देश में बढ़ती आबादी, औद्योगिकीकरण, गहन कृषि और शहरीकरण आदि हमारे विशाल लेकिन सीमित जल संसाधनों पर भारी दबाव डालते हैं। इसके परिणाम स्वरूप, भारत में वर्ष 2050 तक जल की माँग 32 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी, जिसमें औद्योगिक और घरेलू क्षेत्र में ही इस पूरी माँग का 85 प्रतिशत हिस्सा होगा। अनियंत्रित शहरीकरण के कारण भूजल का अधिकाधिक दोहन, जलभृतों को पुनः भरित करने में असफलता एवं जलग्रहण (कैचमेंट) क्षमता में कमी आदि जल संतुलन में अनिश्चित दबाव के कई मुख्य कारण हैं।
वर्तमान में भारत के लगभग 140 मिलियन हेक्टेयर के बुआई क्षेत्र में से 68% क्षेत्र सूखे की स्थिति के प्रति अधिक संवेदनशील है और लगभग 50% ऐसे क्षेत्र को 'गंभीर' श्रेणी के रूप में वर्गीकृत किया गया है जहाँ सूखे की आवृत्ति लगभग नियमित रूप से घटित होती रहती है।
अंतरसस्य फसल पद्धति में एक ही स्थान पर एक ही भूमि के टुकड़े में एक साथ दो या इससे भी अधिक फसलों की खेती की जाती है अंतरसस्य फसल पद्धति को अपनाकर फसल की समान तुल्य उपज और अर्थिकी को इसमें संसाधनों की उपयोग दक्षता में वृद्धि और मृदा में नाइट्रोजन स्थिरीकरण की वजह से मृदा की उर्वरता में सुधार द्वारा बढाया जा सकता है क्योंकि दलहन फसलें मृदा में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करती है।
सूरजमुखी एक उभरती हुई तिलहन फसल है जिसमें खरीफ धान की फसल के बाद एक आपातकालीन (Contingent ) फसल के रूप में समायोजित होने की अनुकूलन क्षमता है या यूं कह सकते हैं कि यह फसल नीची भूमि के पारिस्थितिक तंत्र में अधिक जल आवश्यकता वाली धान की फसल का एक बहुत ही अच्छा विकल्प है।
महाद्वीपीय परत में आर्सेनिक की औसत सांद्रता 1-5 मिलीग्राम / किग्रा होती है जो यह दोनों एंथ्रोपोजेनिक और भूजनिक स्रोतों से आती है। यद्यपि, आर्सेनिक प्रदूषण के एंथ्रोपोजेनिक स्रोतों में तेजी से वृद्धि हो रही है, जो कि बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हाल ही के प्रकरण में यहाँ यह भी ध्यान दिया जाना चाहिये कि गंगा- मेघना ब्रह्मपुत्र (GMB) नदियों के मैदानी क्षेत्रों में भूजल का आर्सेनिक प्रदूषण भूजनिक प्रवृति का है
विभिन्न जल संसाधनों में से भूजल हमारे दिन-प्रतिदिन जीवन की क्रियाओं में अधिकतम योगदान देता है। विश्व के कुल 3% ताजा जल संसाधनों में से अधिकतर जल ध्रुवीय और पहाड़ी क्षेत्रों में बर्फ के रूप में पाया जाता है, वैश्विक जल का केवल 1% भाग ही तरल अवस्था में मौजूद है। जबकि, कुल 98% ताजा भूजल तरल अवस्था में पाया जाता है, इसलिये, यह पृथ्वी का सबसे मूल्यवान ताजा जल संसाधन है। भूजल की गुणवत्ता मानव स्वास्थ्य और खाद्यान की मात्रा एवं गुणवत्ता के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह मृदा, फसलों और आसपास के वातावरण को प्रभावित करती है।
Freshwater biologists Sameer Padhye and Avinash Vanjare talk about smaller and lesser known animals that live in freshwater ecosystems and the importance of studying them.
