‘हमारा उद्देश्य पेड़ों की रक्षा करना है, उनको बर्बाद करना नहीं, इसलिये साइमन के पहले जंगल में घुसकर पेड़ काट देना या उनमें आग लगा देने से हम अपने मूल उद्देश्य से भटक जायेंगे। ट्रक के आगे लेटने से भी हमारे हाथ कुछ नहीं आयेगा- असली सवाल तो पेड़ों को कटने से रोकने का है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब वे लोग पेड़ काटने जाये तो हम पेडों से चिपक जायें और कहें कि पहला वार हमारी पीठ पर करो’ फ़ैक्टरी की चिमनी से पिछले कई महीनों से धुआँ नहीं निकला था। लकड़ी का सामान बनाने बाली छोटी-सी यूनिट भी एक अर्से से ठप पड़ी थी। कच्चे माल के अभाव में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के लोग हाथ पर हाथ रखे बैठे थे। उत्पादन बंद हो जाने के कारण संस्था में पिछले एक साल से तंखा नहीं बंटी थी। संस्था का मेस किसी तरह चालू रखा जा रहा था ताकि बेरोजगार कार्यकर्ताओं को दो जून रोटी तो मिलती रहे। सन 72 एक बुरा वक्त लेकर उतरा था इन लोगों पर।
ऐसा नहीं था कि ये लोग कहीं कोई और काम नहीं तलाश सकते थे, यों इनमें से ज्यादातर सिर्फ आठवीं पास थे, पर बेरोजगारी के इन दिनों में अगर ये चाहते तो अन्य कई पहाड़ी नौजवानों की तरह सेना में सिपाही, जिले की सरकारी दफ्तरों में चपरासी या और कुछ नहीं तो मैदान के होटलों में बर्तन माँजने के काम में लग सकते थे। मगर दस साल पहले ऐसे ही कामों को छोड़ इन पहाड़ी नौजवानों ने चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में 'दशौली ग्राम स्वराज्य संघ' बनाया था- वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन सम्पदा के माध्यम से सम्मानज़नक रोजगार देने का एक छोटा-सा प्रयोग शुरु किया था। इस प्रयोग के रास्ते में आनेवाली दिक्कतों से जूझते हुए, उत्तर प्रदेश सरकार, चमोली जिला प्रशासन और वन विभाग से छोटी-बड़ी कई लड़ाइयाँ लड़ते हुए ये लोग लगातार आगे बढ़ रहे थे। लेकिन 72 में लड़ाई, लगता था कि अपने निर्णायक दौर में आ गई है।
उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केन्द्र को 72-73 ये के लिये अंगू के पेड़ देने से इनकार कर दिया था। पहले ये पेड़ वनों के नज़दीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गाँववाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकड़ी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती-बाड़ी के औजार बनाते थे। पर फिर इस पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल खेल-कूद के सामान में भी होने लगा। वन विभाग ने पहाड़ी गाँवों के ‘हक’ को ताक पर रखकर अंगू के पेड़ खेल-कूद का सामान बनाने वाली मैदानी कम्पनियों को बेचना शुरू कर दिया। गाँवों के लिये यह लकड़ी बहुत जरूरी थी। पहाड़ी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, पहाड़ के ठंडे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंगू के गुण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं, यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठंडी होती है न गर्म, इसीलिये कभी फटती नहीं है और अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है।
