पानी, जहर और जीडीपी

भारत में नदियों को प्रदूषित करने की अनुमति दी जाती है. आप जितना प्रदूषित पानी पिएंगे, बीमार पड़ने की उतनी ही अधिक संभावना होगी. फिर आप डाक्टर के पास जाएंगे, जो आपसे फीस वसूलेगा. जिसका मतलब हुआ कि पैसा हाथों से गुजरेगा. इससे जीडीपी बढ़ेगी. यहां तक कि सफाई अभियान भी, जैसे यमुना की सफाई के लिए एक हजार करोड़ रुपए, जीडीपी की गणना को ही बढ़ाती है.

इस चिलचिलाती गरमी में पानी का मुद्दा गरमाया हुआ है. जैसे-जैसे तापमान चढ़ रहा है और प्रमुख जलस्त्रोत सूखते जा रहे हैं, दिन-ब-दिन पीने के पानी को लेकर खून बहने लगा है. अपनी रोजमर्रा की जरूरत भी पूरी न होने से गुस्साएं प्रदर्शनकारी सड़कों पर निकल रहे हैं. आने वाले महीनों में, पानी की अनुपलब्धता सुर्खियों में रहने वाली है.

पिछले 15 सालों से खतरे की घंटी बज रही है, किंतु किसी ने भी परवाह नहीं की. 1990 के दशक के मुकाबले पिछले दशक में 70 प्रतिशत अधिक भूजल का दोहन हुआ है और देश भर में जलस्त्रोत प्रदूषित हो गए हैं. जिससे कैंसर और फ्लूरोसिस जैसी बीमारियां फैल रही हैं. फ्लूरोसिस हड्डियों, दांतों और मांसपेशियों को क्षतिग्रस्त कर देता है. फिर भी देश उद्विग्न नहीं है.

संसद को सूचित किया गया कि देश में छह लाख गांवों में से 1.8 लाख गांवों में पानी दूषित है. इन गांवों में लोग जो पानी पी रहे हैं, वह धीमा जहर है. किंतु संसद को जो नहीं बताया गया है, वह यह है कि हमारी सभी प्रमुख नदियों की सहायक नदियां उद्योगों से निकले जहरीले पानी का गंदा नाला बन गई हैं.

उदाहरण के लिए, गोरखपुर के पास से बहने वाली अम्मी नदी को ही लें. इस नदी के किनारे रहने वाले करीब 1.5 लाख लोग लंबे समय से उद्योगों का कचरा और जहरीला पानी नदी में बहाये जाने के खिलाफ विरोध कर रहे हैं. इस नदी के किनारे बसे सैकड़ों गांवों के लिए यही एक जीवनरेखा है. किंतु दुर्भाग्य से यह अब उनके लिए मुसीबत बन गई है.

मेरठ से होकर गुजरने वाली काली नदी अब काली हो गई है. गांव वालों ने मुझे बताया कि पिछले 40 सालों से वे इस नदी में गिरने वाली औद्योगिक कचरे और पानी को बंद करने के लिए प्रशासन से गुहार लगा रहे हैं. राज्य सरकार उद्योगों को यह निर्देश देने की अनिच्छुक है कि वे नदी के पानी में बेहद खतरनाक रसायन मिला जहरीला पानी और कचरा न डालें.

दिलचस्प यह है कि काली गंगा नदी में गिरती है, जिसकी सफाई का अभियान चल रहा है. किंतु मैं यह समझने में असफल रहा हूं कि पर्यावरण और वन मंत्रालय गंगा की सफाई कैसे कर सकता है, जबकि इसकी सहायक नदियों की गंदगी इसमें प्रवाहित होती रहती है. किंतु इसकी परवाह कौन करता है? पंजाब के बाबा सींचेवाल से पूछिए, जिन्होंने समुदाय को गतिशील करके राज्य के दिल से होकर बहने वाली गंदी काली नदी को साफ करने का बीड़ा उठाया. अथक प्रयासों के कारण उनकी काफी सराहना हुई, किंतु नदी में औद्योगिक गंदगी के गिरने वाले सतत प्रवाह से उन्हें जूझना पड़ रहा है. पंजाब सरकार स्पष्ट तौर पर प्रदूषण का स्त्रोत बंद करने की इच्छुक नहीं है, क्योंकि इसके लिए उसे उद्योगों को नदी में गंदगी डालने से रोकना होगा.

इसका कारण बिल्कुल साफ है. ये तमाम उद्योग उस विकास दर को बढ़ाते हैं, जो हम रोजाना अखबारों में पढ़ा करते हैं. इससे सकल घरेलू उत्पादन ऊपर जाता है और प्रत्येक मुख्यमंत्री अपने रिपोर्ट कार्ड में अधिकतम सकल घरेलू उत्पाद दिखाना चाहता है.

