राजस्थान में रावतभाटा के परमाणु बिजलीघर के आसपास विकिरण के आंकड़ों में विसंगति थी। जब दो जागरुक वैज्ञानिक उसके पीछे लगे, तो पता चला कि फर्जी तरीके से आंकड़ों को तैयार किया जा रहा है। भारत के परमाणु प्रतिष्ठान की पोल खोलता एक दिलचस्प किस्सा।
राजस्थान में कोटा के पास रावतभाटा में भारत का दूसरे नंबर का (तारापुर के बाद) परमाणु बिजली कांप्लेक्स है जहां कई संयंत्र लगे हैं। यहां के वातावरण और मानव जीवन पर परमाणु प्रदूषण के प्रभावों के बारे में एक सर्वेक्षण हमने 1991 में किया था। इस सर्वेक्षण में स्थानीय गांववासियों के स्वास्थ्य पर परमाणु प्रदूषण के दुष्प्रभाव स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए थे और इससे काफी खलबली मची थी। भारत के परमाणु बिजली प्रतिष्ठानों से संबंधित जानकारियों को गोपनीयता की आड़ में छुपाकर रखा जाता है। इससे इन जानकारियों और आंकड़ों की सार्वजनिक तौर पर जांच, परीक्षा और उन पर बह स नहीं हो पाती है। खासतौर पर परमाणु बिजली कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे और प्रदूषण के आंकड़ों को काफी गोपनीयता के पहरे में रखा जाता है। लेकिन कभी-कभी वे बाहर आते हैं, तब पता चलता है कि वे कितने फर्जी और अविश्वसनीय हैं। इस संबंध में एक किस्सा बड़ा मौजूं है।
राजस्थान में कोटा के पास रावतभाटा में भारत का दूसरे नंबर का (तारापुर के बाद) परमाणु बिजली कांप्लेक्स है जहां कई संयंत्र लगे हैं। यहां के वातावरण और मानव जीवन पर परमाणु प्रदूषण के प्रभावों के बारे में एक सर्वेक्षण हमने 1991 में किया था। इस सर्वेक्षण में स्थानीय गांववासियों के स्वास्थ्य पर परमाणु प्रदूषण के दुष्प्रभाव स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए थे और इससे काफी खलबली मची थी।
इसी सिलसिले में हम रावतभाटा के वातावरण में रेडियोधर्मिता की उपस्थिति के सरकारी आंकड़ों की तलाश में थे। इकॉनॉमिक टाईम्स, नई दिल्ली के आर. रामचंद्रन (जो अब ‘फ्रंटलाइन’ के विज्ञान संपादक हैं) ने हमारा ध्यान एक शोधपत्र की ओर आकर्षित किया। दिल्ली में 1991 में छोटे और मध्यम परमाणु संयंत्रों पर एक संगोष्ठी में यह शोधपत्र पेश किया गया था। इसका शीर्षक था ‘एनवायरनमेंटल इंपेक्ट ऑफ पीएचडब्ल्यूआर टाईप पॉवर स्टेशन्स : द इंडियन एक्सपीरिएंस’। इसे आई एस भट्ट, एम ए आयंगर, आरपी गर्ग, एस कृष्णमणि तथा के सी पिल्लई नाम पांच वैज्ञानिकों ने मिलकर लिखा था। पांचों मुंबई स्थित भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक थे।
परमाणु संयंत्रों के आसपास रेडियोधर्मी तत्वों की उपस्थिति को नियमित रूप से मापा जाना चाहिए। इस शोधपत्र में 1986 से 1990 तक रेडियोधर्मी तत्वों के माप के आंकड़े दिए गए थे। परमाणु संयंत्रों से कुछ मात्रा में रेडियोधर्मी तत्वों को नियमित रूप से हवा और पानी में छोड़ा भी जाता है। यदि नहीं छोडेंगे तो अंदर उनकी मात्रा काफी हो जाएगी और कर्मचारियों-मजदूरों को काम करना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन अधिकारी कहते हैं कि ये इतनी कम मात्रा में वातावरण में छोड़े जाते हैं कि उनका किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं होता है। इस शोधपत्र में उसके आंकड़े भी दिए गए थे।
