पुस्तकें और पुस्तक समीक्षा

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क्षिप्रा धारा
Posted on 15 Sep, 2013 02:57 PM बहती है क्षिप्रा की धारा
इसमें धुलते पैर तुम्हारे
जो कोमल हैं अरुण कमल-से
इसमें मिलता सौरभ मादक
जल में लहराते अंचल से,
पर न ठहरती क्षिप्रा-धारा
ले जाती है जो कुछ पाया
सब कुछ पाया, कुछ न गँवाया
धुलकर तेरा रूप मनोहर
अपना सौरभ लेकर आया।
बहती जाती क्षिप्रा-धारा
लेकर तेरा सौरभ सारा
पर न ठहरती, ले जाती है
एक घाट से किसी दूसरे
गुंफित गंगा गाथा
Posted on 15 Sep, 2013 12:44 PM यह यात्रा तीस प्रमुख शहरों से गुजरती है। हर शहर का अपना अलग मिज़ाज
चारों ओर घोर बाढ़ आई है
Posted on 13 Sep, 2013 01:35 PM पृथ्वी गल गई है
पेड़ों की पकड़ ढीली हो गई है
आज ककरिहवा आम सो गया
सुगौवा को देखे तो
शाखा का सहारा मिला गिरकर भी बच गया
पानी ही पानी है
खेतों की मेड़ों पर दूब लहराती है
मेढ़क टरटों-टरटों करते हैं
उनका स्वरयंत्र फूल आया है
बगले आ बैठे हैं जहाँ-तहाँ
मछलियाँ चढ़ी हैं खूब

बौछारें खा-खाकर
दीवारें सील गई
संशय
Posted on 13 Sep, 2013 01:33 PM नयन की रसधार
सुरभि के संस्पर्श में
कहती पुकार-पुकार-
मैं नदी, तुम कूल-तरु
निर्मूल दूर-विचार
भेद नव होना असंभव
जब तुम्हीं आधार
कर लो धार का उद्धार।

कुंभनहान, भाग -2
Posted on 13 Sep, 2013 01:23 PM सतुआ और पिसान बाँधकर कुंभ नहाने
नर-नारी घर पुर तजकर प्रयाग आए थे;
संगम की धारा में अपने पाप बहाने
की इच्छा रखने वालों का हल लाए थे।
तितली के भी पेड़ तले अशंक छाए थे।
गीत नारियाँ गंगा मैया के गाती थीं,
और नरों ने योग यज्ञ के फल पाए थे
कथा-कहानी कहते-सुनते थे। आती थीं
पछुआ की लहरें, पूरब को बढ़ जाती थीं,
कोई इन पर पल को ध्यान नहीं देता था;
जाड़े की घन माला, -1
Posted on 13 Sep, 2013 01:07 PM

महाकुंभ (1953)


क्षितिज नील, तदुपरि बैंगनी, और फिर नीला,
महाकाश को घेरे जाड़े की घनमाला,
गंगा बीचोंबीच, पार झूसी का टीला,
सम्मुख कुंभनगर दिन का साँवला उजाला,
आड़ी सीधी, टेढ़ी राजमार्ग की माला
पहने हुए बस्तियाँ क्रम से चली गई हैं,
तंबू, कुरिया, टाट-चटाई-टीनों वाला
आट-ठाट छाजन का, एकाकार कई हैं,
भिन्न कई हैं, अपनी-अपनी चाल गई हैं,
केन किनारे
Posted on 13 Sep, 2013 12:53 PM केन किनारे की चट्टानें, बहती धारा,
दोनों का स्वभाव मुझको समान लगता है-
सरस, कठोर भाव लेकर जीवन जगता है
बाँदा के नागरिक हृदय में, मैंने प्यारा
उसे हर तरह से पाया है। उसे सहारा
अगर चाहिए तो अपनों का, कब डगता है
अपने अशिधाराव्रत से, अंतर पगता है
अपनेपन से जिस पर उसने तन-मन वारा।

अस्ताचलगामी किरणें, केन की लहरियाँ,
पीछे हरियाली है
Posted on 13 Sep, 2013 12:42 PM पीछे हरियाली है, हरियाली में पीले-
पीले फूलों वाली सरसों सजी-सजाई
लहराती है, मधुर गंध से बसी-बसाई
हवा सरसराती है। मेरे आगे नीले
आसमान की छाया गंगा में है। गीले
तट से कुछ हटकर है, आभा जल पर छाई
रामनगर की बिजली की, खँभिया उतराई
धारा पर जैसे सोने की, शोभा ढीले।

आवाजें दूरियां पार कर आसमान की
कानों को अपना वक्तव्य सुना जाती हैं
नाव चल रही है
Posted on 13 Sep, 2013 12:34 PM नाव चल रही है चढ़ान पर, डाँड़ चलाता
चला जा रहा है मल्लाह। नाव भारी है,
बैठे हैं विदेश के यात्री, तैयारी है,
कई कुर्सियाँ पड़ी हुई हैं। एक घुमाता
है अपना कैमरा-किनारे ताने छाता
धूप बचाती हुई एक ही तो नारी है,
स्वस्थ, सलोने, आकर्षक सब हैं, प्यारी है
काशी की छवि। इन्हें ध्यान भी क्या कुछ आता

है तट के निवासियों का; उनके सुख-दुःख का
देख रहा हूं गंगा
Posted on 13 Sep, 2013 12:11 PM देख रहा हूँ गंगा के उस पार धूल की
धारा बहती चली जा रही है, चढ़-चढ़कर
वायु-तरंगो पर, अपने बल से बढ़-चढ़कर
धूसर करती हुई क्षितिज को, वृक्ष-मूल की
शोभा हरित सस्य की निखरी,विषम कूल की
अखिल शून्यता हरती है छवि से मढ़-मढ़कर
मानव-आकृतियाँ निःस्वन गति से पढ़-पढ़कर
जीवन-मंत्र कहानी देतीं शूल-फूल की।

मैं इस पार नहीं हूँ, आँखें उसी पार को
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