लोक-विश्वास, टोने-टोटके

अवर्षण से मुक्ति के लिए
इस लोक-विश्वास में पुरानी बलि-प्रथा के अवशेष ही क्रियाशील हैं। अब इस तरह के कांड नहीं होते। यह एक तरह का अभिप्राय है जिससे अभिव्यक्त होता है लोक-हित के लिए प्रिय व्यक्ति का भी त्याग किया जा सकता है। मिथिला अंचल में प्रचलित जलेछ गीत में एक राजकन्या की करुण कहानी है जो पिता के अनुरोध पर तालाब में प्रवेश कर जाती है। तालाब भर जाता है और वह डूब जाती है। जलेछ शब्द सम्भवतः जल की इच्छा या कामना से बना है। कहीं-कहीं किसी विशेष अंचल में कहीं सर्वत्र,

मरे मेढकों का जुलूस निकालना:


अवर्षा में वर्षा की कामना पूर्ति हेतु गाँव की किशोरियाँ एक मेढक को डंडे में लटकाकर अपने कँधों पर टाँग लेती हैं। झुंड बनाकर वे घर-घर जाती हैं। गुड़ और धान माँगती हैं और गाती रहती हैं। ‘मेढक-मेढक पानी दे। पानी दे गुड़ धानी दे।’ इस जुलूस से प्राप्त गुड़ धान से वे खेरमाई के पास आयोजन की समाप्ति पर भंडारा करती हैं। मेढक पानी की प्रसन्नता का प्राणी है। वर्षा काल में उसकी उत्फुल्ल टर्र-टर्र सुनायी देने लगती है। तुलसीदास ने लिखा है ‘दादुर धुनि चहुँ ओर सुहाई। वेद पढ़हि जनु बटु समुदाई।’ दादुरों का वेद-पाठ बादलों को आमंत्रित करे। इसलिए मेढक को प्रताड़ित किया जाता है। कहीं-कहीं मेढक को मूसल में टाँगते हैं। (यह लोक विश्वास सम्पूर्ण उतर भारत में पाया जाता है।)

स्त्रियों द्वारा नग्न होकर हल चलानाः


अवर्षा की स्थिति में इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए रात्रि में गाँव की स्त्रियाँ नग्न होकर खेत में हल चलाती हैं। नग्न स्त्रियाँ ही हल में बैल की तरह जुतती हैं और नग्न स्त्रियाँ ही हल हाँकती हैं इस कार्यक्रम के मध्य वे अश्लील गालियाँ देती रहती हैं और अश्लील गीत गाती रहती हैं। इस स्थल पर गाँव का कोई मर्द नहीं जा सकता। बहुत सम्भव है इन्द्र की काम लोलुपता को ध्यान में रखकर यह लोक-आयोजन किया जाता हो। (यह बुंदेलखंड में, विशेष रूप से सागर, दमोह, छतरपुर जिलों में प्रचलित है

)

देवी देवताओं की मूर्ति पर गोबर लेपनः


पानी न बरसने पर गाँव के देवी-देवताओं की मूर्तियों पर गोबर का लेपन कर दिया जाता है। हो सकता है जन-भावना में यह रहता हो कि देवता इस लेप से व्याकुल हो उठेंगे और इन्द्र देवता को आदेशित करेंगे कि वे जल बरसाएँ ताकि उनको इस लेप से मुक्ति मिले। (छत्तीसगढ़, बुंदेलखण्ड, बघेलखण्ड में प्रचलित)

शंकर की पिंडी को जल में डालनाः


पानी की कमी पर शंकर जी की पिंडी को जल में डाल दिया जाता है। शंकर जल-प्रिय देवता हैं यह क्रिया उनकी प्रीत्यर्थ ही की जाती है। जन-विश्वास यह भी हो सकता है कि शंकर अपनी जटाओं से गंगा को फिर छोड़ें ताकि पानी बरसने लगे। (सम्पूर्ण उतर भारत में प्रचलित धार्मिक लोक-विश्वास।)

