ध्रुव शुक्ल

ध्रुव शुक्ल
पत्तों के बिना
Posted on 24 Nov, 2014 03:54 PM
पत्तों पर ओस जमने लगी है। वे सूरज की किरण पड़ते ही ऐसे चमकते हैं, जैसे किसी ने उन पर हीरे तराशकर रख दिये हों। दिन चढ़ते ही ये हीरे खो जाते हैं। हरे-उजले पत्तों पर खिंची पीली रेखाओं को देखो तो लगता है जैसे वृक्ष की छोटी-छोटी खाली गदेलियां हों। वृक्षों की शाखाओं को डुलाती हवा में पत्ते इस तरह हरहराते रहते हैं जैसे, तालियां बजा रहे हों। वे धरती पर पड़ती अपनी चंच
patta
पृथ्वी, प्रजा और पानी
Posted on 23 Nov, 2014 10:39 AM

धरती की ऊंची-नीची घाटियों में पानी सहज ही बह निकलता है। पानी बहता है तो उसके दो किनारे भी बन ज

“नदियां जोड़ने वालों सत्याग्रह करते पानी की ‘कूक’ सुनो”
Posted on 13 May, 2014 04:14 PM

जब समाज और सेवा दो अलग-अलग शब्दों की तरह टूटते हैं तो बीच-बीच खाली जगह से सोशल वर्करों की घुसपैठ होती है। इन्हीं सोशल वर्करों में से तरक्की करके कुछ लोग एनजीओज बनते हैं, फिर इन एनजी.ओज को समाज की बजाए कंप्यूटर की वेबसाइट में ढूंढना पड़ता है।

बूंदों को देखो तो लगता है कि जैसे वे पानी के बीज हों। वर्षा धरती में पानी ही तो बोती है। पहले झले के पानी की एक-एक बूंद को पीकर धरती की गोद हरियाने लगती है। जैसे हरेक बूंद से एक अंकुर फूट रहा हो, जैसे धरती फिर से जी उठी हो। बरसात आते ही वह फूलों, फलों, औषधियों और अन्न को उपजाने के लिए आतुर दिखाई देती है।

कोई धरती से पूछे कि उसे सबसे अधिक किसकी याद आती है तो वह निश्चित ही कहेगी कि पानी की। वह पानी से ऊपर उठकर ही तो धरती बनी है। वह पानी को कभी नहीं भूलती। वह तो पानी की यादों में डूबी हुई है। ग्रीष्म ऋतु में झुलसती हुई धरती को देखो तो लगता है कि वह जल के विरह में तप रही है। उससे धीरे-धीरे दूर होता जल और उसकी गरम सांसें एक दिन बदली बनकर उसी पर छाने लगती हैं और झुलसी हुई धरती के श्रृंगार के लिए मेघ पानी लेकर दौड़े चले आते हैं।
सिंध
Posted on 03 Dec, 2013 12:19 PM
सिर्फ नदी नहीं है यह

अपनी छाती में असीम दूध बसाए
पूरे गांव की मां है

इसकी सजल निर्मलता बसती है
पक्षियों के कंठ में
पहाड़ की आंखों
पेड़ की जड़ों
अन्न के दानों
और बादल के हृदय में

माएं नवजात के साथ
करती है पहला स्नान यहां
दूल्हा-दुल्हन टेकते है माथा
नहलाए जाते हैं गाय-बैल
धोई जाती हैं भुजरिएं
रेवा रूप कथा
Posted on 03 Dec, 2013 12:18 PM
नैहर नरबदा के रूप कुमारी, थिरकत अंग पराग झरे।
रसना रंगी रंग अंग, रूप में रूप के बौर फरे।

रूपमती जागी चहुंदिसि में, रूप को रूप की सुध न रही।
रूपहि गावे रूप को ध्यावे, रूप ने रूप को वीणा गही।

रूप की राजि में भूप शिकारी, रूप की ओट से रूप निहारे।
रूप पे रीझि के बाज बहादुर, बन-बागन फिरे सांझ-सकारे।
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