समुद्र पीछे खिसक रहा है

समुद्र पीछे खिसक रहा है
पीछे खिसक रहा है कच्छप
अपनी पीठ पर धरती को धारण किये

जैसे दिनों-दिन कम होता जाता है
पूर्णिमा के बाद चाँद
कम होती जा रही हैं उम्मीदें
आदमी पर आदमी का भरोसा
कम होता जा रहा है

यह घूमती हुई पृथ्वी
डायनासॉर-से खुले हुए
जबड़े ने आ गई है

पेड़ स्तब्ध हैं, हवा शांत
देह पसीने से तर
कौन-सा पहर है यह रात्रि का
क्या सबने हथियार डाल दिये हैं

यह दुनिया
एक बुझी हुई आग है
जिसे हम बार-बार कुरेदते हैं
कि कहीं कोई चिनगारी बाकी हो

मगर रास्ते शांत हैं
कहीं कोई आता दिखता नहीं
बस, एक उजड़ा हुआ नगर कराहता है
ओ मेरी धरती
मेरी आस्था
कौन रहेगा दुर्दिनों में आगे
कौन देगा अमंगल में साथ
समुद्र पीछे खिसक रहा है
पीछे खिसक रहा है कच्छप

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