बाढ़ 1948

(‘डायरी’ एक ऐसी चीज, जिसे आप एक्स्पैक्ट करते है मुझसे लिखने के लिए, मगर जिसे कोंटेनेंस करने के लिए आप तैयार नहीं- मैं लिख रहा हूँ-लिख रहा हूँ-क्योंकि वह चीज खुद मैं भी, मैं खुद भी लिखना चाहता हूँ : और बिलाशुबह वह तो मेरा कोंटेनेंस है ही-मेरा चेहरा, मेरी रूह, हाँ, मेरी रूह।)

मिसेज ‘अश्क’ जो दरिया के सफे-मक्खनी उफान में
एक औरत का दिल लेकर, आसमान की आँखों में बैठ
जाना चाहतीं...और वहाँ से हिंडोला डालकर, मिस्टर
‘अश्क’ को उसमें झुलाना-आहिस्ता-आहिस्ता-आराम के
हिलकोरे देना, चाहती हैं : मोतियों की आब अपनी हँसी
और लहरों की साफ समझ अपनी पलकों के गिर्द खूबसूरती
के साथ लिए हुए

..और वह गुड्डा, दह बेबी जो हरेक अंकल,
हर अनजान आंटी को यूँ ही लिपट जाता है दौड़कर-
जो वात्स्यायन को
बगल से झाँककर संबोधन कर उठता है- ‘मेरी जाSन!’
वह चार साल का (या साढ़े चार का) शोख गुड्डा,
बेबी, एक गंभीर, देव-से-स्थिर शरीर वाले अपने अंकल
(दोस्त) को, अपने बाप के हँसोड़ बेतकलुफाना ‘दिलफेंक’ लहजे
में मुस्कराकर,पुकार उठता है, वह गुड्डा-‘मेरी जाSन!’
और उसके ओंठ सिकुड़ने लगते हैं, बिसूरते हुए
आहत बच्चे के आत्माभिमान की सजल-सी तस्वीर खींचते हुए-
जब उसकी माँ अपनी अतिशिष्ट बुर्जुआ पर्सनेलिटी के सौम्य
झरोखे में
उसको बिठाकर डपट उठती है ‘...!’ जाने दो...
-मेरी रूह जो उस बच्चे-सी फिर मुस्कराने लगती है,
एक ‘अच्छा लड़का’ बनकर
निरीह,
फतहयाब!

‘मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूँ।
मैं वह आईना हूँ, जिसमें आप हैं।
मैं एक नज्म हूँ,
-एक दोहा हूँ, न जाने किसका...’
क्या नाम है इनका?
देवेंद्र, नहीं...
-विवेक :
विवेक,
जमना में जबरदस्त बाढ़ आई है।
और गंगा में भी...!
(कितनी मुद्दत से, ऐसी बाढ़, लोगों को याद है-कि नहीं आई,
नहीं आई
उनके होश में, नहीं आई।)
बड़ी जबरदस्त बाढ़ आई है,
न जाने कितने मन बोरे गेहूँ के बह गए...
कितनी ही कच्ची दीवारों में लीपा हुआ धन बचाया न जा सका,
बह गया।
पानी-सी जिंदगियाँ, आँख खोलते न खोलते, बुलबुलों की तरह बह गई
और उन जिंदगियों के अफसाने, यानी उन जिंदगियों को
बिताने वाले गंगा और जमना के किनारों पर खाब की तरह
हाथ मलते हुए बैठे रह गए-इस दौर की तरह,
धर्म और परंपरा के : जो अपने खोल और साए की तरह
अपनी रूह का मातम कर रहा है (-वह रूह हिंदू हो या मुसलमान :
यहूदी हो या जर्मन : साउथ-अफ्रीकी-व्हाइट हो या बर्मी-चीनी-माले
और रूसी हो या ‘कम्यूनिस्ट’ निग्रो-अमरीकी-नेशनलिस्ट चीनी...)
वह मेरे पॉलिटिकल कवि की तरह अपनी सांसों का हिसाब लगा रही है
कि वे कितने गेहूँ के दानों के बराबर हैं...

नेमि-
रेखा
‘इप्टा’

नाटक...
जीवन-लेखा
आज का उपहास्य
भूख का आलोच्य
आर्ट
तुम कल्पना के पुतले
नहीं हो
तुम कम्युनिस्ट पार्टी की ‘मशीन’
नहीं हो
(लोग गलत कहते हैं)
तुम कला का मौन
शांत
विवाह
संघर्ष के साथ-हो;
तुम कम्युनिस्ट हो,
यानी कलाकार
का कर्म
यानी भविष्य का
मर्मभाव
आज के नाटक के अंत में!

उस नाटक का अंत मैं हूँ
मैं शमशेर
एक निरीह
फतह...!
कल क्या है,
जिसके घूमते चक्के की धुरी में
‘कल्चर’-‘संस्कृति’ की कीली
तुम्हें नजर आती है,
उपेंद्रनाथ ‘अश्क’?
कल्चर

न तुम हो
न मैं
न वात्स्यायन
न कृशनचंदर
न नेमिचंद्र
न डाक्टर दास
न 14 हेस्टिंग्स रोड का बैरा-खानासामा-माली...
-कल्चर यह जीवन नहीं है:
कल्चर एक भावना है
आगे की
-भविष्य की संस्कृति
जो उन चनों में है, जैनेंद्रकुमार जी
जो कि महादेवी जी बाढ़-पीड़ितों को बाँट रही हैं
बाँट रही हैं, क्योंकि उनके गीत
उन चनों का हजम किया हुआ आटा फौरन नहीं बन सकते
अभी जबकि बाढ़ आई हुई है
...बाढ़

‘संस्कृति’ की भी आई हुई है
जैनेंद्रकुमार जी कलकत्ते और
बिहार और दिल्ली से
समाचार लाए हैं
कि परीशान हैं लोग संस्कृति से
समाजवादी अलग और कलावादी अलग
और जैनेंद्र जी भी अलग, उनके मारे
“खतरे से बचो। दो धाराओं के पाट में
‘साधो, बीच धार गहि जाए!’
‘कहे, कबीरा, क्या गुनिया क्या धुनिया’...”

