भारतीय संस्कृति में नदी माँ है। नदियों के साथ हम अपनी माँ जैसा ही व्यवहार तो करते थे। बचपन में माँ दूध पिलाकर पोषण करती है। वैसे ही नदी भी जल पिलाकर जीवनभर पोषण करती थी। आज सब भूल गए हैं कि पीने का पानी नदी से आता है। इस अज्ञान ने नदी से दूर कर दिया है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में नदियों को पूर्णत: प्रदूषित कर दिया है। उद्योगों ने नदियों को मैला ढोनेवाली मालगाड़ी बना दिया है। अब पानी पीकर या स्नान करके हम गंगा का आनन्द नहीं ले सकते हैं। कारण यह है कि हम नदी से दूर हो गए हैं।
यह जल- बाजार का षड्यन्त्र है। मैली राजनीति ने ही नालों को नदियों से जोड़ा है। अब यह हिमालय तक पहुँच गई है। सुप्रसिद्ध गाँधीवादी राधा भट्ट के अनुसार — 'विकास तो अब ग्लेशियर तक पहुँच गया है'। गंगा आज सूखने के कगार पर है। डर है कि यह सरस्वती की तरह सदा के लिए लुप्त न हो जाए। गंगा हमारी माँ है, यह कहने और सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है, लेकिन यहीकहने और सुनने वालों ने इसके साथ अत्याचार किया है।
इन्ही त्रासदियों का वर्णन करते हुए अभय मिश्र और पंकज रामेन्दू के संयुक्त लेखन में एक महत्वपूर्ण पुस्तक ' दर दर गंगे' पेंगुइन बुक्स से प्रकाशित होकर पाठकों के समक्ष आई है। समीक्षित पुस्तक में लेखक द्वय ने गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक की यात्रा की है और गंगा की विपदाओं तथा दशा- दिशा को पूरी शिद्दत के साथ महसूस करने का काम किया है। अभय मिश्र का नाम गंगा आन्दोलन का सुपरिचित नाम है।
पिछले डेढ़ दशक से सामाजिक और राजनीतिक लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं, वहीं पंकज रामेन्दु बिभिन्न अखबारों में स्वतन्त्र लेखन,डॉक्यूमेंट्री निर्माण और लेखन में सक्रिय हैं तथा गंगा आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी रही है।
पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद और गाँधीवादी कार्यकर्ता अनुपम मिश्र ने सिर्फ एक पंक्ति में ही पुस्तक के बारे में लिखा है- ''इसमें गंगा की गहराई है और आधुनिक विकास का उथलापन भी। लेखक द्वय ने अपनी भूमिका में यह स्पष्ट किया है कि—'गंगा के किनारे बसने वाली संस्कृतियों पर गंगा का प्रभाव साफ नजर आता है, वे गंगा से इस तरह हिली—मिली हैं कि उन्हें अलग करके देखना सम्भव नहीं है, लेकिन इन परम्पराओं और संस्कृतियों ने गंगा पर क्या प्रभाव डाला है, यह जानना बेहदजरूरी है। आस्था के नाम पर व्यापार, छठ पूजा, मूर्ति विसर्जन से लेकर मछली व्यवसाय और रेत चु्गन जैसे कई विषय हैं, जिसके विकृत रूप का खामियाजा लगातार गंगा को भुगतना पड़ रहा है।'
लेखक द्वय की इन चिन्ताओं से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है, क्योंकि हमारी हिन्दू सामाजिक संरचना ही कुछ इस तरह बनी हुई है, जिसमें गंगा में शवदाह, मूर्ति विसर्जन से लेकर पूजनीय परम्परा शामिल है। इन परम्पराओं का विरोध तो किया जा सकता है लेकिन सामाजिक उन्मूलन की दिशा में सामाजिक विरोध के डर से हाथ काँप जाते हैं। सामाजिक मान्यताओं पर राजनीतिक हस्तक्षेप न हुआ है न होगा।
लेखक द्वय ने गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक गंगा पर होने वाले अत्याचारों का काफी गम्भीरता और विस्तार के साथ वर्णन किया है तथा विभिन्न क्षेत्रों को सूचीबद्ध करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में गंगा के उपर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाया है। जैसे— ' गंगोत्री: सर्द लहरों के बीच', ' उत्तरकाशी: अस्सी की काशी', 'टिहरी : बहने का आदेश नहीं', देवप्रयाग: गंगा के घर का दूसरा दरवाजा', 'ऋषिकेश: ना रमता जोगी ना बहता पानी', गढ़मुक्तेश्वर: पहचान का संकट', ' कानपुर: नाले की गर्जना से दहली गंगा','बनारस: अबूझ शहर की अपरिभाषित गंगा', ' पटना: विकास की शिकार', 'बख्तियारपुर: माफियाराज'। इसी तरह इस पुस्तक में लेखक द्वय ने 29 पड़ाव पर गंगा को लाकर इसकी अस्मिता एंव इस पर होने वाले अत्याचारों का गम्भीरतापूर्वक विश्लेषण किया है।
इनमें सामाजिक शाप से लेकर बाजारवाद और विकास की नीति को प्रमुखता दी है। सामाजिक शाप से आशय धार्मिक वर्जनाओंसे लेकर गंगा में नाले एवं मल विसर्जन है। ऋषिकेश के सन्दर्भ में लेखक द्वय ने कहा है कि —' ऋषिकेश के आश्रमों के आसपास बोला जानेवाला सबसे बड़ा झूठ यह है कि सरकार ने आश्रमों के लिए ट्रीटमेंट प्लांट लगाए हैं।' इसी अंश में मशहूर पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र जो अपनी सपाट बयानी के लिए प्रसिद्ध है — कहते हैं— '' हमलोग रात को यहीं विश्राम करेंगे और सूबह अपने— अपने संडासों का फ्लश गंगा की तरफ बहाकर तुरन्त घाट की ओर स्नान करने जाएँगे और उसके बाद गंगा की सफाई को लेकर यही घाट पर नेताजी गंगा आंदोलन के अगले दौर की चर्चा करेंगे।'' यह एक तल्ख सच्चाई है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सरकारी एवं राजनीतिक उदासीनता के कारण गंगा तो प्रदूषित हो चुकी है। इसके जल पीने योग्य नहीं रह गए हैं। इसकी अविरलता और ज्यादा खतरा बढ़ा है। साथ ही इसके लुप्त होने का भी खतरा बढ़ा है। गंगा की वर्तमान अवस्था को जानने समझने के लिए यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी। लेखक की चिन्ता को गंगा की चिन्ता के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। यदि गंगा लुप्त होती है तो इसका सीधा— सीधा प्रभाव आम जीवन पर पड़ेगा। समय रहते इस चिन्ता को दूर किए जाने की आवश्यकता है, क्योकि गंगा का सरोकार आस्था, आजीविका, पर्यावरण एवं नदी घाटी की सम्यता से है।
समीक्षित पुस्तक:- दर दर गंगे
प्रकाशन- पेंगुईन बुक्स इंडिया
मूल्य:- 199 रुपये
/articles/asathaa-aura-vaikaasa-kai-eka-taraasada-kahaanai-dara-dara-gangae