सिंध

सिर्फ नदी नहीं है यह

अपनी छाती में असीम दूध बसाए
पूरे गांव की मां है

इसकी सजल निर्मलता बसती है
पक्षियों के कंठ में
पहाड़ की आंखों
पेड़ की जड़ों
अन्न के दानों
और बादल के हृदय में

माएं नवजात के साथ
करती है पहला स्नान यहां
दूल्हा-दुल्हन टेकते है माथा
नहलाए जाते हैं गाय-बैल
धोई जाती हैं भुजरिएं
और बच्चे सीखते हैं बहाव के खिलाफ तैरना

इसकी रेत पर घरौंदे बनाते हुए
देखे जाते हैं सुंदर स्वप्न
पलती हैं इच्छाएं
इसके किनारे बैठ गाए जाते हैं गीत
बजाई जाती है बांसुरी

पवित्र जल से दिया जता है
सूर्य को अर्घ्य
घाट पर फोड़े जाते हैं नारियल
सिराये जाते हैं यहीं
स्वर्गवासियों के फूल

यह पानी की धारा नहीं
संस्कार है हमारा

टीले पर बसे हुए गांव का
परकोटा है यह आतताइयों के विरुद्ध
बाढ़ नहीं आती इसमें
उफान आता है स्नेह का
और बूढ़े बरगद की जड़ों को छूकर
उतर जाता है

प्राणवायु है यह
गांव के नथुनों से गुजरती हुई।

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