Posted on 23 Dec, 2013 11:45 AMदक्षिणी-पश्चिमी मानसून राज्य के पूर्वी क्षेत्र में जून के अंतिम सप्ताह में प्रवेश कर सितंबर के मध्य तक विदा हो जाता है। पूर्व मानस
Posted on 23 Sep, 2013 04:41 PMजल संचय की आधुनिक तकनीक अपनाने के बावजूद राजस्थान के थार मरुस्थल में पानी का संकट बरकरार है। जल संरक्षण की परंपरागत प्रणालियों की उपेक्षा की वजह से स्थिति और नाज़ुक होती जा रही है। इस कठिनाई से निजात पाने का सही तरीका क्या हो सकता है? बता रहे हैं शूभू पटवा।
थार मरुस्थल में पानी के प्रति समाज का रिश्ता बड़ा ही आस्था भरा रहा है। पानी को श्रद्धा और पवित्रता के भाव से देखा जाता रहा है। इसीलिए पानी का उपयोग विलासिता के रूप में न होकर, जरूरत को पूरा करने के लिए ही होता रहा है। पानी को अमूल्य माना जाता रहा है। इसका कोई ‘मोल’ यहां कभी नहीं रहा। थार में यह परंपरा रही है कि यहां ‘दूध’ बेचना और ‘पूत’ बेचना एक ही बात मानी जाती है। इसी प्रकार पानी को ‘आबरू’ भी माना जाता है। बरसात के पानी को संचित करने के सैकड़ों वर्षों के परंपरागत तरीकों पर फिर से सोचा जाने लगा है। राजस्थान का थार मरुस्थलीय क्षेत्र में सदियों से जीवन रहा है। यहां औसतन 380 मिलीमीटर बारिश होती है। इस क्षेत्र में जैव विविधता भी अपार रही है। जहां राष्ट्रीय औसत बारह सौ मिलीमीटर माना गया है, वहीं राजस्थान में बारिश का यह औसत करीब 531 मिलीमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान समूचे देश में सबसे बड़ा राज्य है और इसका दो-तिहाई हिस्सा थार मरुस्थल का है। इसी थार मरुस्थल में जल संरक्षण की परंपरागत संरचनाएं काफी समृद्धशाली रही हैं। जब तक इनको समाज का संरक्षण मिलता रहा, तब तक इन संरचनाओं का बिगाड़ा न के बराबर हुआ और ज्यों-ज्यों शासन की दखलदारी बढ़ी, त्यों-त्यों समाज ने हाथ खींचना शुरू कर दिया और इस तरह वे संरचनाएं जो एक समय जीवन का आधार थीं, समाज की विमुखता के साथ ये ढांचें भी ध्वस्त होते गए या बेकार मान लिए गए।
Posted on 30 Aug, 2013 10:41 AMगुजरात की रिफ़ाइनरी में रोज़ाना पांच से छह मिलियन गैलन पानी का इस्तेमाल होता है। यानी अगर बाड़मेर की प्रस्तावित रिफ़ाइनरी बनती है तो सूखा प्रभावित इलाके में रोज़ाना लाखों लीटर पानी की जरूरत होगी। जल संसाधन मंत्रालय पहले ही राजस्थान को ज़मीन के अंदर के पानी के मामले में काला क्षेत्र घोषित कर चुका है। ऐसे में, सवाल उठता है कि इतना सारा पानी कहां से आएगा। इसके लिए अभी तक कोई कार्ययोजना भी पेश नहीं की गई है। फिर राजस्थान समुद्र के किनारे भी नहीं है कि वहां से खारा पानी लाकर उसे पहले मीठे पानी में तब्दील करके फिर रिफ़ाइनरी में इस्तेमाल किया जाए। विकास के लिए जारी आपाधापी और मशक्कत के दौर में यह सवाल निश्चित तौर पर कड़वा लग सकता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु काफी पहले ही कह गए हैं कि बड़े उद्योग देश के नए तीर्थस्थल हैं। जिस देश में ऐसी परंपरा रही हो और जहां उदारीकरण की तेज बयार बह रही हो, ऐसे में यह सवाल न सिर्फ बेमानी, बल्कि विकास विरोधी भी लग