हमने ध्यान से देखा तो दोनों आंकड़ों में एक विसंगति पाई (देखें तालिका)। ट्रिशियम एक खतरनाक रेडियोधर्मी तत्व है जो इन परमाणु संयंत्रों से निकलता है। हमने देखा कि 1986 से 1990 से पांच सालों में संयंत्रों से छोड़े गए ट्रिशियम की मात्रा तो बढ़ते हुए 661 TBq से 2566 TBq हो गई यानी करीब 4 गुनी हो गई। लेकिन संयंत्रों के आसपास 2 से 10 किमी की दूरी में 30 स्थानों पर वातावरण में मापे गए ट्रिशियम की मात्रा बढ़ने के बजाए आधी से भी कम (2.6 से 1.0 Bq/cum3) रह गई। जबकि होना उल्टा चाहिए था। हमें लगा कि या तो मापने में या आंकड़ों को पेश करने में कोई गलती हुई है या फिर कोई ऐसा कारण है, जो हमारी जानकारी में नहीं है। हमने अपनी पत्रिका ‘अणुमुक्ति’ के अप्रैल-मई 1993 के अंक (खंड 6, संख्या 5) में ‘रुटिन एमिशन्स’ नामक लेख लिखा तो इस विसंगति की भी चर्चा उसमें की। लेकिन इस पहेली का हल खोजने की बात दिमाग में बनी रही।
1991 में हमें एक मौका मिला। काकरापार परमाणु बिजलीघर को शुरू करने के विरोध में नारायण देसाई ने संपूर्ण क्रांति विद्यालय, वेड़छी में अनशन करने की घोषणा की। अनशन के पहले नारायण भाई ने कई लोगों को पत्र लिखा, जिसमें आपातकालीन कोर शीतलीकरण की व्यवस्था दोषपूर्ण होने के बावजूद इसे शुरू करने पर अपना रोष प्रकट किया। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेता बाबूभाई पटेल ने इस के साथ एक पत्र प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को लिखा। तब प्रधानमंत्री के निर्देश पर अणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. सोमन नारायण भाई से मिलने बेड़छी आए। हमने डॉ. सोमन से रावतभाटा के आंकड़ों की इस विसंगती के बारे में पूछा। डॉ. सोमन ने कहा कि ट्रिशियम समुद्र में चला जाता है। सुरेंद्र गाडेकर ‘लेकिन राजस्थान में समुद्र कहां है?’
डॉ. सोमन : “ओहो, मैं कल्पक्कम के बारे में बात कर रहा था। राजस्थान में पहाड़ है, जिनके कारण वातावरण में एक परत बन जाती है और उसके कारण ट्रिशियम राणाप्रताप सागर जलाशय में चला जाता है।”
सुरेन्द्र गाडेकर : “क्या आप यह कह रहे हैं 100 मीटर ऊंची चिमनी से छूटने पर ट्रिशियम सीधे नीचे जमीन और पानी में गोता लगा जाता है? लेकिन पानी में तो ट्रिशियम की मात्रा बढ़ी हुई नहीं दिखाई दे रही है।”
तब डॉ. सोमन ने कोई जवाब नहीं दिया। उनके साथ के लोगों ने भाभा अणु अनुसंधान केंद्र के उन वैज्ञानिकों के नाम जरूर लिख लिए जिनके शोधपत्र में ये आंकड़े आए थे।
एक बार हमने अणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के दूसरे अध्यक्ष डॉ. गोपालकृष्णन से आंकड़ों की इस विसंगति की चर्चा की। उन्होंने कहा, “क्यों परेशान होते हो?” वे यह भूल गए कि स्वयं उनके बोर्ड की जिम्मेदारी है कि वह इन आंकड़ों की जांच करे और इनका स्वतंत्र मूल्यांकन करे।
फिर 1996 या 1997 में दिल्ली में इंटेक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) ने ‘आणविक नीति औऱ जनता’ विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की। इस संगोष्ठी में हमने रावतभाटा सर्वेक्षण के निष्कर्षों को पेश किया औऱ रावतभाटा में रेडियोधर्मिता के आंकड़ों की विसंगति की स्लाइड भी दिखाई। श्रोताओं में भाभा केंद्र के स्वास्थ्य भौतिकी के विभागाध्यक्ष एस कृष्णमणि भी मौजूद थे, जो उस शोधपत्र के एक लेखक थे। हमने इस विसंगति के बारे में उनका स्पष्टीकरण चाहा, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। सत्र की अध्यक्षता कर रहे रूड़की आईआईटी के डा. विनोद गौड़ ने भी उनसे जवाब देने को कहा, लेकिन वे बुत बनकर चुप बैठे रहे।