महादेवी जी (गंभीर ओंठ करुणा से दबाए,
आँखों में चिंता-) साहित्य के पृष्ठों से निकालकर
पार्थिव कार्य-सृजन से, आत्मा के लिए
वह प्रकाश की स्पष्ट पुस्तक लिखेंगी,
जिसमें वेदों के अर्थ स्पष्ट पढ़े जा सकेंगे,
अनूदित हो सकेंगे।
उनसे मिलकर श्रीमती
कौशल्या ‘अश्क’ को अपनापा और घरेलूपन-सा
महसूस होता है। ‘रिक्शा वाला चिल्लाता रहता है,
उठने की तबीअत ही नहीं होती उनके पास से।...
वक्त का पता ही नहीं चलता...’

विवेक, हाँ, तुम टाइम पर
रिसर्च करते रहे हो? फिलासफी में
एम.ए. करने के बाद।
?
यह सौम्य
सुथरा
सुंदर
बाह्य और अंतर, ऊँचे ढंग से कनफयूज्ड
सार्थक कल्चर
इंटलैक्चुअल जीवन, आधुनिक

डा. दास,
टैगोर के अतुल
ढेउ...
नादीर बॉन्नॅ
पर
बादल-भरे
गीत
कालीदास को अपने गले में गुँजाकर
लिखे-गाए-गवाए और
देश के हृदय और रोमावलियों में भरे
कैसे?
अपना भारी शरीर लेकर, डॉ. दास,
अपना हाइब्लड प्रैशर और दिल की कमजोरी में
‘रेस्ट’ करते हुए
डा. दास, बताओ तो फिर भी जरा,
डा. दास,
इलाहाबाद, संगम-
क्या सागर-संगम
शांति-निकेतन का भावुक पावन संगम नहीं?
सन् 48 में। क्या कुछ भी उसका एक पार्ट नहीं?
ऐसी बाढ़ में भी?

मैरूंड है मेरा भाई
एक गाँव में, मुरादाबाद जिले में....
उसको चना नहीं चाहिए,
उसको मेरा सफर चाहिए ट्रेन में वहां तक...
उसकी कच्ची छत के नीचे मैं भी क्यों न हुआ?
जहाँ उसके बच्चे सोते थे, या जागते रहे होंगे, जब बाढ़ आई...
सरोज और इंदो और कमला और वह उसकी पत्नी
उसकी गाड़ी के एक पहिए के साथ का दूसरा पहिया : और
इसके आगे ही मैं कहना चाहता हूँ कि घूमते ही रहे हैं उनके
मन और शरीर इस बाढ़ में
मुरादाबाद से लेकर इलाहाबाद के जिले तक,
इधर से उधर, उधर से इधर
लगातार...
डाकखाना बंद है
सब रास्ते बंद हैं...
मुझको चना नहीं चाहिए, महादेवी जी,
हालांकि उसी पर मेरा गुजारा भी है,
बल्कि वह एक पल, जिसमें कि मैं भाई से मिल सकूँ
और हवाई जहाज में उड़ने वालों से मैं पूछता हूँ
कि मुझे साइकिल का किराया ही वहां तक का मिल जाए
क्योंकि इस तरह तो मुझे जेलखाना है यह जिंदगी
(यानी अब तो महसूस ही होने लगी है..)
मैं सरकार की दुहाई नहीं देता,
जनता का अपने हृदय में ध्यान धरता हूँ
जनार्दन की तरह,
कि वही इंकलाब का वरदान देने वाली है।
-वही चने की बोरियों पर बैठेगी...
संस्कृति और कल्चर के गेहूँ के एक-एक दाने पे...
-पकाकर... आटा करके-
और जो हमारी जिंदगी में हज्म भी होगा
ईमानदारी की कमाई की तरह-‘शाश्वत कला’
गहरे भाव की तरह, देवताओं के सुषुप्त मन में।

(भाष्य:-) ‘वह शाश्वत कला जो
गाँव की बहू-बेटी की हथेली की मेहँदी है,
वह गहरा भाव-
जो पुरखों के बनाए कुएँ का कभी न चुकने वाला
मीठा पानी है, जिसे : उस बहू-बेटी के हाथ
सुबह-शाम घर के लिए रोज ताजा खींचकर निकालते हैं
वे देवता
जो उस बहू और बेटी के भाई-बंद और घरवाले हैं
वह सुषुप्ति
जो उनका भविष्य, उनके हाथों-पाँवों की शक्ति से
निरंतर बनता, मिले जुले प्रयत्नों के सहारे,
अधिकाधिक जीवन के सुख में
प्राप्त होता जाता है
वह मन
जो उनके देश का जनतंत्र-जीवन है।
वह जीवन मैं हूँ, शमशेर, मैं
आज निरीह
कल फतहयाब,
निश्चित्!

Path Alias

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