सरिता के प्रति

सजनि! कहां से बही आ रही, चली किधर किस ओर?
किसके लिए मची है हिय में, यह व्याकुलता घोर?

अगणित हृदयों में छेड़ी है मूक व्यथा अनजान,
कितने ही सूनेपन का, कर डाला है अवसान।

बिछा प्रकृति का अंचल सुंदर तेरा स्वागत सार,
चूम-चूमकर वृक्ष झूमते, ले-ले निज उपहार।

सतत तुम्हारे मन-रंजन को विहग करें कल्लोल,
तुझे हंसाने को ही निशि-दिन बोलें मीठे बोल!

बुझते जाते धीरे-धीरे नक्षत्रों के दीपक,
स्नेहशून्य होकर के मानो दिखलाते-से हैं पथ।

नीरव - कुंज हुए, मुखरित सुन तव निनाद-गंभीर
मतवाले प्यासे पी तुझको होते अधिक अधीर।

कितने निर्झर दिखा चुके हैं तुझको निज-चीर,
किंतु न भरता उनसे तेरा शोक उदधि गंभीर।

किसके हित सकरुण विहाग-सम अविश्रांत यह रोदन?
नीरस प्रांतों में बखेरती, क्यों अपना भीगा-मन?

क्या आगे बढ़कर पाओगी अपने चिर-आराध्य?
चलो, चलें, तब मिलकर सजनी! मिटे हृदय की साध।

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