लेकिन हमने उनको छोड़ा नहीं। चाय के अवकाश में उनके पास पहुंच गए। हमने उनसे कहा कि वास्तव में हम इसके बारे में जानना चाहते हैं और इसकी तह में जाना चाहते हैं। तब श्री कृष्णमणि ने स्वीकार किया कि वातावरण में ट्रिशियम की मौजूदगी को स्वीकार किया कि वातावरण में ट्रिशियम की मौजूदगी को केवल एक जगह मापा गया है, जहां संयंत्र से 5 किमी दूर कर्मचारियों की कालोनी है। उनका कहना था कि हमारी दिलचस्पी लोगों में है, इसलिए जहां लोग रहते हैं, वहीं इसे मापा गया है। बाकी जगह तो जंगल है। जब हमने उनसे कहा कि शोधपत्र में तो बताया था कि संयंत्र के 2 से 10 किमी के दायरे में 30 जगहों पर मापक यंत्र लगाकर विभिन्न मौसमों में ट्रिशियम को मापा गया है, तो वे फिर चुप्पी की मूरत बन गए।
अब हमें पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार के परमाणु प्रतिष्ठान द्वारा परमाणु बिजलीघरों के आसपास रेडियोधर्मी प्रदूषण को नियमित रूप से नापने का काम सही तरीके से नहीं किया जा रहा है और गलत-सलत, काल्पनिक आंकड़े बनाकर पेश किए जा रहे हैं। उनके किसी भी आंकड़े और जानकारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या वे ऐसा करके जनता, पर्यावरण और देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे हैं। क्या इसका मतलब यह माना जाए कि वे वातावरण में अस्वीकार्य और खतरनाक मात्रा में रेडियोधर्मी प्रदूषण फैला रहे हैं इस सच्चाई को ढकने के लिए इस तरह का फर्जीवाड़ा कर रहे हैं? और क्या किसी और देश में माप और आंकड़ों की इस तरह की जालसाजी को बरदाश्त किया जाता?
राजस्थान में कोटा के पास रावतभाटा में भारत का दूसरे नंबर का (तारापुर के बाद) परमाणु बिजली कांप्लेक्स है जहां कई संयंत्र लगे हैं। यहां के वातावरण और मानव जीवन पर परमाणु प्रदूषण के प्रभावों के बारे में एक सर्वेक्षण हमने 1991 में किया था। इस सर्वेक्षण में स्थानीय गांववासियों के स्वास्थ्य पर परमाणु प्रदूषण के दुष्प्रभाव स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए थे और इससे काफी खलबली मची थी। भारत के परमाणु बिजली प्रतिष्ठानों से संबंधित जानकारियों को गोपनीयता की आड़ में छुपाकर रखा जाता है। इससे इन जानकारियों और आंकड़ों की सार्वजनिक तौर पर जांच, परीक्षा और उन पर बह स नहीं हो पाती है। खासतौर पर परमाणु बिजली कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे और प्रदूषण के आंकड़ों को काफी गोपनीयता के पहरे में रखा जाता है। लेकिन कभी-कभी वे बाहर आते हैं, तब पता चलता है कि वे कितने फर्जी और अविश्वसनीय हैं। इस संबंध में एक किस्सा बड़ा मौजूं है।
राजस्थान में कोटा के पास रावतभाटा में भारत का दूसरे नंबर का (तारापुर के बाद) परमाणु बिजली कांप्लेक्स है जहां कई संयंत्र लगे हैं। यहां के वातावरण और मानव जीवन पर परमाणु प्रदूषण के प्रभावों के बारे में एक सर्वेक्षण हमने 1991 में किया था। इस सर्वेक्षण में स्थानीय गांववासियों के स्वास्थ्य पर परमाणु प्रदूषण के दुष्प्रभाव स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए थे और इससे काफी खलबली मची थी।
