोशनी में
जी उठे चलचित्र-सा रंगीन-
चंचल पल्लवों में किरण-कोलाहल,
हजारों पंछियों का बसा पूरा शहर!
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