अखंड रामधुन का आयोजनः


गाँवों में पानी बरसने के निर्मित चौबीस घंटों की अखंड रामधुन लगायी जाती है। गांव भर के लोग पारी-पारी से रामधुन गाते हैं, रामधुन का तार एक क्षण के लिए भी नहीं टूट पाता। समापन पर पूजन किया जाता है।

अवर्षा का कारणः


पानी न बरसने पर ग्रामीण क्षेत्रों में एक धारणा यह है कि किसी व्यापारी ने पानी को भूमि में गाड़ लिया है। मेरी दादी एक कहानी सुनाती थीं, जिसमें यह बताया गया था कि कई वर्षों तक पानी जब एक बार भी नहीं बरसा तो राजा ने एक व्यापारी का आँगन खुदवाया तो आँगन में अनाज मापने के पात्र में पानी गाड़ कर रखा गया था। जैसे ही पानी ऊपर आता है- वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्भवतः पानी का वर्षण उसके प्रवाह-चक्र में है- यह तथ्य भी इसमें निहित हो। दूसरा तथ्य यह भी है कि व्यापारी अवर्षा की स्थिति निर्मित करके बेजा लाभ अर्जित करना चाहता है। (इस लोक-कथा को अलग-अलग तरह से समस्त हिंदी प्रदेशों में स्थान प्राप्त है।)

अन्य लोक विश्वास


तालाब और तलाई का विवाहः
जोड़ी से बनाए तालाबों का विवाह धूमधाम के साथ किया जाता है। गाँव दो पक्षों में बँट जाता है। एक पक्ष बारात लेकर पहुँचता है तो दूसरा पक्ष कन्यादान का पुण्य ग्रहण करता है। तालाबों के बीच में खाम गाड़ा जाता है। तालाबों का गठबंधन होता है। सप्तपदी भी प्रतीक रूप में सम्पन्न होती है। पुरोहित इस विवाह की विधि सम्पन्न कराते हैं। खान-पान की रस्म भी होती है। जल की अभिवृद्धि हेतु ही यह मंगल विधान सम्पन्न किया जाता है। प्रकृति के भीतर भी मानवीय धर्म की तलाश का यह सामाजिक प्रयोजन हमारी लोक-परम्परा का द्योतक है। उस लोक परम्परा का जिसमें जल को जीवित सत्ता माना जाता है। काम की शक्ति के फैलाव के समय तुलसीदास ने लिखा था, ‘संगम करहिं तालाब तलाई!’ (छत्तीसगढ़, बुन्देलखण्ड मालवा में यह प्रथा है)

शिशु-जन्म के बाद कुआँ-पूजन:


शिशु-जन्म के बाद सौरी उठती है। इसके बाद चौक का कार्यक्रम होता है। इसमें नृत्य-गीत आदि का आयोजन होता है। इस आयोजन में शिशु को जन्म देने वाली माँ प्रसव के बाद पहली बार कुएँ पर पानी भरने जाती है। वह कुएँ का पूजन करती है। अपने स्तनों से दूध-धार कुएँ में छोड़ती है। फिर कुएँ से पानी खींचती है। सिर पर गागर रखकर घर आती है। देवर उसके सिर से गागर उतारता है। भाभी देवर को पानी उतारने का नेग देती है। इस अवसर पर जल से सम्बन्धित गीत गाये जाते हैं।

ऊपर बदर घुमडांय, नीचे बहू पनियाँ खों निकरी।
जाय जो कईयो उन राजा ससुर सें
अँगना में कुअला खुदांय
तुमारी बहू पनियाँ खों निकरी!


