Posted on 02 Oct, 2013 04:19 PMनदी इस किनारे केवल या केवल उस किनारे या मँझधार ही पूरी वह प्यार में नदी समझ में नहीं आती नदी में भीगने से लगता है बरसात में भीगा बिना छाता लिए जब कभी टहलने निकला। बाढ़ में डूबी उलटी नाव की छत के नीचे हमारा घर बसा है।
Posted on 01 Oct, 2013 04:12 PMमेरे जन्म लेने के पहले से जो बह रही है बिना रुके- मेरे भीतर के भीतर और भीतर वह नदी दुनिया में सबसे निराली है। उसके बहाव को देखा नहीं मैंने एक बार भी मेरे रुकने, सो जाने से कोई वास्ता नहीं, उस बहने वाली का है बंद भीतर मेरे ही फिर भी नहीं जानती किसका इलाका है नाम क्या? चुपचाप बहने में लीन है, बीसवीं सदी के विलयन के बावजूद।
Posted on 01 Oct, 2013 04:10 PMऐसा है एक नदी बह रही है कोलतार की चिता और गर्भ के बीच के धुँधलके में और मेरे सर पर गट्ठर है कपास का। ‘बचाओ’ चिल्लाने से पहले मैंने ऊँगलियाँ भर देखी थीं डूबते पिता की घाटी के पास उस चीख का कोई लेखा नहीं! ऐसा है जिस जगह मेरे पैर हैं वहाँ दीमक घर हैं ताजे बने हुए लगातार हवा घूँसे मार रही है मेरी पीठ पर। सँभलने के लिए जब मैं
Posted on 01 Oct, 2013 04:08 PMविपाशा किसी नदी या नारी का नाम नहीं बल्कि किसी पुराने स्मृति-कोष्ठ से निकलकर आए एक सूख गए जल-संसार का धुँधला-सा बिंब है जिसे... मैं सोचता हूँ, शायद ही मेरी कोई कविता सहेज पाए।
यह बिंब मैंने पहली बार बचपन में कहीं बरीमाम के मेले में पीर के मजार पर नाचतीं तवायफों के पवित्र चेहरों पर धुँधले चिरागों की रोशनी में देखा था
Posted on 01 Oct, 2013 04:07 PMजैसे सारे संसार के टेलीफोन घनघना उठे एक साथ इस समुद्र के रोम-रोम से लेकिन तुम कैसी हो चंद्रभागा कि इतनी मौन हो समुद्र इतना आविष्ट है कि तुमसे संवाद नहीं कर पाता क्या संवाद अब असंभव है? लहरें अथाह से अनंत से सघन उल्लास में हहराती ईरानी घोड़ों की रेस-सी दौड़ती हैं झाग फेंकती लगातार कगार पर टापों की आवाजें टकराकर
Posted on 30 Sep, 2013 04:41 PMमुझको गोमती से प्यार। चूमती मन-पुलिन उसकी दूधिया रस-धार।। गोमती की कोख से पैदा हुआ, साँवली माटी उसी की, रचा जिससे तन, शिराओं में रक्त बनकर बह रहा गोमती का नीर माँ के दूध-सा पावन, मैं कहूँ कैसे कि वह केवल नदी है एक ममता-मूर्ति मुझमें हो रही साकार। मुझको गोमती से प्यार।। हिंडोले-सी गोमती की मृदु लहर, झूलते जिसमें गए दिन बीत बचपन के,