सकता है। इस सवाल पर विस्तार से चर्चा से पहले उत्तराखंड में 16 जून को आई त्रासदी और उसके बाद उठ रहे सवालों पर गौर फरमाया जाए तो निश्चित मानिए कि यह सवाल कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण लगने लगेगा। यह सच है कि तमाम कोशिशों के बावजूद राजस्थान अब भी विकसित राज्यों की उस पांत में शामिल नहीं हो पाया है, जिसमें तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्य स्थापित हो चुके हैं। ऐसे मे अगर बाड़मेर में तेल रिफायनरी बनती हैं तो उसका स्वागत ही होना चाहिए। क्योंकि इससे राजस्थान के राजस्व ना सिर्फ बढ़ोतरी होगी, बल्कि रोज़गार के नए मौके बढ़ेगे। बीमारू राज्यों में शुमार रहे राजस्थान के लिए यह प्रस्ताव बेहतरी की गुंजाइश ही लेकर आया है।
Posted on 24 Aug, 2013 12:27 PMलापोड़िया और रामगढ़ की कहानी देश में चौतरफा फैले जल संकट का समाधान तो सुझाती ही है, लेकिन उससे भी बढ़कर सामाजिक समानता की नींव पर बने एक प्रगतिशील समाज का सपना भी साकार करती है...
जयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर, राजधानी के ही दुधू ब्लॉक में बसे लापोड़िया गांव तक जाने वाली सड़क के किनारे बने हरे-भरे चरागाह और हरियाली देखकर आप एक पल को जैसे भूल ही जाते हैं कि यह गांव भारत के सूखे राज्य राजस्थान में है। गांव में प्रवेश करते ही साफ पानी से लबालब भरे तालाब, दूर तक फैले हरे खेत, हरे मैदानों में चरते पशु और घने पेड़ों चहचहाते पक्षियों का सुरीला कलरव आपका स्वागत करता है। लापोड़िया को अकाल-प्रभावित, सूखे और बंजर गांव से खुशहाली के इस स्वागत गीत में बदलने का एक बड़ा श्रेय लक्ष्मण सिंह को जाता है। ऐसे समय में जब पानी की किल्लत दिल्ली-मुंबई से लेकर जयपुर तक सैकड़ों भारतीय शहरों को सूखे नलों के मकड़जाल और अनंत प्रतीक्षा के रेगिस्तान में तब्दील कर रही है, राजस्थान की मरुभूमि में लहलहाते खेतों और हरे-भरे चरागाहों की दो अनोखी कहानियां ठंडी हवा के झोंके की तरह आती हैं। हर साल गर्मियों की पहली दस्तक से ही शहरों में ‘जल-युद्ध’ शुरू हो जाता है। कहीं लोग ‘एक हफ्ते बाद’ आने वाले सरकारी पानी की राह देखते-देखते बेहाल हो जाते हैं तो कहीं से पानी के टैंकरों के सामने मारपीट की खबरें आती हैं। तेजी से बढ़ती शहरी जनसंख्या और साल दर साल उसी अनुपात में बढ़ रहा जल संकट हर गुजरते दिन के साथ और विकराल होता जा रहा है। लेकिन इस रिपोर्ट में आगे दर्ज राजस्थान के लापोड़िया गांव और रामगढ़ क्षेत्र की ये दो कहानियां जल-संरक्षण का सरल और देसी समाधान सुझाती है। साथ ही ये न्यूनतम जल स्तर और प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियों में भी रेतीली ज़मीन पर लहलहाते खेतों का असंभव सा लगने वाला दृश्य भी रचती हैं।
Posted on 28 Jun, 2013 01:24 PMराजस्थान में रावतभाटा के परमाणु बिजलीघर के आसपास विकिरण के आंकड़ों में विसंगति थी। जब दो जागरुक वैज्ञानिक उसके पीछे लगे, तो पता चला कि फर्जी तरीके से आंकड़ों को तैयार किया जा रहा है। भारत के परमाणु प्रतिष्ठान की पोल खोलता एक दिलचस्प किस्सा।