जल प्रलय

क्रोध में अम्बर तना था
अवनि पर भी बेबसी थी
जिंदगी की डोर मानो
बादलों ने थाम ली थी
पर्वतों से छूट आफत
घाटियों में बह रही थी
महल डूबे झोंपड़ी ने
सांस मानो रोक ली थी
बिछुड़े परिजन कोख उजड़ी
मनुजता असहाय थी

प्रकृति माँ ने धैर्य की
सीमाएं सारी लाँघ ली थीं
स्वर्ग जैसी वादियों में
रक हा हा कर रहा था
दिवस का होना मलिन था
रात्रि अश्रु पोंछती थी
स्वर्ण से सुस्वप्न बिसरे
क्यारी केसर की लुटी थी
चिनारों से झरते पत्ते
ढूंढते थे आसरे को

बर्फ के नागों ने जैसे
डस लिया हो स्वर्ग को
चांदनी भी खो गई
जब मेघ का अंतस फटा
जल प्रलय ने ढांप ली
सृष्टि की अद्भुत छटा
तड़पती थी जिंदगी
मृत्यु के आगोश में
राह मिलती ही नहीं
विभ्रम रहा मस्तिष्क में

आस टुकड़ों में बिखरी
जा रही थी
एक अंधे दौर में
ले जा रही थी
बदहवासी में थी
ममता
क्या करे हैरान
ममता
देवदूतों ने उम्मीदें
बाँध दी हैं
आस की जो डोर थी
वो थाम ली है
मनुज का जीवट
विजय श्री पाएगा
काल से फिर स्वर्ग
लौटा लाएगा!

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Post By: Shivendra
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