विवाह के प्रारम्भ में जल का पूजनः


विवाह के पूर्व से ही विवाह का विधि विधान प्रारम्भ हो जाता है। ‘मृतिका पूजन’ के बाद पानी भरने की विधि सम्पन्न होती है। स्त्रियाँ गीत गाते हुए विवाह-हेतु पानी भरने जलाशय के पास जाती हैं। उसका पूजन करती हैं। हल्दी-अक्षत समर्पित करके उसको विवाह का आमंत्रण देती हैं। फिर घड़ों में जल भरकर लाती हैं। इस जल से लायी गयी मिट्टी को गीला किया जाता है। फिर उस मिट्टी से चूल्हा, मटैल्ली, बरौसी और हवन पात्र बनाया जाता है। विवाह का पूजन-पाठ इसी जल से होता है। जल भरने के लिए जाते समय स्त्रियाँ गाती हैं- ‘पनहरिया की गैल में जो पड़ो अडंगी सांप-रीझै नैना बान री।’

पनिहारिन के रास्ते में अड़ियल सर्प पड़ा हुआ है। वह पनहारिन के गालों का चुम्बन लेना चाहता है। ओंठों का रस पान करने के लिए तनमना रहा है। जल के पूर्व यह ‘काम-पूजन’ भी है। मध्यकालीन भक्ति के प्रभाव में लोक के इस भाव को कृष्ण के साथ जोड़ दिया गया है- ‘पनियाँ भरन कैसे जाऊँ गैल रोकत है गिरधारी।’

विवाह में भाँवर के समय गंगा-जल लाने का कार्यक्रम:


पाणिग्रहण के पूर्व नाई किसी जालाशय से एक कलश में पानी भरकर लाता है- यह कहते हुए कि वह गंगाजू से जल भरकर ला रहा है। पूजन-स्थल पर वह सिर से गंगा-जल भरा कलश तभी उतारता है, जब उसे नेग मिल जाता है। गंगा को सिर पर से उतारने के बाद वह वहाँ उपस्थित लोगों से राम-राम करता है। इस रूप में कि वह गंगाजू की यात्रा करके लौटा है। विवाह में सात समुद्र के रूप में सात घड़ा पहले से रखे जाते हैं- यह घड़ा बेई कहलाते हैं। अब समुद्रों के साथ गंगा भी इस पवित्र कार्य की साक्षी के लिए पहुँच जाती है। समुद्रों और गंगा का पूजन विवाह में अनिवार्य रूप से किया जाता है। कन्यादान के समय वर-कन्या और कन्या के माता-पिता की संयुक्त हथेलियों पर रखी गयी हथलोई पर यही गंगा कन्या का भाई ढारता है और पुरोहित कन्या-दान का संकल्प पढ़ता है। इस समय लोक गीत गाया जाता है ‘बिच गंगा बिच जमुना तो तीरथ बड़े हैं पिराग दईयो! जे बिच बैठे मेरे आजुंल देत कुवांरन दान।’ गंगा और यमुना के संगम क्षेत्र प्रयाग में पिता क्वांरी कन्या का दान कर रहे हैं। (उतर भारत में इस तरह कन्यादान की परम्परा है।)

नया कुआँ, जलाशय खनन का पूजनः


प्रायः पंचांग के आधार पर पंडित से मुहूर्त पूछकर ही पंडित द्वारा निर्देशित स्थल पर कुआँ, बावड़ी, तालाब का खनन किया जाता है। खनन के पूर्व पृथ्वी और गंगा का पूजन किया जाता है। खनन में जब जल-धार आ जाती है। तब उपस्थित लोग गंगाजू की जय बोलते हैं। नारियल फोड़ा जाता और गंगा जी का पूजन किया जाता है, लेकिन जल का पान नहीं होता। जब जलाशय तैयार हो जाता है; तब उसका विविधवत उद्यापन किया जाता है। उद्यापन के बाद ही जल-ग्रहण किया जाता है। (सम्पूर्ण भारत में इसका यही स्वरूप मिलता है।)

शपथ लेने में गंगा का स्मरणः


ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी गंगाजल की शपथ लेना सबसे बड़ी शपथ मानी जाती है। इसे ‘गंगा उठाना’ कहा जाता है। सत्य को प्रमाणित करने के लिए शपथ गृहीता को किसी देव स्थान में उपस्थित जनों के बीच अपनी बात को सत्य प्रमाणित करने हेतु अपने सिर पर जल से भरा कलश रखना पड़ता है। इस जल को गंगाजल ही कहा जाता है। यह गंगा की शपथ मानी जाती है। इस शपथ विधि में जल को ही सबसे बड़ा देवता माना गया है।