इसी सिलसिले में हम रावतभाटा के वातावरण में रेडियोधर्मिता की उपस्थिति के सरकारी आंकड़ों की तलाश में थे। इकॉनॉमिक टाईम्स, नई दिल्ली के आर. रामचंद्रन (जो अब ‘फ्रंटलाइन’ के विज्ञान संपादक हैं) ने हमारा ध्यान एक शोधपत्र की ओर आकर्षित किया। दिल्ली में 1991 में छोटे और मध्यम परमाणु संयंत्रों पर एक संगोष्ठी में यह शोधपत्र पेश किया गया था। इसका शीर्षक था ‘एनवायरनमेंटल इंपेक्ट ऑफ पीएचडब्ल्यूआर टाईप पॉवर स्टेशन्स : द इंडियन एक्सपीरिएंस’। इसे आई एस भट्ट, एम ए आयंगर, आरपी गर्ग, एस कृष्णमणि तथा के सी पिल्लई नाम पांच वैज्ञानिकों ने मिलकर लिखा था। पांचों मुंबई स्थित भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक थे।
परमाणु संयंत्रों के आसपास रेडियोधर्मी तत्वों की उपस्थिति को नियमित रूप से मापा जाना चाहिए। इस शोधपत्र में 1986 से 1990 तक रेडियोधर्मी तत्वों के माप के आंकड़े दिए गए थे। परमाणु संयंत्रों से कुछ मात्रा में रेडियोधर्मी तत्वों को नियमित रूप से हवा और पानी में छोड़ा भी जाता है। यदि नहीं छोडेंगे तो अंदर उनकी मात्रा काफी हो जाएगी और कर्मचारियों-मजदूरों को काम करना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन अधिकारी कहते हैं कि ये इतनी कम मात्रा में वातावरण में छोड़े जाते हैं कि उनका किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं होता है। इस शोधपत्र में उसके आंकड़े भी दिए गए थे।
हमने ध्यान से देखा तो दोनों आंकड़ों में एक विसंगति पाई (देखें तालिका)। ट्रिशियम एक खतरनाक रेडियोधर्मी तत्व है जो इन परमाणु संयंत्रों से निकलता है। हमने देखा कि 1986 से 1990 से पांच सालों में संयंत्रों से छोड़े गए ट्रिशियम की मात्रा तो बढ़ते हुए 661 TBq से 2566 TBq हो गई यानी करीब 4 गुनी हो गई। लेकिन संयंत्रों के आसपास 2 से 10 किमी की दूरी में 30 स्थानों पर वातावरण में मापे गए ट्रिशियम की मात्रा बढ़ने के बजाए आधी से भी कम (2.6 से 1.0 Bq/cum3) रह गई। जबकि होना उल्टा चाहिए था। हमें लगा कि या तो मापने में या आंकड़ों को पेश करने में कोई गलती हुई है या फिर कोई ऐसा कारण है, जो हमारी जानकारी में नहीं है। हमने अपनी पत्रिका ‘अणुमुक्ति’ के अप्रैल-मई 1993 के अंक (खंड 6, संख्या 5) में ‘रुटिन एमिशन्स’ नामक लेख लिखा तो इस विसंगति की भी चर्चा उसमें की। लेकिन इस पहेली का हल खोजने की बात दिमाग में बनी रही।
1991 में हमें एक मौका मिला। काकरापार परमाणु बिजलीघर को शुरू करने के विरोध में नारायण देसाई ने संपूर्ण क्रांति विद्यालय, वेड़छी में अनशन करने की घोषणा की। अनशन के पहले नारायण भाई ने कई लोगों को पत्र लिखा, जिसमें आपातकालीन कोर शीतलीकरण की व्यवस्था दोषपूर्ण होने के बावजूद इसे शुरू करने पर अपना रोष प्रकट किया। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेता बाबूभाई पटेल ने इस के साथ एक पत्र प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को लिखा। तब प्रधानमंत्री के निर्देश पर अणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. सोमन नारायण भाई से मिलने बेड़छी आए। हमने डॉ. सोमन से रावतभाटा के आंकड़ों की इस विसंगती के बारे में पूछा। डॉ. सोमन ने कहा कि ट्रिशियम समुद्र में चला जाता है। सुरेंद्र गाडेकर ‘लेकिन राजस्थान में समुद्र कहां है?’
