श्रीराम वर्मा

श्रीराम वर्मा
समुद्र और चंद्रभागा
Posted on 01 Oct, 2013 04:07 PM
जैसे सारे संसार के टेलीफोन
घनघना उठे एक साथ
इस समुद्र के रोम-रोम से
लेकिन तुम कैसी हो चंद्रभागा
कि इतनी मौन हो
समुद्र इतना आविष्ट है
कि तुमसे संवाद नहीं कर पाता
क्या संवाद अब असंभव है?
लहरें अथाह से अनंत से सघन उल्लास में
हहराती ईरानी घोड़ों की रेस-सी
दौड़ती हैं झाग फेंकती लगातार
कगार पर टापों की आवाजें टकराकर
गर्मियों में छत पर या नदी किनारे
Posted on 01 Oct, 2013 04:06 PM
नदी
हिरनी की तरह मेरे पास आई।

हवा
कस्तूरी-सी चारों तरफ फैल गई।

मैं जैसे कि हर वस्तु से अमरता की तरह गुजरा
और सात्विक कटाक्ष की तरह सँवर गया।

‘बूँद की यात्रा’ संग्रह से

नदी पर चाँद
Posted on 01 Oct, 2013 04:05 PM
तना हुआ एकांत है
गहरे रात दूर तक
चेतना चमकती है
निराकार

कटार और फीते में फर्क है
लहर-भर
हवा ने चुपके से चमकती नदी से कहा।

और धारियाँ संगमरमर की
तैरने लगीं बेखबर
बनकर बिजली
मछलियाँ-
चमकता हुआ जाल धुलने लगा
चारों ओर-

अकेला बतख तैरता है
डुबकियाँ लेता
किनारे तक
चमक जाते
लहरों के भीतर तक
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