अंगू से टेनिस, बैडमिंटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये- इससे गाँव के लोगों को या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नहीं था। ये तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जायें और फिर खेल की। एक खेतिहर देश में यह माँग नाजायज भी नहीं थी। इस जायज माँग के साथ एक छोटी-सी माँग और थी इनकी। वनवासियों को वन सम्पदा से किसी न किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिये ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके। माना जा सकता है कि गाँव के लोग टेनिस या बैडमिंटन के उम्दा बल्ले नहीं बना सकते पर ये लोग अंगू के पेड़ को छोटे-छोटे टुकडों में तो काट सकते हैं। अभी पूरा का पूरा पेड़ सीधे जंगल से मैदान में चला जाता था, मैदान में ही उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर फिर से बेचा जाता था। टुकड़ों में कटने के बाद एक पेड़ पर लगभग 300 से 400 प्रतिशत का मुनाफा मैदान के सम्पन्न लोगों की जेबों में चला जाता था और इधर ठीक वनों के बीच रहने वाले पहाड़ी आदमी की फटी कमीज में एक नया थिगड़ा लग जाता था। चूँकि वनो के नजदीक रहने के बाद भी उसे वन सम्पदा से एक धेला भी नहीं मिलता था, इसलिये वनों को वह एक दूसरी नजर से देखने लगा था- चोर की नजर से।
दशौली ग्राम स्वराज्य संघ ने कीमती अंगू की सम्भावित चोरी रोकने और गाँव वालों को अंगू से ही बने कृषि यन्त्र उपलब्ध कराने के खयाल से वन विभाग से अनुरोध किया कि वह संस्था को अंगू के कुछ पेड़ दे ताकि वह उनसे खेती-बारी के औजार बनाकर उचित दाम पर बेच सके। संस्था की यह माँग भी सरकारी नीति की चौखट के भीतर ही थी। 68 में पर्वतीय लघु उद्योग विकास के लिये एन.के सिंह समिति ने अपनी रिपोर्ट में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ जैसी संस्थाओं को अंगू के पेड़ देने की सिफारिश की थी। पर वन विभाग का रुख कुछ और ही था। वन विभाग ने संस्था की इस माँग के जवाब में लिख भेजा, ‘किसी संस्था को अंगू के पेड़ देना वन विभाग की दृष्टि से ठीक नहीं है। अंगू के बदले चीड़ के कुछ पेड़ जरूर दिये जा सकते हैं।’
पहाड़ों में अब अंगू की हल्की और मजबूत लक़ड़ी के बदले चीड़ की भारी लेकिन कमजोर लकड़ी से खेती-बाड़ी के औजार बनेंगे - यह सुनकर अनपढ़ किसान तो हँसे ही थे, पहाड़ी बैलों ने भी मुस्कुरा दिया होगा। वन विभाग के इस जवाब पर दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के लोगों को भी हँसी तो आई पर सारे मामले की गम्भीरता भी उनसे छिपी नहीं थी। अंगू के पेड़ न मिलने से संस्था के काष्ठ-कला उद्योग पर असर पड़ेगा, कच्चे माल के अभाव में उत्पादन ठप हो जायेगा और इस तरह वनों के निकट छोटे उद्योगों द्वारा वन सम्पदा के पहले सम्भव उपयोग के प्रयोग पर असफलता की मुहर लग जायेगी। इस असफलता से भविष्य में छोटे उद्योगों के जरिये वन सम्पदा से उचित लाभ लेने के दरवाजे सदा के लिये बंद हो जायेंगे। दशौली ग्राम स्वराज्य संघ ने फैसला कर लिया कि वह अंगू की इस लड़ाई में घुटने नहीं टेकेगा। पहाड़ों में छोटे उद्योगों के भविष्य पर असफलता का ताला नहीं लगने देगा। इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमन कम्पनी को गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मंडल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गाँव वाले जिन पेड़ों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेड़ों को दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी काट कर ले जाने वाली थी - जैसे किसी ने जले पर नमक छिड़क दिया हो।