कृषि उत्पादन के लिये जल सबसे महत्वपूर्ण इनपुट है। हमारे देश में मानसून की अनियमितता और अति भूजल दोहन के कारण इसके स्तर में गिरावट के परिणामस्वरूप कृषि के उपयोग के लिये ताजे जल को आपूर्ति की कमी हो रही है। अतः आने वाले समय में इस अमूल्य संसाधन हेतु दक्ष उपयोग की आवश्यकता है मानव आबादी द्वारा जल उपयोग की बढ़ती माँग और बेहतर पर्यावरणीय गुणवत्ता की वजह से फसलों की जल उपयोग की दक्षता में वृद्धि वर्तमान में चिंता का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उभर कर सामने आ रहा है।
सिंचाई के जल की कमी पौधों में जल और पोषक तत्व तनाव के द्वारा उपन पर प्रभाव डालती है। इस संदर्भ में उपलब्ध जल संसाधनों का प्रभावी उपयोग करने के लिये वैज्ञानिक सिचाई के समय का निर्धारण किसानों को बहुत सहायता कर सकता है एक ऐसा उपकरण जो वाष्पीकरण को मापने के साथ-साथ मौसम के कारकों के प्रभाव को भी एकीकृत करता हो सिंचाई समय के निर्धारण के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है।
गुजरात राज्य में जल संसाधन बहुत ही सीमित है। वहाँ की प्रमुख नदियां जैसे तापी (उकाई काकरापार), माही (माहौ कदाना), साबरमती (घरोई) आदि के जल का उपयोग करने के लिये पहले से ही पर्याप्त कदम उठाए गए हैं। आगे भी नर्मदा नदी के जल संसाधनों का उपयोग करने के लिये प्रयास पूरी गति से उठाए जा रहे हैं। राज्य के प्रमुख हिस्सों में कम वर्षा और मुख्य रूप से मृदा की जलोड़ प्रकृति के कारण यहाँ अन्य छोटी छोटी नदियों की जल क्षमता सीमित ही नहीं है
जल हमारे जीवन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण भाग है। जल के बिना जीवन निर्वाह संभव नहीं है। जल की आवश्यकता जितनी मानव के लिए आवश्यक है उतनी ही पौधों के लिए भी आवश्यक है। फसलों एवं पौधों का लगभग 70-90 प्रतिशत भाग जल का ही बना होता है। पौधे सदैव अपना भोजन मृदा से घोल के रूप में जल के माध्यम से ही लेते हैं या ग्रहण करते हैं।
कृषि के लिये जल उपलब्धता में कमी के साथ साथ फसलों की पैदावार और इनपुट दक्षता में कमी मुख्य चिंता का विषय बनता जा रहा है। इसलिये जल की कमी को देखते जम्मू के विभिन्न नहरी कमांड क्षेत्रों में चान गेहूँ फसल अनुक्रम के तहत कुल क्षेत्र 1.10 लाख हैक्टेयर आता है।
ओडिसा राज्य एवं पूर्वी भारत के अन्य क्षेत्रों में सिचाई जल की कम आवश्यकता के कारण अनानास की खेती की अनुकूलनशीलता बहुत अधिक प्रचलित है। यह फसल कम से कम सिचाई जल पर भी जीवित रह सकती है या यूं कह सकते है कि इसमें सिचाई जल देना या प्रयोग करना भी जरूरी नहीं है। यह केवल वर्षा जल से ही अपनी सिंचाई की आवश्यकता को पूरी कर सकती है। अतः खरीफ धान के बाद रबी के मौसम में जो भूमि परती रहती है उसमें इस 12 महीने से अधिक अवधि वाली अनानास की फसल को विभिन्न उचित सस्य प्रबंधन विधियों के साथ अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मध्यम एवं ऊँची भूमि परिस्थितियों के तहत बहुत अच्छी तरह से उगाया जा सकता है।
ओडिशा राज्य की तटीय रेखा बंगाल की खाड़ी के किनारे 480 किलोमीटर तक फैली हुई है और इस तट रेखा से 0 से 10 किमी की दूरी के तहत स्थित क्षेत्रों में भूजल को अधिक पम्पिंग के कारण लवणता की समस्या अधिक पायी जाती है। इसलिये वहाँ फसली क्षेत्र को बढ़ाने हेतु जल संसाधन विकसित करने के लिये बहुत ही सीमित विकल्प मौजूद है।
कृषि के लिये जल एक सीमित संसाधन है जिसकी फसलोत्पादन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जल की कमी ना अत्यधिक मात्रा के कारण फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है संसार के समस्त जल संसाधनों का केवल 2.6 प्रतिशत जल ही पीने एवं फसलों को सिंचाई के लिये उपलब्ध है।