पानी से बिजली बनाने पर सवाल

किताब-समीक्षा


आर्थिक विकास के लिए बिजली की जरूरत को न्यून साबित करने पर बुद्धिजीवियो द्वारा आपत्ति की जा सकती है। जल विद्युत परिदृश्य में होने वाली समस्त हानियों में से आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास पर लेखक का अत्यधिक झुकाव असंतुलन पैदा करता है। साल 2000 में ‘विश्व बाँध आयोग’ के लिए तैयार की गई रिर्पोट ‘बड़े बाँध: भारत का अनुभव’ ने बड़े बाँधों को लेकर प्रचलित अनेक धारणाओं को ध्वस्त किया था। लेकिन इस रिर्पोट को अनदेखा कर आज उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश और देश के उत्तर-पूर्वी भाग में जल विद्युत के लिए वृहद पैमाने पर पूँजी निवेश किया जा रहा है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. भरत झुनझुनवाला की शोध-पुस्तिका ‘जल विद्युत का सच’ उत्तराखंड के श्रीनगर’ और ‘कोटलीभेल’ परियोजना पर कुछ तथ्य और सवाल रखती है। साथ ही यह ऐसी नीतियों के पीछे छिपे कारणों पर और अधिक विश्लेषण की मांग भी करती है। दरअसल सरकार अलकनन्दा नदी के कुल 270 किलोमीटर प्रवाह में से 179 किलोमीटर पर बांधों की श्रृंखला बना रही है। इसके तहत ‘कोटलीभेल 1बी’ परियोजना में ही कुल 495 हेक्टेयर जंगल डूब जाएगा। सरकार के मुताबिक आर्थिक विकास के लिए बिजली चाहिए। इसलिए ऐसी परियोजनाओं का विरोध देशहित में नहीं।

दूसरी तरफ लेखक की राय में देश को ऊर्जा चाहिए लेकिन अमीरों के फायदों के लिए गरीबों का शोषण और व्यापक पर्यावरण विनाश करना हानि का सौदा है। उनका मानना है कि पहले हमें उपलब्ध ऊर्जा के सही उपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। पुस्तिका में ऊर्जा के विभिन्न उपयोगों को प्राथमिकता दी गई है। इसी आधार पर ऊर्जा के विभिन्न उपयोगों के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है। सरकार परियोजना को समुदाय के हित में प्रचारित कर रही है। इसकी पड़ताल के लिए लेखक ने श्री नरेशचन्द्र पुरी द्वारा चीला, मनेरी भाली तथा टिहरी और घारीदेवी व देवप्रयाग संगम पर बने बांध के परिणामों पर आधारित सर्वेक्षण का सहारा लिया है। उन्होंने पुराने अनुभवों से मुआवजा नीति को असमान और अन्यायपूर्ण साबित किया है।

ऐसी विसंगतियों के कारण स्थानीय जनता में आपसी विवाद और संघर्ष की स्थिति खड़ी हो जाती है। लेखक की एक अहम चिंता जलाशयों में तलछट (सिल्ट) के जमाव का बांध में रूक जाने को लेकर है। इससे जलाशयों की उम्र कम हो जाती है और उसी अनुपात में परियोजना के लाभ भी। जापान के भू-सर्वेक्षण विभाग ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि पूर्व में समुद्र तक पहुंच रहे तलछट का 30 प्रतिशत हिस्सा अब बांधों में रुक गया है। इसी प्रकार पुस्तिका में बाँधों से हिमालय के भूकंप, भूस्लखन, जैव विविधता में कमी, मौसम में बदलाव और नदी के मुक्त बहाव में बाधा जैसे मुद्दों को लिया गया है। लेखक ने इन मुद्दों पर हुए अन्य शोध-कार्यों को शामिल करते हुए उसका अध्ययन किया है।

आर्थिक विकास के लिए बिजली की जरूरत को न्यून साबित करने पर बुद्धिजीवियो द्वारा आपत्ति की जा सकती है। जल विद्युत परिदृश्य में होने वाली समस्त हानियों में से आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास पर लेखक का अत्यधिक झुकाव असंतुलन पैदा करता है। साल 2000 में ‘विश्व बाँध आयोग’ के लिए तैयार की गई रिर्पोट ‘बड़े बाँध: भारत का अनुभव’ ने बड़े बाँधों को लेकर प्रचलित अनेक धारणाओं को ध्वस्त किया था। लेकिन इस रिर्पोट को अनदेखा कर आज उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश और देश के उत्तर-पूर्वी भाग में जल विद्युत के लिए वृहद पैमाने पर पूँजी निवेश किया जा रहा है। 2008 में ‘मंथन अध्ययन केन्द्र, बड़वानी’ के आँकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में ही कुल 3036 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए प्रस्तावित 9 बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं में से 5 पर निजी कंपनियां काबिज हैं। इसीलिए प्रभावित जन-समूहों को संगठित करने के लिए जन भाषाओं में ऐसी परियोजनाओं का लेखा-जोखा उपलब्घ कराने की आवश्यकता तो हमेशा ही बनी रहेगी. इस लिहाज से हिन्दी में प्रकाशित यह शोध-पुस्तिका सहज भी है और सरल भी।

किताब : जल विद्युत का सच

लेखक व प्रकाशक : डॉ. भरत झुनझुनवाला लक्षमोली, पोस्ट मलेथा, वाया कीर्तिनगर, उत्तराखण्ड

मूल्य : 10 रूपए

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