73 की मार्च का एक-एक दिन बड़ी मुश्किल से गुजर रहा था। सभी सहमत थे कि अंगू के पेड़ कटने नहीं दिये जायेंगे - पहले खेत की जरूरतें पूरी होंगी और फिर खेल की। पर पेड़ों को कटने से रोका कैसे जायेगा? कोई ठीक रास्ता नहीं सूझ रहा था। गोपेश्वर और मंडल गाँव के लोग रोज शाम को दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के आँगन में बैठते और सीधी कार्यवाही के तरीकों पर विचार करते।
चंडी प्रसाद ने अपने दोनों हाथों को आगे लाकर आलिंगन की मुद्रा बना ली थी। सामने फैले हुए उनके दोनों हाथ एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। बैठक में सन्नाटा छा गया। थोड़ी ही देर लगी लोगों को इस नये सुझाव को समझने में। एकाएक सभी ने हाथ उठा दिये, लोग चिल्ला पड़े- ‘हम पेड़ों से चिपक जायेंगे!’संस्था के एक प्रमुख कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट और मल्ला नागपुर सहकारी श्रम संविदा समिति के मन्त्री तथा जिला संगठन कांग्रेस के महामन्त्री विजयदत्त शर्मा फ़ैक्टरी के एक कमरे में रोज की तरह उदास और चिन्तित बैठे थे। अभी तक इतनी बैठकों के बाद भी सीधी कार्यवाही का कोई तरीका हाथ नहीं लग पाया था। इसी बीच एक कार्यकर्ता ने आकर खबर दी कि साइमन कम्पनी वाले लोग गोपेश्वर पहुँच चुके हैं। साइमन के आने की खबर सुनते ही जैसे चंडी प्रसाद पर देवता आ गया - वे उठे और जोर से चिल्लाये - 'कह दो साइमन वालों से कि हम लोग अंगू के पेड़ नहीं कटने देंगे। वे पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलायें तो हम पेड़ों का 'अंगवाल्ठा' कर लेंगे।’
एक नया शब्द हाथ आ गया! ‘अंगवाल्ठा’ मानो आलिंगन; जब पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलेगी तो लोग पेड़ों के तनों को अपने आलिंगन में ले लेंगे, ठेकेदार की कुल्हाड़ी का पहला वार अपनी ही पीठ पर सहेंगे, आखिरी दम तक पेड़ से 'चिपके' रहेंगे और पेड़ को कटने से बचा लेंगे - 27 मार्च, 1973 के उस दिन गोपेश्वर में एक नये आन्दोलन ने जन्म लिया 'चिपको' आन्दोलन ने। वनवासियों ने विमुख वन नीति के विरुद्ध लड़ने का एक नया हथियार हाथ तो लग गया, पर अभी उसकी धार की तेजी को परखना बाकी था। परखने का मौका भी सिर पर ही खड़ा था।
साइमन कम्पनी वाले पेड़ काटने के लिये गोपेश्वर पहुँच चुके थे। 5000 फुट की ऊँचाई पर बसे इस छोटे-से पहाड़ी कस्बे में कोई ढंग का होटल था ही नहीं। साइमन वालों को पता चला कि यहाँ दशौली ग्राम स्वराज्य संघ नाम की एक संस्था है, उसका छोटा-सा अतिथिगृह है, जगह खाली रहने पर उसमें ठहरने का ठीक इंतजाम हो जाता है।
संस्था का पता पूछते-पूछते साइमन वाले संघ के दफ्तर आ पहुँचे। संस्था के आँगन में बैठे हुए कार्यकर्ता रोज की तरह सीधी कार्यवाही पर बातचीत कर रहे हैं। ठहरने की जगह माँगने वाले और कोई नहीं, खुद साइमन कम्पनी वाले हैं- यह जानकर आँगन में जमी बैठक में सनसनी जरूर फैली पर थोड़ी ही देर में वातावरण स्वाभाविक हो गया। साइमन के अतिथियों का सामान अतिथिगृह तक पहुँचाया गया, उन्हें मुँह-हाँथ धोने की जगह बताई गई, उनके बिस्तरे लगाये गये। कहीं कोई कड़वाहट नहीं थी, मेजबानी में जरा भी कसर नहीं छोड़ी गई। दिनभर की पहाड़ी यात्रा से थक कर चूर हो चुके अतिथि आराम से अपने गर्म बिस्तरों के भीतर हो गये- उन्हें इसका शक तक नहीं हुआ कि जब वे जंगल में अंगू के पेड़ काटने जायेंगे तो उनके ये मेजबान ही पेड़ों से चिपक जायेंगे।