मृत्यु के समय गंगा-जल का पानः


मृत्यु के निकट पहुँचे व्यक्ति के मुख में गंगा-जल डाला जाता है। इससे मान लिया जाता है कि मरने वाले को गंगा का नैकट्य प्राप्त हो गया है। अब मरने वाला स्वर्ग का अधिकारी हो गया है। पद्माकर कवि ने कहा है- ‘गंगा जेते तुमने तारे तेते नभ में न तारे हैं।’ तुलसीदास ने कहा है- ‘रामनाम जस बरन के भयो चहत अब मौन। तुलसी मुख अब दीजिए गंगा जल अरु सोन।’

प्रत्येक पूजन में कलश पूजनः

ऐसा कोई भी धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, जिसमें कलश का पूजन न होता हो। इस कलश में देश की सभी पवित्र नदियों को आमंत्रित किया जाता है। तीनों देव, सात द्वीप पृथ्वी, सात समुद्र भी इसमें निवास करने लगते हैं। यह जल आपूरित कलश, ब्रह्माण्ड का प्रतीक बन जाता है।

भोजन के अवसर पर पंगत में नदियों को आमंत्रणः


विवाह आदि के समय ज्यौनार के प्रारम्भ में बैठे भोजन करने वालों को जल परोसा जाता है तब ज्यौरार के गीत गाती स्त्रियाँ देश की सभी प्रमुख नदियों को अपने लोकगीत में आमंत्रित करती हैं और ज्यौनार के लौटों में उन्हें भरती हैं। ज्यौनार में भोजन करने वाले इस तरह देश की पवित्र नदियों का जल ही पीते हैं। “गंगा जलु जमुना जलु परसौ। नदी नरबदा को जलु परसौ। सरजू को जलु सबको परसौ। सिंधु सरसुती को जलु परसौ।” (बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड, छत्तीसगढ़ और मालवा में इस तरह के लोकगीत हैं।)

पानी-प्राप्ति के लिए नर-बलि की प्रथाः


तालाबों के साथ इस तरह की किम्वदंतियाँ जुड़ी हुई हैं कि तालाब खुदाने पर उसमें जब पानी नहीं निकलता है, तब तालाब खुदाने वाले को स्वप्नादेश होता था कि वह अपने लड़का की या बहू की या अपने प्रिय-पात्र की बलि दे, तभी पानी निकलेगा। यह बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि तालाब को खुदाने के बाद तालाब के बीचो-बीच बलि के लिए जैसे ही आसन पर या झूले पर बलि के लिए प्रस्तुत व्यक्ति बैठता था, वैसे ही तालाब के चारों ओर से जल का प्रवाह उमड़ता था और बलि हेतु प्रस्तुत व्यक्ति की जल समाधि हो जाती थी। नदी पर पुल बनाने में भी यह किम्वदंती प्रचलित रही है कि नदी पर पुल तभी बनाने में भी यह किम्वदंती प्रचलित रही है कि नदी पर पुल तभी बन पाता था जब नदी को नर-बलि दी जाती थी।

इस लोक-विश्वास में पुरानी बलि-प्रथा के अवशेष ही क्रियाशील हैं। अब इस तरह के कांड नहीं होते। यह एक तरह का अभिप्राय है जिससे अभिव्यक्त होता है लोक-हित के लिए प्रिय व्यक्ति का भी त्याग किया जा सकता है। मिथिला अंचल में प्रचलित जलेछ गीत में एक राजकन्या की करुण कहानी है जो पिता के अनुरोध पर तालाब में प्रवेश कर जाती है। तालाब भर जाता है और वह डूब जाती है। जलेछ शब्द सम्भवतः जल की इच्छा या कामना से बना है। इसी तरह मालवा में ‘बाला बऊ’ और ‘कुलवन्ती बहू’ की गीत कथाएंँ हैं। ‘बाला बऊ’ में राजा ओड़ के लड़के हंस कुँवर और बहू, बाला बऊ के तालाब में प्रवेश करते ही जल का सोता फूट पड़ता है और वे दोनों डूब जाते हैं। ‘कुलवंती बहू’ में गाँव के पटेल की बहू यही करती है। यह प्रथा छतीसगढ़ में भी रही है। बुंदेलखंड में सागर के तालाब के विषय में भी यह विषय में भी यह विश्वास प्रसिद्ध है। यह तालाब किसी बंजारे ने खुदवाया था, किन्तु पानी नहीं निकला तो उसे स्पप्नादेश हुआ कि वह अपने लड़के-बहू की बलि दे। तालाब के बीच में सोने का हिंडोला डाला गया जिस पर उत्सर्ग हेतु लड़का-बहू बैठे-तालाब में चारों दिशाओं से पानी उमड़ा और हिंडोला सहित लड़का-बहू उसी में डूब गये।

