वह फिर जी उठी

पहाड़ी प्रदेश, ऊभड़-खाभड़!
छोटा नागपुर या मध्य प्रदेश का ऐसा ही
कोई इलाका...
छोटी-सी एक नदी
अपने आप में मस्त
हां, पहाड़ी नदी!
हरे-भरे किनारे
इधर भी जंगल, उधर भी जंगल!
जामुन, गूलर, पलाश, आम, महुआ, नीम...
सभी देखते हैं अपना-अपना चेहरा
-नदी के पानी में!
रात को झांकते होते हैं आसमान के तारे
जगमगाती है दिन के वक्त
उड़ते पंछियों की परछाई!
नदी क्या है, आईना है!
अंदर तैरती है मछलियां, बाहर बतखें...
कछारों में बगुलों की कतार
जाने, क्या देख रहे हैं महाशय जी,
ध्यान जमाकर!
गांव भी आबाद हैं बीच-बीच में...
नदी के दोनों ओर...
बांस और लकड़ी के कामचलाऊ पुल...
अपने आप बना लेते हैं लोग ऐसे पुल!

लगाते हैं छलांग छोकरे
बहते पानी के अंदर!
डुबोकर पैर, बैठी रहती हैं
देर-देर तक छोकरियां तट की शिलाओं पर!
सुनती है कहानियां
अलापती हैं कड़ियां लोकगीत की
डरता नहीं है कोई इस नदी से
प्यार ही प्यार मिलता है इसको शिकार भी खुश
शिकारी भी खुश
अमीर भी खुश
गरीब भी खुश
अमृत होता है एक-एक बूंद पानी फसलों की
खातिर!
कलियों को मिलती है सतरंगी रौनक
लेते हैं अंगड़ाइयां मोती-
फलियों के अंदर, छिमियों के अंदर!
ढलते हैं स्वादों के जादू फलित रसों की
रूह में!
नाच की थिरकन...
गीत का अलाप...
प्यार की सिहरन...
जीत की हुलास...
क्या नहीं है वह?
मां भी है, बेटी भी है, बहन भी है,
बहू भी है!
सहेली भी है, प्रेयसी भी है!
साथिन है सुख-दु:ख की, सब कुछ है!
क्या नहीं है वह अपनी जनता के लेखे!

हाय, यह क्या हुआ!
चढ़ गया घमंड का बुखार इस नदी को...
अकड़ क्यों गई यह आखिर?
‘नदी रानी, नदी रानी, कैसी हो तुम!
क्या हुआ तुमको?’
‘ना, ना, कुछ न बोले कोई मुझसे...
मैं नहीं देती जवाब किसी के सवाल का!...’
‘मालूम भी तो पड़े आखिर
किसने क्या कहा है तुमसे, नदी रानी?
बतला भी तो दो उसका नाम!
नहीं बतलाओगी? नहीं?’
‘मुझे चिढ़ा रहा था नीम का बिरवा!
बना रहे थे मुंह-
जामुन और गुलर के बौने पेड़!
मार रही थी मुझे ताने लचकीली बैंत!’
अभी कल की बात है,
मार दिया था मुझे कंकर एक छोकरी ने
फूट ही जाती आंख...
बच गई मैं तो!
पहचानती हूं भली-भांति
मैं उस छोकरी को
झुला चुकी हूं घंटों उसे
अपनी लहरों के झूले पर!
शादी क्या हुई,
मिजाज ही उलट गया दुष्ट का!
क्यों मुझे छेड़ेगी वो?
परसों नहाने आया नौजवान आदिवासी
डाल गया मुरझाए फूलों की बासी माला
सुलगती रही सारी रात मैं ग्लानि के मारे...
ठीक है, ठीक है, छोकरी के साथ
नाचे थे तुम
मिलाकर कदमों से कदम, डालकर गल-बांही
गुथी रही थी यह माला उसी के जुड़े में
सारा दिन!
मगर; चढ़ा गए मुझी पर क्यों तुम
अपने प्यार का यह जूठा प्रसाद?
ओह, मौं तुमको भी झेलूं!
और तुम्हारी मुहब्बत के नखरे भी!
भई, इतना तो नहीं पार लगेगा मुझसे!
अभी उस रोज आ गए झूमते-झामते
एक सांड़ साहब...धंस गए बेखटके मेरी धार के अंदर
मिटाया तन का ताप
बुझाई रग-रग की प्यास
देखते रहे गौर से अपने टूटे सींग,
परछाईं के अंदर!
फिर जाने ललकारते रहे किसको!
फिर जाने दुहारते रहे विजय के कैसे-कैसे नारे!
देखना नहीं चाहती मैं इस मूर्ख को...
नाहक मुझे परेशान करता है बीच-बीच में
आकर!
किनारे की मिट्टियां मुलायम
उकेर-उकेर जाता है खुरों और सींगों से!
हाय राम, मैं क्या करूँ...
नहीं, मुझे फुसलाओ मत!
पहचानती हूं तुम सबको!
धोखा नहीं दे सकता मुझको कोई...
हां, मैं पहचानती हूं एक-एक को!
नहीं गलाऊंगी अब मैं अपनी देह किसी
की खातिर!
बंद कर दूंगी मैं तो अब बहना ही
क्या कर लेगा मेरा कोई
रहूंगी अब मैं जहां की तहां
गर्ज हो किसी को तो सामने आए,
देखूंगी मैं!’
‘अरे, नहीं नदी रानी!
ऐसा नहीं, ऐसा नहीं, ऐसा नहीं...
रंज मत होना नदी रानी!’
‘नहीं, मैं अब नहीं मानूंगी किसी की बात!’
‘नहीं ?’
‘नहीं!’
‘नहीं ?’
‘नहीं!’
‘नहीं ?’
‘नहीं ! नहीं ! नहीं !’