साइमन कम्पनी वालों की जेब में पेड़ काटने के आदेश-पत्र थे पर अभी गोपेश्वर से 13 किलोमीटर दूर मंडल के जंगल में अंगू के पेड़ों पर छपाई नहीं हो पाई थी। इसलिये सामान वालों को इंतजार करना था। कम्पनी वाले रोज सुबह उठते और इधर-उधर घूमने चले जाते। इसी बीच संस्था के आँगन में आन्दोलन की तैयारी चलती रहती। रोज छोटी-छोटी बैठके होती और आपस में सीधी कार्यवाही के बारे में सुझाव माँगे जाते। संस्था ने सरकार को भी अंधेरे में नहीं रखा। साइमन वालों के आने से बहुत पहले 6 जनवरी, 24 फरवरी और 05 मार्च को ज्ञापन दिये जा चुके थे और इस अन्याय के खिलाफ एक प्रदर्शन भी हो चुका था। चंडी प्रसाद भट्ट ने उतर प्रदेश के मुख्य अरण्यपाल को सारी जानकारी देते हुए व्यापक जन असंतोष की खबर भी भेजी थी। सरकार का दरवाजा बार-बार खटखटाया जा रहा था पर वन अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को सांकल खोलने की फ़ुरसत ही कहाँ थी। पहाड़ों में छोटे उद्योगों की स्थापना में पहल करने के लिये सरकार ने दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के चंडी प्रसाद भट्ट को उत्तर प्रदेश लघु कुटीर उद्योग बोर्ड का सदस्य बना दिया था। गोपेश्वर के लघु उद्योग के साथ हुए इतने बड़े अन्याय के बाद भी सरकार के कान पर जूँ न रेंगते देख चंडी प्रसाद ने बोर्ड से अपने आपको अलग करने का फैसला ले लिया। संस्था को अंगू के पेड़ न देकर साइमन कम्पनी को दिये जाने के विरुद्ध उन्होंने 6 मार्च को बोर्ड की सदस्यता से त्याग पत्र दे दिया।
पहली अप्रैल 73 की शाम को संस्था के आँगन में एक बैठक रखी गयी। साइमन वाले उस दिन घूमने नहीं गये थे। बैठक में संस्था के कार्यकर्ताओं, दशौली ब्लॉक के ग्राम सभापतियों के अलावा कांग्रेस, भारतीय साम्यवादी दल और जनसंघ, शोषित समाज दल के जिला स्तरीय नेता तथा स्थानीय पत्रकार भी शामिल थे- कुल 30 लोग अंगू के पेड़ो को कटने से रोकने के तरीकों पर बहस कर रहे थे। बार-बार 'अंगू’ शब्द सुनकर अतिथियों की उत्सुकता जगी। वे भी अपने कमरों से निकल कर बैठक में शामिल हो गये। किसी ने उन्हें रोका नहीं। अंगू के पेड़ काटने आये साइमन वाले सुन रहे थे, ‘जब पेड़ काटने कम्पनी जंगल में जाये तो ठेकेदार और मजदूरों को जंगल में जाने से रोक दें।’ किसी और की राय थी, ‘उन्हें हम जंगल में जाने से रोक नहीं पायेंगे, अच्छा हो कि जब वे पेड़ काट कर ट्रक में ले जाने लगे तो आगे लेटकर ट्रक ही रोक लिया जाये’ एक अन्य का सुझाव था, क्यों न हम एक दिन पहले ही जंगल में जाकर छपे हुए पेड़ों को काट डालें? किसी ने पेड़ों में आग लगाने की बात भी रखी। सबसे अंत में चंडी प्रसाद बोले। उन्होंने कहा, ‘हमारा उद्देश्य पेड़ों की रक्षा करना है, उनको बर्बाद करना नहीं, इसलिये साइमन के पहले जंगल में घुसकर पेड़ काट देना या उनमें आग लगा देने से हम अपने मूल उद्देश्य से भटक जायेंगे। ट्रक के आगे लेटने से भी हमारे हाथ कुछ नहीं आयेगा- असली सवाल तो पेड़ों को कटने से रोकने का है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब वे लोग पेड़ काटने जाये तो हम पेडों से चिपक जायें और कहें कि पहला वार हमारी पीठ पर करो’ चंडी प्रसाद ने अपने दोनों हाथों को आगे लाकर आलिंगन की मुद्रा बना ली थी। सामने फैले हुए उनके दोनों हाथ एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। बैठक में सन्नाटा छा गया। थोड़ी ही देर लगी लोगों को इस नये सुझाव को समझने में। एकाएक सभी ने हाथ उठा दिये, लोग चिल्ला पड़े- ‘हम पेड़ों से चिपक जायेंगे!’