नदी-नाले में बाढ़ आने पर दधि-मटकी को प्रवाहित करनाः


नदी या नाले में जब इतनी अधिक बाढ़ आ जाए कि उसके किनारे पर बसे गाँवों के डूबने का खतरा बढ़ जाए तब गाँव के बुजुर्गों के सुझाव पर गाँव के स्त्री-पुरुष एक दधि-मटकी पर चूनर और चूड़ी रखकर बाढ़ का पूजन करते हैं और फिर इस सामग्री के साथ ही दधि-मटकी नदी या नाले में प्रवाहित कर दी जाती है। लोक-विश्वास है कि इससे बाढ़ उतरने लग जाती है। सभी प्रदेशों में यह लोक-विश्वास है।

नदी-किनारे घटोईया की स्थापना :


नदी के जिन घाटों पर नावें चलती हैं उन घाटों पर घटोईया देवता की स्थापना होती है। ये घाट के देवता माने जाते हैं। इनका समय-समय पर केवट पूजन करते हैं। इन्हें नारियल सिंदूर आदि अर्पित किया जाता है। यह माना जाता है कि घटोईया देवता नाव-दुर्घटना को रोकते हैं। मल्लाहों और सवारियों की रक्षा करते हैं। (सम्पूर्ण उतर भारत में घटोईया के दर्शन होते हैं।)

अभिमंत्रित जल का प्रयोगः


लोक जीवन में रोग-राई दूर करने के लिए अभिमंत्रित जल को रोगी पर छिड़कने का विधान है। गुनिया, ओझा, पण्डित या पुरोहित विशेष मंत्र को पढ़ते हुए जल को अभिमंत्रित करते हैं, फिर यह जल रुग्ण व्यक्ति पर छिड़का जाता है या उसे पिलाया जाता है। यह जलीय चिकित्सा की एक प्रणाली है। (जो सर्वत्र प्रचलित है।)

पुरखों को पानी देनाः


पितृ पक्ष में कुल से जलाशय में खड़े होकर तर्पण किया जाता है। लोक-विश्वास के अनुसार इस जल से स्वर्ग में स्थित पुरखे संतृप्त होते हैं। तर्पण के समय तिल, यव और चावल भी जल के साथ पितरों को समर्पित किये जाते हैं। कुछ विशेष तीर्थ स्थल भी तर्पण हेतु महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। (यह सम्पूर्ण भारत में लगभग एक ही तरह से सम्पन्न होने वाला धार्मिक आयोजन है)

पानी उतारनाः


जब बहू मायके से ससुराल जाती है या जब लड़की ससुराल से मायके आती है तब वह सीधे घर में प्रवेश नहीं करती है। वह घर के मुख्य दरवाजे के पास बैठ जाती है। घर की बुजुर्ग स्त्रियाँ लोटा में जल भर कर लाती है। इस जल को सात बार बहू या लड़की के ऊपर से फेरा जाता है और हर फेरे का जल दक्षिण दिशा की ओर फेंका जाता है। यह विश्वास इस ओर इंगित करता है कि रास्ते में यदि किसी की बुरी नजर लग गयी हो तो वह दूर हो जाये। जल बुरी नजर से भी निजात दिलाता है। जल की इस शक्ति को लोक ने अनुभव कर लिया था। मियाना या पालकी में बैठी बहू-बेटी का पानी कहार उतारते हैं। (यह उतर भारत में सर्वत्र प्रचलन में है।)