डॉ. सोमन : “ओहो, मैं कल्पक्कम के बारे में बात कर रहा था। राजस्थान में पहाड़ है, जिनके कारण वातावरण में एक परत बन जाती है और उसके कारण ट्रिशियम राणाप्रताप सागर जलाशय में चला जाता है।”
सुरेन्द्र गाडेकर : “क्या आप यह कह रहे हैं 100 मीटर ऊंची चिमनी से छूटने पर ट्रिशियम सीधे नीचे जमीन और पानी में गोता लगा जाता है? लेकिन पानी में तो ट्रिशियम की मात्रा बढ़ी हुई नहीं दिखाई दे रही है।”
तब डॉ. सोमन ने कोई जवाब नहीं दिया। उनके साथ के लोगों ने भाभा अणु अनुसंधान केंद्र के उन वैज्ञानिकों के नाम जरूर लिख लिए जिनके शोधपत्र में ये आंकड़े आए थे।
एक बार हमने अणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के दूसरे अध्यक्ष डॉ. गोपालकृष्णन से आंकड़ों की इस विसंगति की चर्चा की। उन्होंने कहा, “क्यों परेशान होते हो?” वे यह भूल गए कि स्वयं उनके बोर्ड की जिम्मेदारी है कि वह इन आंकड़ों की जांच करे और इनका स्वतंत्र मूल्यांकन करे।
फिर 1996 या 1997 में दिल्ली में इंटेक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज) ने ‘आणविक नीति औऱ जनता’ विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की। इस संगोष्ठी में हमने रावतभाटा सर्वेक्षण के निष्कर्षों को पेश किया औऱ रावतभाटा में रेडियोधर्मिता के आंकड़ों की विसंगति की स्लाइड भी दिखाई। श्रोताओं में भाभा केंद्र के स्वास्थ्य भौतिकी के विभागाध्यक्ष एस कृष्णमणि भी मौजूद थे, जो उस शोधपत्र के एक लेखक थे। हमने इस विसंगति के बारे में उनका स्पष्टीकरण चाहा, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। सत्र की अध्यक्षता कर रहे रूड़की आईआईटी के डा. विनोद गौड़ ने भी उनसे जवाब देने को कहा, लेकिन वे बुत बनकर चुप बैठे रहे।
तालिका : रावतभाटा में रेडियोधर्मी तत्व ट्रिशियम की उपस्थिति एवं उत्सर्जन | ||
वर्ष | संयंत्रों से छोडे गए ट्रिशियम का सालाना औसत (नापने की इकाई TBq) | 2 से 10 कि. मी. के दायरे में वातावरण में ट्रिशियम की उपस्थिति (इकाई Bq/cum3) |
1986 | 661 | 2.6 |
1987 | 1121 | 1.1 |
1988 | 1028 | 1.3 |
1989 | 1471 | 0.9 |
1990 | 2566 | 1.0 |
लेकिन हमने उनको छोड़ा नहीं। चाय के अवकाश में उनके पास पहुंच गए। हमने उनसे कहा कि वास्तव में हम इसके बारे में जानना चाहते हैं और इसकी तह में जाना चाहते हैं। तब श्री कृष्णमणि ने स्वीकार किया कि वातावरण में ट्रिशियम की मौजूदगी को स्वीकार किया कि वातावरण में ट्रिशियम की मौजूदगी को केवल एक जगह मापा गया है, जहां संयंत्र से 5 किमी दूर कर्मचारियों की कालोनी है। उनका कहना था कि हमारी दिलचस्पी लोगों में है, इसलिए जहां लोग रहते हैं, वहीं इसे मापा गया है। बाकी जगह तो जंगल है। जब हमने उनसे कहा कि शोधपत्र में तो बताया था कि संयंत्र के 2 से 10 किमी के दायरे में 30 जगहों पर मापक यंत्र लगाकर विभिन्न मौसमों में ट्रिशियम को मापा गया है, तो वे फिर चुप्पी की मूरत बन गए।
अब हमें पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार के परमाणु प्रतिष्ठान द्वारा परमाणु बिजलीघरों के आसपास रेडियोधर्मी प्रदूषण को नियमित रूप से नापने का काम सही तरीके से नहीं किया जा रहा है और गलत-सलत, काल्पनिक आंकड़े बनाकर पेश किए जा रहे हैं। उनके किसी भी आंकड़े और जानकारी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या वे ऐसा करके जनता, पर्यावरण और देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे हैं। क्या इसका मतलब यह माना जाए कि वे वातावरण में अस्वीकार्य और खतरनाक मात्रा में रेडियोधर्मी प्रदूषण फैला रहे हैं इस सच्चाई को ढकने के लिए इस तरह का फर्जीवाड़ा कर रहे हैं? और क्या किसी और देश में माप और आंकड़ों की इस तरह की जालसाजी को बरदाश्त किया जाता?
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