तत्काल एक प्रस्ताव लिखा गया। 'चिपको' की व्याख्या की गई और ज्ञापन की एक-एक प्रति उप-अरण्यपाल और जिलाधीश को दी गई। जिलाधीश से आग्रह किया गया कि इस ज्ञापन को वे तत्काल मुख्यमन्त्री को भिजवा दें और कह दें कि यहाँ पर अंगू के पेड़ नहीं कट सकेंगे, लोग उनसे चिपक जायेंगे। 'चिपको' सुनकर जिलाधीश हँस पड़े। लेकिन इन लोगों के चले जाने के बाद उन्होंने राजधानी लखनऊ से वायरलेस के जरिये सम्पर्क किया। वे दशौली ग्राम स्वराज्य संघ की ताकत जानते थे। उन्हें इस बात का ठीक अहसास था कि 'चिपको' आन्दोलन किसी अनुयायी-विहीन नेता के दिमाग की उपज नहीं है। इसके पीछे लोगों के दुख-सुख में मरने-खपने वाली एक संस्था के साथ जो 12 साल तक सहजीवन के प्रयोग कर सकते हैं, वे जरूरत पड़ने पर सहमरण के प्रयोगों से भी कतरायेंगे नहीं।
ऐसा नहीं था कि ये लोग कहीं कोई और काम नहीं तलाश सकते थे, यों इनमें से ज्यादातर सिर्फ आठवीं पास थे, पर बेरोजगारी के इन दिनों में अगर ये चाहते तो अन्य कई पहाड़ी नौजवानों की तरह सेना में सिपाही, जिले की सरकारी दफ्तरों में चपरासी या और कुछ नहीं तो मैदान के होटलों में बर्तन माँजने के काम में लग सकते थे। मगर दस साल पहले ऐसे ही कामों को छोड़ इन पहाड़ी नौजवानों ने चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में 'दशौली ग्राम स्वराज्य संघ' बनाया था- वनों के नजदीक रहने वाले लोगों को वन सम्पदा के माध्यम से सम्मानज़नक रोजगार देने का एक छोटा-सा प्रयोग शुरु किया था। इस प्रयोग के रास्ते में आनेवाली दिक्कतों से जूझते हुए, उत्तर प्रदेश सरकार, चमोली जिला प्रशासन और वन विभाग से छोटी-बड़ी कई लड़ाइयाँ लड़ते हुए ये लोग लगातार आगे बढ़ रहे थे। लेकिन 72 में लड़ाई, लगता था कि अपने निर्णायक दौर में आ गई है।
उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने संस्था के काष्ठ-कला केन्द्र को 72-73 ये के लिये अंगू के पेड़ देने से इनकार कर दिया था। पहले ये पेड़ वनों के नज़दीक रहने वाले ग्रामीणों को मिला करते थे। गाँववाले इस हल्की लेकिन बेहद मजबूत लकड़ी से अपनी जरूरत के मुताबिक खेती-बाड़ी के औजार बनाते थे। पर फिर इस पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल खेल-कूद के सामान में भी होने लगा। वन विभाग ने पहाड़ी गाँवों के ‘हक’ को ताक पर रखकर अंगू के पेड़ खेल-कूद का सामान बनाने वाली मैदानी कम्पनियों को बेचना शुरू कर दिया। गाँवों के लिये यह लकड़ी बहुत जरूरी थी। पहाड़ी खेती में बैल का जुआ सिर्फ इसी लकड़ी से बनाया जाता रहा है, पहाड़ के ठंडे मौसम और कठोर पथरीली जमीन में अंगू के गुण सबसे खरे उतरते हैं। इसके हल्केपन के कारण बैल थकता नहीं, यह लकड़ी मौसम के मुताबिक न तो ठंडी होती है न गर्म, इसीलिये कभी फटती नहीं है और अपनी मजबूती के कारण बरसों तक टिकी रहती है।
अंगू से टेनिस, बैडमिंटन जैसे खेलों का सामान मैदानी कम्पनियों में बनाया जाये- इससे गाँव के लोगों को या दशौली ग्राम स्वराज्य संघ को कोई एतराज नहीं था। ये तो केवल इतना ही चाहते थे कि पहले खेत की जरूरतें पूरी की जायें और फिर खेल की। एक खेतिहर देश में यह माँग नाजायज भी नहीं थी। इस जायज माँग के साथ एक छोटी-सी माँग और थी इनकी। वनवासियों को वन सम्पदा से किसी न किसी किस्म का रोजगार जरूर मिलना चाहिये ताकि वनों की सुरक्षा के प्रति उनका प्रेम बना रह सके। माना जा सकता है कि गाँव के लोग टेनिस या बैडमिंटन के उम्दा बल्ले नहीं बना सकते पर ये लोग अंगू के पेड़ को छोटे-छोटे टुकडों में तो काट सकते हैं। अभी पूरा का पूरा