जल नहीं अनंत है...

यह विनम्र गंग धार
बह रही अनंत से
विमल चली थी स्रोत से
समल बना दिया इसे
विनाश तो विहंस हो
बजा रहा मृदंग है
दैव भी सुरसरि का
नाश देख दंग है
क्या हुआ है मनुज को
क्यों अंत देखता नहीं
ज्ञान क्या नहीं उसे
जल नहीं अनंत है
सभ्यता विहान से
युगों के आह्वान से
उदय है विज्ञान का
छू रहा है गगन आज
किन्तु अंत कर रहा है
अपने ही अज्ञान से
यमुना,ब्यास ,कृष्णा हो
कावेरी,गोदावरी
ब्रह्मपुत्र ,महानदी
सब ही लुप्त हो चलीं
सब ही रो रहीं हैं लख
निकट सर्व नाश है
काल भी विकल हुआ
राज धर्म सुप्त है
आज भी जगे नहीं तो
नियति का विनाश है
अमिट सत्य कल भी था
आज भी अटल यही
जल आधार जीव का
जल बिना नहीं मही !!

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