सर्वप्रथम, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को नदियों के किनारे स्थापित करने की अनुमति देते समय ही सरकार यह जानती है कि यह एक आर्थिक गतिविधि है. जब तक उद्योग-धंधे नदियों के किनारे चलते रहेंगे, तब तक सकल घरेलू उत्पाद बढ़ता रहेगा, भले ही वे अपनी गंदगी नदियों में उलीचते रहें. इसके अलावा, बहुत से लोग यह नहीं जानते कि यह उद्योग मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ सकल घरेलू उत्पाद में भी वृद्धि करते हैं.

आप जितना प्रदूषित पानी पिएंगे, बीमार पड़ने की उतनी ही अधिक संभावना होगी. फिर आप डाक्टर के पास जाएंगे, जो आपसे फीस वसूलेगा. जिसका मतलब हुआ कि पैसा हाथों से गुजरेगा. इससे जीडीपी बढ़ेगी. यहां तक कि सफाई अभियान भी, जैसे यमुना की सफाई के लिए एक हजार करोड़ रुपए की परियोजना, जो जीडीपी की गणना को बढ़ाती है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में नदियों को प्रदूषित करने की अनुमति दी जाती है. इससे जीडीपी में तिहरी वृद्धि होती है. पहले तो प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की स्थापना करके. दूसरे, प्रदूषित पानी पीने के कारण बीमार पड़ने पर लोगों को चिकित्सा पर अधिक रकम खर्च करनी पड़ती है, जिससे जीडीपी में वृद्धि होती है. और अंत में, नदियों को साफ करने के लिए तकनीकी निवेश भी जीडीपी को बढ़ाता है. इस तरह, नदियों में जितनी गंदगी गिरेगी, देश की जीडीपी में उतनी ही वृद्धि होगी.

पीने के पानी की उपलब्धता सिकुड़ने के मुद्दे पर वापस आएं. एक संसदीय समिति ने बताया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 84 प्रतिशत से अधिक घर ग्रामीण जलापूर्ति के दायरे में आते हैं, फिर भी केवल 16 प्रतिशत आबादी ही सार्वजनिक नलों से पानी का पानी ले पाती है. मात्र 12 प्रतिशत घरों में ही व्यक्तिगत नल की व्यवस्था हैं. क्या इससे झटका नहीं लगता कि आजादी के 63 साल बाद भी केवल 12 प्रतिशत ग्रामीण घरों में पीने के पानी के नल हैं?

यह हाल भी तब है जबकि राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम जारी है, जिसके लिए 2009-10 में आठ हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. आश्चर्यजनक बात यह है कि पीने के पानी वाले नल भले ही सूख रहे हैं, लेकिन टैंकरों से आपूर्ति किए जाने वाले जल की कभी कोई समस्या नहीं रही. उदाहरण के तौर पर मुंबई में तकरीबन 48 प्रतिशत पीने का पानी खराब पाइपलाइनों की वजह से बहकर नष्ट हो जाता है. कुछ लोग सोचते हैं कि यह बहुत सामान्य बात है क्योंकि यहां टैंकर माफियाओं का राज है. टैंकर माफियाओं का राज केवल मुंबई शहर में ही नहीं है बल्कि देश के दूसरे शहरों में भी चलता है. यदि पूरे देश में पानी के स्रोत सूख रहे हैं तो आश्चर्य है कि इन टैंकरों को पानी कहां से मिलता है?. हरेक को मालूम है कि देश भर में पानी की कमी और सूखा आदि की वजह यह टैंकर माफिया हैं, लेकिन इस पर ध्यान किसे है.

जल संकट की इस समस्या की एक बड़ी वजह औद्योगिक इकाईयां हैं. यह पीने के पानी को गटक जाते हैं और नदियों के साथ पानी के दूसरे स्रोतों को प्रदूषित करते हैं. इसके बाद कंपनियां अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के तहत पानी बचाओ अभियान शुरू करती हैं. गुणगांव में आईटीसी कंपनी ने एक ऐसा ही प्रोजेक्ट लांच किया है. इसमें घरों में काम करने वाली नौकरानियों को बताया जाता है कि किस तरह वे बरतन की सफाई करते हुए एक मग जल की बचत कर सकती हैं.

हाल ही में आंध्र प्रदेश सरकार ने गुंटूर जिले में स्थित कोका कोला कंपनी को कृष्णा नदी से प्रतिदिन 21.5 लाख लीटर पानी देने का निर्णय लिया है. हालांकि गुंटूर जिले में सैकड़ों गांव पीने के पानी की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं. शायद सरकार यह सोचती है कि गांवों में रहने वाले ये गरीब अपनी प्यास पानी की बजाय कोक से बुझा सकते हैं. कोका कोला कंपनी इसके बदले में अपनी सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत माजा बनाने के लिए वहां आम खरीदने का दावा करती है. यह एक तीर से दो निशाने वाली बात है. हमें इसके पीछे की बात नहीं भूलनी चाहिए कि जितना अधिक कोक के बोतल बिकेंगे, सकल घरेलू उत्पाद भी उतना ही बढ़ेगा. अब ऐसे में पानी के लिए होने वाले लड़ाई की परहवाह कौन करेगा.

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