पेड़ सीधे जंगल से मैदान में चला जाता था, मैदान में ही उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर फिर से बेचा जाता था। टुकड़ों में कटने के बाद एक पेड़ पर लगभग 300 से 400 प्रतिशत का मुनाफा मैदान के सम्पन्न लोगों की जेबों में चला जाता था और इधर ठीक वनों के बीच रहने वाले पहाड़ी आदमी की फटी कमीज में एक नया थिगड़ा लग जाता था। चूँकि वनो के नजदीक रहने के बाद भी उसे वन सम्पदा से एक धेला भी नहीं मिलता था, इसलिये वनों को वह एक दूसरी नजर से देखने लगा था- चोर की नजर से।
दशौली ग्राम स्वराज्य संघ ने कीमती अंगू की सम्भावित चोरी रोकने और गाँव वालों को अंगू से ही बने कृषि यन्त्र उपलब्ध कराने के खयाल से वन विभाग से अनुरोध किया कि वह संस्था को अंगू के कुछ पेड़ दे ताकि वह उनसे खेती-बारी के औजार बनाकर उचित दाम पर बेच सके। संस्था की यह माँग भी सरकारी नीति की चौखट के भीतर ही थी। 68 में पर्वतीय लघु उद्योग विकास के लिये एन.के सिंह समिति ने अपनी रिपोर्ट में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ जैसी संस्थाओं को अंगू के पेड़ देने की सिफारिश की थी। पर वन विभाग का रुख कुछ और ही था। वन विभाग ने संस्था की इस माँग के जवाब में लिख भेजा, ‘किसी संस्था को अंगू के पेड़ देना वन विभाग की दृष्टि से ठीक नहीं है। अंगू के बदले चीड़ के कुछ पेड़ जरूर दिये जा सकते हैं।’
पहाड़ों में अब अंगू की हल्की और मजबूत लक़ड़ी के बदले चीड़ की भारी लेकिन कमजोर लकड़ी से खेती-बाड़ी के औजार बनेंगे - यह सुनकर अनपढ़ किसान तो हँसे ही थे, पहाड़ी बैलों ने भी मुस्कुरा दिया होगा। वन विभाग के इस जवाब पर दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के लोगों को भी हँसी तो आई पर सारे मामले की गम्भीरता भी उनसे छिपी नहीं थी। अंगू के पेड़ न मिलने से संस्था के काष्ठ-कला उद्योग पर असर पड़ेगा, कच्चे माल के अभाव में उत्पादन ठप हो जायेगा और इस तरह वनों के निकट छोटे उद्योगों द्वारा वन सम्पदा के पहले सम्भव उपयोग के प्रयोग पर असफलता की मुहर लग जायेगी। इस असफलता से भविष्य में छोटे उद्योगों के जरिये वन सम्पदा से उचित लाभ लेने के दरवाजे सदा के लिये बंद हो जायेंगे। दशौली ग्राम स्वराज्य संघ ने फैसला कर लिया कि वह अंगू की इस लड़ाई में घुटने नहीं टेकेगा। पहाड़ों में छोटे उद्योगों के भविष्य पर असफलता का ताला नहीं लगने देगा। इसी बीच पता चला कि वन विभाग ने खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमन कम्पनी को गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मंडल नाम के वन से अंगू के पेड़ काटने की इजाजत दे दी है। वनों के ठीक बगल में बसे गाँव वाले जिन पेड़ों को छू तक नहीं सकते थे, अब उन पेड़ों को दूर इलाहाबाद की एक कम्पनी काट कर ले जाने वाली थी - जैसे किसी ने जले पर नमक छिड़क दिया हो।
73 की मार्च का एक-एक दिन बड़ी मुश्किल से गुजर रहा था। सभी सहमत थे कि अंगू के पेड़ कटने नहीं दिये जायेंगे - पहले खेत की जरूरतें पूरी होंगी और फिर खेल की। पर पेड़ों को कटने से रोका कैसे जायेगा? कोई ठीक रास्ता नहीं सूझ रहा था। गोपेश्वर और मंडल गाँव के लोग रोज शाम को दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के आँगन में बैठते और सीधी कार्यवाही के तरीकों पर विचार करते।