पृथ्वी के भीतर जल-स्तर को जानने के लोक प्रचलित तरीकेः


धरती के भीतर जल कहाँ-कैसा निकलेगा? इसको जानने के लिए लोक-जीवन में विभिन्न अनुमानों का आधार लिया जाता है। बुंदेलखण्ड छत्तीसगढ़, बघेलखण्ड और मालवा में लकड़ी के द्वारा जल की खोज की जाती है। जिस आदमी का जन्म उलटे रूप में हुआ हो, अर्थात् पैरों के बल जो धरती पर आया हो, वह यदि जामुन की ताजी पतली लकड़ी दोनों हाथों में इस तरह लेकर चले कि लकड़ी के दोनों छोड़ सामने दोनों हथेलियों में रहे तो जहाँ धरती के भीतर नजदीक पानी होता है, वहाँ यह लकड़ी अपने आप वृत्ताकार मुड़ने लगती है। कहीं-कहीं अमरूद की लकड़ी का भी प्रयोग होता है। जिस जगह पर साँप की बामियाँ अधिक होती हैं वहाँ भी धरती के अंदर पानी बहुत नजदीक होता है।

बादलों के विषय में लोक-विश्वासः


बादलों को राजा इन्द्र का हाथी कहा जाता है। गाँवों में यह मान्यता है कि ये हाथी समुद्र से अपनी सूंड में पानी भर कर लाते हैं और धरती पर छिड़कते रहते हैं। हो सकता है यह समुद्र से वाष्प बनने का रूपक हो। बादलों के रंग को देखकर वर्षा-जल की मात्रा का अनुमापन होता है:

“सेत बरसे खेत भर, लाल बरसे ताल भर
पीरो बरसे पारे भर, और जब
बरसे धुआँधारो तो आवें नदी-नारो।”


सफेद रंग का बादल खेत भर बरसता है। लाल रंग का तालाब भर। पीले रंग का कटोरी भर और धुआँरे रंग का बादल जब बरसता है तो नदी-नालों में पूर आ जाते हैं। तीतल रंग के बादल अवश्य बरसते हैं।

‘तीतर रंग की बादरी विधवा काजर रेख/वे बरसें वे घर करें, कहे भड्डरी देख।’ यदि बादल का रंग तीतल जैसा है और विधवा काजल लगा रही है तो निश्चित ही बादल बरसेगा और विधवा दूसरा विवाह करेगी। शुक्रवार को उठा बादल यदि शनिवार तक छाया रहे तो वह जरूर बरसेगा।

‘शुक्रवार की बादरी रहे शनीचर छाय/ऐसो बोले भड्डी बिन बरसे न जाय।’आषाढ़ पूनौ दिना गाज बीज बरसंत / ऐसो बोले भड्डरी आनन्द मानो संत।’

मघा नक्षत्र में बरसने वाला पानी ही खेत को सराबोर करने वाला होता है। जैसे माँ के परोसे बिना पेट नहीं भरता है, वैसे ही मघा के बरसे बिना खेत नहीं भरते। (ये विश्वास पूरे उतर भारत में प्रचलित है

‘माता न परसे भरे न पेट / मघा न बरसे भरे न खेत।’

आषाढ़ के पहले दौंगरे में भींगनाः


माना जाता है कि आषाढ़ माह में जब पहली बार बारिश होती है तब उसमें भींगना स्वास्थ्यप्रद होता है। इस वर्षा को दौंगरा कहा जाता है। नीम के वृक्ष के नीचे खड़े होकर इस दौंगरे के जल से अपने शरीर को भिगोना चाहिए। (यह सर्वत्र प्रचलन में है।)

अतिवृष्टि को रोकने का उपायः


जब पानी अधिक बरसता है और जन-धन की हानि होने लगती है, तब गाँव में स्त्रियाँ नग्न होकर घर के बारह निकलकर बादलों को लूगर (जलती लकड़ी) दिखाती हैं। इससे बादल बरसना बंद कर देते हैं। (यह बुंदेलखण्ड में प्रचलित लोक-विश्वास है।)

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