बादल

एक
रात को फिर बादल ने आकर
गीले-गीले पंजों से जब दरवाजे पर दस्तक दी
झट से उठ के बैठ गया मैं बिस्तर में

अक्सर नीचे आकर ये कच्ची बस्ती में
लोगों पर गुर्राता है
लोग बेचारे डाम्बर लीप के दीवारों पर-
बंद कर लेते हैं झिरयां
ताकि झांक ना पाए घर के अंदर-

लेकिन, फिर भी-
गुर्राता, चिघाड़ता बादल-
अक्सर ऐसे लूट के ले जाता है बस्ती
जैसे ठाकुर का कोई गुंडा
बदमस्ती करता निकले इस बस्ती से

दो
कल सुबह जब बारिश ने आकर खिड़की पर
दस्तक दी थी
नींद में था मैं-बाहर अभी अंधेरा था

ये तो कोई वक्त नहीं था, उठ कर उससे मिलने का
मैंने पर्दा खींच दिया-
गीला-गीला इक हवा का झोंका उसने
फूंका मेरे मुंह पर, लेकिन-
मेरी ‘सेंस ऑफ हियुमर’ भी कुछ नींद में थी-
मैंने उठ कर जोर से खिड़की के पट
उस पर भेड़ दिए-
और करवट लेकर फिर बिस्तर में डूब गया

शायद बुरा लगा था उसको-
गुस्से में खिड़की के कांच पे
हत्थड़ मार के लौट गई वह, दोबारा फिर आई नहीं-
खिड़की पर वह चटखा कांच अभी बाकी है

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