चंडी प्रसाद ने अपने दोनों हाथों को आगे लाकर आलिंगन की मुद्रा बना ली थी। सामने फैले हुए उनके दोनों हाथ एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। बैठक में सन्नाटा छा गया। थोड़ी ही देर लगी लोगों को इस नये सुझाव को समझने में। एकाएक सभी ने हाथ उठा दिये, लोग चिल्ला पड़े- ‘हम पेड़ों से चिपक जायेंगे!’संस्था के एक प्रमुख कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट और मल्ला नागपुर सहकारी श्रम संविदा समिति के मन्त्री तथा जिला संगठन कांग्रेस के महामन्त्री विजयदत्त शर्मा फ़ैक्टरी के एक कमरे में रोज की तरह उदास और चिन्तित बैठे थे। अभी तक इतनी बैठकों के बाद भी सीधी कार्यवाही का कोई तरीका हाथ नहीं लग पाया था। इसी बीच एक कार्यकर्ता ने आकर खबर दी कि साइमन कम्पनी वाले लोग गोपेश्वर पहुँच चुके हैं। साइमन के आने की खबर सुनते ही जैसे चंडी प्रसाद पर देवता आ गया - वे उठे और जोर से चिल्लाये - 'कह दो साइमन वालों से कि हम लोग अंगू के पेड़ नहीं कटने देंगे। वे पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलायें तो हम पेड़ों का 'अंगवाल्ठा' कर लेंगे।’
एक नया शब्द हाथ आ गया! ‘अंगवाल्ठा’ मानो आलिंगन; जब पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलेगी तो लोग पेड़ों के तनों को अपने आलिंगन में ले लेंगे, ठेकेदार की कुल्हाड़ी का पहला वार अपनी ही पीठ पर सहेंगे, आखिरी दम तक पेड़ से 'चिपके' रहेंगे और पेड़ को कटने से बचा लेंगे - 27 मार्च, 1973 के उस दिन गोपेश्वर में एक नये आन्दोलन ने जन्म लिया 'चिपको' आन्दोलन ने। वनवासियों ने विमुख वन नीति के विरुद्ध लड़ने का एक नया हथियार हाथ तो लग गया, पर अभी उसकी धार की तेजी को परखना बाकी था। परखने का मौका भी सिर पर ही खड़ा था।
साइमन कम्पनी वाले पेड़ काटने के लिये गोपेश्वर पहुँच चुके थे। 5000 फुट की ऊँचाई पर बसे इस छोटे-से पहाड़ी कस्बे में कोई ढंग का होटल था ही नहीं। साइमन वालों को पता चला कि यहाँ दशौली ग्राम स्वराज्य संघ नाम की एक संस्था है, उसका छोटा-सा अतिथिगृह है, जगह खाली रहने पर उसमें ठहरने का ठीक इंतजाम हो जाता है।
संस्था का पता पूछते-पूछते साइमन वाले संघ के दफ्तर आ पहुँचे। संस्था के आँगन में बैठे हुए कार्यकर्ता रोज की तरह सीधी कार्यवाही पर बातचीत कर रहे हैं। ठहरने की जगह माँगने वाले और कोई नहीं, खुद साइमन कम्पनी वाले हैं- यह जानकर आँगन में जमी बैठक में सनसनी जरूर फैली पर थोड़ी ही देर में वातावरण स्वाभाविक हो गया। साइमन के अतिथियों का सामान अतिथिगृह तक पहुँचाया गया, उन्हें मुँह-हाँथ धोने की जगह बताई गई, उनके बिस्तरे लगाये गये। कहीं कोई कड़वाहट नहीं थी, मेजबानी में जरा भी कसर नहीं छोड़ी गई। दिनभर की पहाड़ी यात्रा से थक कर चूर हो चुके अतिथि आराम से अपने गर्म बिस्तरों के भीतर हो गये- उन्हें इसका शक तक नहीं हुआ कि जब वे जंगल में अंगू के पेड़ काटने जायेंगे तो उनके ये मेजबान ही पेड़ों से चिपक जायेंगे।
साइमन कम्पनी वालों की जेब में पेड़ काटने के आदेश-पत्र थे पर अभी गोपेश्वर से 13 किलोमीटर दूर मंडल के जंगल में अंगू के पेड़ों पर छपाई नहीं हो पाई थी। इसलिये सामान वालों को इंतजार करना था। कम्पनी वाले रोज सुबह उठते और इधर-उधर घूमने चले जाते। इसी बीच संस्था के आँगन में आन्दोलन की तैयारी चलती रहती। रोज छोटी-छोटी बैठके होती और आपस में सीधी कार्यवाही के बारे में सुझाव माँगे जाते। संस्था ने सरकार को भी अंधेरे में नहीं रखा। साइमन वालों के आने से बहुत पहले 6 जनवरी, 24 फरवरी और 05 मार्च को ज्ञापन दिये जा चुके थे और इस अन्याय के खिलाफ एक प्रदर्शन भी हो चुका था। चंडी प्रसाद भट्ट ने उतर प्रदेश के मुख्य अरण्यपाल को सारी जानकारी देते हुए व्यापक जन असंतोष की खबर भी भेजी थी। सरकार का दरवाजा बार-बार खटखटाया