नदी ने समेट लिया अपने को!
रुक गए प्रवाह...
गायब हो गईं लहरें...
फैलने लगा सेवार अंदर ही अंदर
बदलती गई पानी की रंगत
कहीं और जाने लगे प्यासे पशु-पक्षी
टहलने-बुलने लगे कीड़े
झांकना तक छोड़ दिया छोकरों-
छोकरियों ने...
पांक और पांक और पांक!
कीचड़ और कीचड़ और कीचड़!
वही कूल, वही किनारा...
लेकिन प्राण ही गए थे सूख...
खड़े थे उदास तटवर्ती पेड़
दिखती थी रेत ही रेत
मर गई थी नदी
बिछी थी बालुकामय लाश!
मच गया हल्ला सारे प्रदेश में
मर गई थी नदी!
उमड़ पड़े जगह-जगह लोग...
मर गई थी नदी!
दुखी था किसान... मर गई थी नदी!
फिर से आ गई जान नदी के अंदर
कई महीने बाद...
बादलों से कहा था सूरज की किरणों ने;
सूरज की किरणों से कहा था हवा ने!
हवा से कहा था मेढ़कों ने!
झेलना पड़ा था नदी का घमंड बेचारे
मेढ़कों को...
झूठा घमंड! फिजूल का घमंड!
डाल दिया बादलों ने
नदी के अंदर जीवन चुपचाप एक रात!
डूब गए दियारे छोटे-मोटे
टूट गईं हदें, टूट गए बांध!
फिर से हो गया चालू पानी का प्रवाह
किनारों के बीच से होकर
फिर से लगीं नाचने लहरें
फिर से लगे मचलने झाग
फिर से फैल गई खुशखबरी इर्द-गिर्द
फिर से शुरू हुआ लोगों का आना-जाना
फिर से आने लगे पखेरू
कछारों में दीख पड़ी फिर से
वन्य जंतुओं के पैरों की छाप
छेड़खानी करने लगी नदी फिर उनसे!
फिर से लगी उछलने वह छोटी-छोटी
मछलियां
फिर से जगमगा उठे चांदी के झुमके
लहरिया मेहराब पर!
फिर से लगे उलीचने पानी एक-दूसरे पर
छोकरे और छोकरियां
मुस्कराने लगे फिर से किनारों के जंगल
फिर से पा गए आईना अपना
जामुन और नीम और गूलर और पलाश!
कितनी खुश है
तटवर्ती गांवों की क्वांरी लड़कियां!
दोने भर-भर बहा रही हैं जलते दीपक!
किस ओर चला गया है जाने
बहकर नदी का घमंड!
कभी नहीं सूखेगी अब यह नदी
बहती रहेगी सदैव यह चंचल सरिता
चंचल होगी तो होगी, जानमारू नहीं होगी!
बांटती रहेगी छोटी-छोटी खुशियां
छोटी-छोटी लहरों के जरिए!

1966

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