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गाय दुहे, बिन छाने लावै
Posted on 26 Mar, 2010 10:51 AM
गाय दुहे, बिन छाने लावै, गरमा, गरम तुरन्त चढ़ावै।
बाढ़ै बल अउर बुद्धि भाई, घाघ कहे सच्ची बतलाई।


भावार्थ- घाघ का कहना है कि गाय को दूहकर उसी समय बिना छाने गरमागरम कच्चा दूध पीने से बल और बुद्धि दोनों बढ़ती हैं।

खाइ कै मूतै सूतै बाउँ
Posted on 26 Mar, 2010 10:49 AM
खाइ कै मूतै सूतै बाउँ।
काहै के बैद बसावै गाउँ।


भावार्थ- यदि व्यक्ति खाना खाने के पश्चत् पेशाब करके बायें करवट सो जाए, तो उसे अपने गाँव में वैद्य बसाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी अर्थात् ऐसा करने वाला व्यक्ति सदैव स्वस्थ रहता है।

ऊँचे चढ़िके बोला मँडुवा
Posted on 26 Mar, 2010 10:48 AM
ऊँचे चढ़िके बोला मँडुवा। सब नाजों का मैं हूँ भँडुवा।।
आठ दिना मुझको जो खाय। भले मर्द से उठा न जाय।।


भावार्थ- मँडुआ नामक अन्न ऊँचे खड़े होकर कहता है कि मैं सब अन्नों में भँडुआ (निर्लज्ज) हूँ। यदि मुझे आठ दिन खा ले तो वह कितना भी शक्तिशाली मर्द हो निर्बल हो जायेगा और उठकर चल नहीं पायेगा।

स्वास्थ्य सम्बन्धी कहावतें
Posted on 26 Mar, 2010 10:25 AM
अँतरे खोंतरे डंडै करै।
ताल नहाय ओस माँ परै।।

दैव न मारै अपुवइ मरै।


भावार्थ- जो व्यक्ति कभी-कभी (दूसरे-चौथे) व्यायाम करता है अर्थात् नियमित नहीं करता, तालाब में स्नान करता है और ओस में सोता है, उसे भगवान या भाग्य नहीं मारता स्वयं अपनी मूर्खता से मरता है।

सोम सनीचर पुरुब न चालू
Posted on 26 Mar, 2010 10:22 AM
सोम सनीचर पुरुब न चालू। मंगर बुद्ध उतर दिसि कालू।।
बिहफै दक्खिन करै पयाना। नहि समुझें ताको घर आना।।

बूध कहै में बड़ा सयाना। मोरे दिन जिन किह्यौ पयाना।।
कौड़ी से नहीँ भेट कराऊँ। छेम कुसल से घर पहुँचाऊँ।।

सूके सोमे बुधे बाम
Posted on 26 Mar, 2010 10:20 AM
सूके सोमे बुधे बाम। यहि स्वर लंका जीते राम।।
जो स्वर चले सोई पग दीजै। काहे क पंडित पत्रा लीजै।।

स्वान धुनै जो अंग
Posted on 26 Mar, 2010 10:18 AM
स्वान धुनै जो अंग, अथवा लौटैं भूमि पर।
तौ निज कारज भंग, अतिही भंग, अतिही कुसगुन जानिये।।


भावार्थ- यदि यात्रा के समय कुत्ता अपना शरीर फड़फड़ाये या भूमि पर लोटता नजर आये तो बड़ा अशुभ होता है। व्यक्ति जिस कार्य से जा रहा है वह पूरा नहीं होगा। यह एक अपशकुन है।

सिर पर गिरैं राज सुख पावै
Posted on 26 Mar, 2010 10:15 AM
सिर पर गिरैं राज सुख पावै। और लालट ऐस्वर्यहि आवै।।
कंठ मिलावै पिय को लाई। काँधे पड़े बिजय दरसाई।।

जुगल कान और जुगल भुजाहू। गोधा गिरे होय धन लाहू।।
हाथन ऊपर जो कहूँ गिरई, सम्पति सकल गेह में धरई।।

निश्चय पीठ परै सुख पावै। परे काँख पिय बंधु मिलावै।।
कटि के परे वस्त्र बहु रंगा। गुदा परे मिल मित्र अभंगा।।
सनमुख छींक लड़ाई भाखै
Posted on 26 Mar, 2010 10:06 AM
सनमुख छींक लड़ाई भाखै। पीठि पाछिली सुख अभिलाखै।।
छींक दाहिनी धन को नासै। बाम छींक सुख सदा अकासै।

ऊँची छींक महा सुभकारी। नीची छींक महा भयकारी।।
अपनी छींक महा दुखदाई। कह भड्डर जोसी समझाई।।

अपनी छींक राम बन गयऊ।
सीता हरन तुरंतै भयऊ।।

सगुन सुभासुभ निकट हो
Posted on 26 Mar, 2010 10:03 AM
सगुन सुभासुभ निकट हो, अथवा होवै दूर।
दूरि से दूरि निकट निकट, समझौ फल भरपूर।।


भावार्थ- यदि शुभ और अशुभ शकुन दूर हो तो फल को भी दूर समझना चाहिए और यदि निकट हो तो फल को भी निकट समझना चाहिए।

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