जा रहा था पर वन अधिकारियों और राजनीतिज्ञों को सांकल खोलने की फ़ुरसत ही कहाँ थी। पहाड़ों में छोटे उद्योगों की स्थापना में पहल करने के लिये सरकार ने दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के चंडी प्रसाद भट्ट को उत्तर प्रदेश लघु कुटीर उद्योग बोर्ड का सदस्य बना दिया था। गोपेश्वर के लघु उद्योग के साथ हुए इतने बड़े अन्याय के बाद भी सरकार के कान पर जूँ न रेंगते देख चंडी प्रसाद ने बोर्ड से अपने आपको अलग करने का फैसला ले लिया। संस्था को अंगू के पेड़ न देकर साइमन कम्पनी को दिये जाने के विरुद्ध उन्होंने 6 मार्च को बोर्ड की सदस्यता से त्याग पत्र दे दिया।
पहली अप्रैल 73 की शाम को संस्था के आँगन में एक बैठक रखी गयी। साइमन वाले उस दिन घूमने नहीं गये थे। बैठक में संस्था के कार्यकर्ताओं, दशौली ब्लॉक के ग्राम सभापतियों के अलावा कांग्रेस, भारतीय साम्यवादी दल और जनसंघ, शोषित समाज दल के जिला स्तरीय नेता तथा स्थानीय पत्रकार भी शामिल थे- कुल 30 लोग अंगू के पेड़ो को कटने से रोकने के तरीकों पर बहस कर रहे थे। बार-बार 'अंगू’ शब्द सुनकर अतिथियों की उत्सुकता जगी। वे भी अपने कमरों से निकल कर बैठक में शामिल हो गये। किसी ने उन्हें रोका नहीं। अंगू के पेड़ काटने आये साइमन वाले सुन रहे थे, ‘जब पेड़ काटने कम्पनी जंगल में जाये तो ठेकेदार और मजदूरों को जंगल में जाने से रोक दें।’ किसी और की राय थी, ‘उन्हें हम जंगल में जाने से रोक नहीं पायेंगे, अच्छा हो कि जब वे पेड़ काट कर ट्रक में ले जाने लगे तो आगे लेटकर ट्रक ही रोक लिया जाये’ एक अन्य का सुझाव था, क्यों न हम एक दिन पहले ही जंगल में जाकर छपे हुए पेड़ों को काट डालें? किसी ने पेड़ों में आग लगाने की बात भी रखी। सबसे अंत में चंडी प्रसाद बोले। उन्होंने कहा, ‘हमारा उद्देश्य पेड़ों की रक्षा करना है, उनको बर्बाद करना नहीं, इसलिये साइमन के पहले जंगल में घुसकर पेड़ काट देना या उनमें आग लगा देने से हम अपने मूल उद्देश्य से भटक जायेंगे। ट्रक के आगे लेटने से भी हमारे हाथ कुछ नहीं आयेगा- असली सवाल तो पेड़ों को कटने से रोकने का है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब वे लोग पेड़ काटने जाये तो हम पेडों से चिपक जायें और कहें कि पहला वार हमारी पीठ पर करो’ चंडी प्रसाद ने अपने दोनों हाथों को आगे लाकर आलिंगन की मुद्रा बना ली थी। सामने फैले हुए उनके दोनों हाथ एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। बैठक में सन्नाटा छा गया। थोड़ी ही देर लगी लोगों को इस नये सुझाव को समझने में। एकाएक सभी ने हाथ उठा दिये, लोग चिल्ला पड़े- ‘हम पेड़ों से चिपक जायेंगे!’
तत्काल एक प्रस्ताव लिखा गया। 'चिपको' की व्याख्या की गई और ज्ञापन की एक-एक प्रति उप-अरण्यपाल और जिलाधीश को दी गई। जिलाधीश से आग्रह किया गया कि इस ज्ञापन को वे तत्काल मुख्यमन्त्री को भिजवा दें और कह दें कि यहाँ पर अंगू के पेड़ नहीं कट सकेंगे, लोग उनसे चिपक जायेंगे। 'चिपको' सुनकर जिलाधीश हँस पड़े। लेकिन इन लोगों के चले जाने के बाद उन्होंने राजधानी लखनऊ से वायरलेस के जरिये सम्पर्क किया। वे दशौली ग्राम स्वराज्य संघ की ताकत जानते थे। उन्हें इस बात का ठीक अहसास था कि 'चिपको' आन्दोलन किसी अनुयायी-विहीन नेता के दिमाग की उपज नहीं है। इसके पीछे लोगों के दुख-सुख में मरने-खपने वाली एक संस्था के साथ जो 12 साल तक सहजीवन के प्रयोग कर सकते हैं, वे जरूरत पड़ने पर सहमरण के प्रयोगों से भी कतरायेंगे नहीं।
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