नदी में

नदी में डूबता है महल
मेहराब से हिलगा है एक पुराना गीत
स्वर में उभरता है एक खँडहर
दहलीज पर ठिठकती है कथा
उसके बीच में उड़कर आ बैठता है एक पक्षी
पंख में लिपटा हुआ बचपन
सुबह देर से उठने पर छूट गई स्कूल-बस
पहिए में लिपटा कीचड़
पानी में मिलते हुए न जाने कितने पानी
जानते हुए भी नदी का
बीच प्रलय में झपकी लेना
आँख में सूख गया आँसू
पगडंडी पर चिड़िया की चोंच से गिरा दाना
उड़ान में उठान में थकान में ढलान
ढाल पर ताक में बैठा समय
काल की आँख में चुभता शब्द
अक्षर में विलीन हो गई कविता।

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