सुरेन्द्र बांसल

सुरेन्द्र बांसल
शिक्षा के कठिन दौर में एक सरल स्कूल
Posted on 08 Jan, 2017 11:29 AM

देश भर की शिक्षा पर नीतियों के या कहें अनीतियों के उल्का पिंड गिराने वाले सरकारी लोगों को

'चिपको' में चिपक बाकी है
Posted on 24 Jul, 2015 12:40 PM
‘हमारा उद्देश्य पेड़ों की रक्षा करना है, उनको बर्बाद करना नहीं,
अपना मूल पछाण
Posted on 03 Mar, 2015 04:14 PM
पुराण, इतिहास गवाह हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य कभी बचाए नहीं जा सके। सभ्यताएँ, परम्पराएँ, समाज भी हरे पेड़ों की तरह होती हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, सरल मन जल की नमी, ममता की आँच और प्रकृति के उपकारों के प्रति कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बिना समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।

पंजाब आज इसी उदासी का शिकार है। अनुभव कहता है कि जब भी कोई समाज अपने को अपने से काट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें परायापन झलकने लगता है। परायेपन को बनावटीपन में बदलते देर नहीं लगती। आज ऐसा ही परायापन हरित क्रान्ति के मारे और नशों में झूमते पंजाब के कोने-कोने में देखने को मिलता है। परायापन एक गम्भीर समस्या है, बेशक वो घर का हो या समाज का। उससे सबकी कमर झुकने लगती है।
पर्यावरण को 'नारायण' मानें
Posted on 09 Feb, 2015 12:38 PM

भारत में शीतल पेयजल के नाम पर कीटनाशकों से भरपूर काला पानी बेचने वाली संस्थाओं को जब सुनीता जी

जल के प्रताप को फैलाते राजेन्द्र सिंह
Posted on 01 Feb, 2015 02:11 PM
पूर्वी राजस्थान के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में राजेन्द्र सिंह को ‘जल राणा’ कह के पुकारा जाता है। यह राजेन्द्र सिंह का बेहद निजी उद्यम था कि इस गरीब देहाती क्षेत्र में पानी की संभाल और उसके नतीजे से एक नये चैतन्य का उदय हुआ और आज राजस्थान के प्रत्येक गाँव में पानी के प्रति चेतना का जल स्तर ऊपर उठने लगा है।
‘जपुजी’ की साक्षी नदी
Posted on 26 Dec, 2014 03:50 PM

बाबा बलबीर सिंह 160 किलोमीटर ‘काली वेईं’ को पुनः निर्मल कर सनातन परंपराओं की पूर्ण स्थाप

पर्यावरण की ‘वन्दना’
Posted on 22 Dec, 2014 10:49 AM
1982 में वन्दना जी ने देहरादून में विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं पर्याव
जो बोया सो कट रहा है
Posted on 09 May, 2011 03:04 PM

पंजाब की खेती किसानी का सबसे बड़ा संकट आज यही है कि वह प्रकृति से अपनी रिश्तेदारी का लिहाज भूल गई है। पवन, पानी और धरती का तालमेल तोड़ने से ढेरों संकट बढ़े हैं। सारा संतुलन अस्त-व्यस्त हुआ है। पंजाब ने पिछले तीन दशकों में पेस्टीसाइड का इतना अधिक इस्तेमाल कर लिया कि पूरी धरती को ही तंदूर बना डाला है।

पंजाब सदियों से कृषि प्रधान राज्य का गौरव पाता रहा है। कभी सप्त सिंधु, कभी पंचनद तथा कभी पंजाब के नाम से इस क्षेत्र को जाना गया है। यह क्षेत्र अपने प्राकृतिक जल स्रोतों, उपजाऊ भूमि और संजीवनी हवाओं के कारण जाना जाता था। प्रकृति का यह खजाना ही यहां हुए हमलों का कारण रहा है। देश के बंटवारे के बाद ढाई दरिया छीने जाने के बावजूद बचे ढाई दरियाओं वाले प्रदेश ने देश के अन्न भंडार को समृद्ध किया है। किसानी का काम किसी भी देश या कौम का मूल काम माना गया है। हमारी परंपराओं में किसान को संसार का संचालन कर्ता माना गया है। यह भी कहा गया कि किसान दूसरे कामों में व्यस्त उन लोगों को भी जीवन देते हैं, जिन्होंने कभी जमीन पर हल नहीं चलाया। यह भी कहा गया है कि जो मात्र अपने ही पेट तक सीमित है, वह पापी है। मात्र स्वयं के पेट का मित्र स्वार्थी और महादोशी है। किसान का काम अपने लिए तो जीविका कमाना है ही, दूसरों के लिए भी रोटी का प्रबंध करना है। वह धरती को अपनी छुअन मात्र से उसके भीतर छिपी सृजन शक्ति को मानव मात्र की जरूरतों के अनुसार जगाता है।
Pesticide spraying
सथ्यः चौपाल का अमृत
Posted on 16 Aug, 2010 11:48 AM

अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य भी कहां बचाए जा सके हैं। सभ्यताएं, समाज भी हरे-भरे पेड़ों की तरह ही होते हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, मन-जल की नमी, ममता की आंच, प्रेम सी सरलता और प्रकृति के उपकारों के प्रति आजीवन मन में रहने वाला कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बगैर समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है।

बीते सभी जमाने इस बात की गवाही देते रहे हैं कि अपनी जड़ों से कट कर सब चेतन-अचेतन मुरझा जाते हैं। मूल से कट कर मूल्य भी कहां बचाए जा सके हैं। सभ्यताएं, समाज भी हरे-भरे पेड़ों की तरह ही होते हैं। उन्हें भी अच्छे विचारों की खाद, मन-जल की नमी, ममता की आंच, प्रेम-सी सरलता और प्रकृति के उपकारों के प्रति आजीवन मन में रहने वाला कारसेवक-सा भाव ही टिका के रख सकता है। इन सब तत्वों के बगैर समाज के भीतर उदासी घर करने लगती है। जब भी कोई समाज अपने इतिहास-पुराण से कट कर अपना भविष्य संवारने निकलता है तो उसमें अपनेपन की बजाय परायापन झांकने लगता है और फिर पराएपन को बनावटीपन में बदलते देर भी नहीं लगती। परायापन एक बेहद गंभीर समस्या होती है। फिर परायापन घर को हो या समाज का, उससे सबकी कमर झुकने लगती है।
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