भीनासर आंदोलन की तुलना मैं हिमालय की रक्षा के लिए चल रहे ‘चिपको आंदोलन’ से भी करना चाहता हूं। यहां मरुस्थल में जो कार्य किया जा रहा है, वह हिमालय से भी अब कठिन और विकट परिस्थितियों में हो रहा । रेगिस्तान में तो वनस्पति के दर्शन ही दुर्लभ हैं। यहां वनस्पति, पेड़-पौधे, घास-चारा लगाना और उसे सुरक्षित रखना प्रकृति को चुनौती देना है, जो कि बड़े जीवट का काम है। हिमालय में यह कार्य चुनौतीपूर्ण नहीं है। वहां तो संकट वनस्पति की रक्षा का है, जिसे मानव के हाथों विनाश का खतरा है। यहां प्रतिकूल जलवायु में वनस्पति लगाने और विनाश के हाथ से उसे सुरक्षित रखने की दोहरी चुनौती है। भीनासर पश्चिमी राजस्थान के धार क्षेत्र में बीकानेर जिले का एक गांव है। 1974 से इस गांव के लोग गोचर भूमि (चारागाह) की रक्षा, विकास और पर्यावरण चेतना के लिए अद्भुत आंदोलन चला रहे हैं। उसकी चर्चा में निरंतर सुनता रहा था और मेरे मन में यह आंकाक्षा थी कि स्वयं अपनी आंखों से इसे देखूं और आंदोलन में लगे रचनात्मक साथियों से मिलूं। इसका मौका मुझे पिछले दिनों मिला और मैं वह समूचा कार्य, उसमें आम लोगों की भागीदारी, गोचर भूमि और पर्यावरण के प्रति उनका ममत्व-भरा गहरा जुड़ाव, नेतृत्व की कुशल क्षमता और सुस्पष्ट दृष्टि देख सका। उसका मेरे मन पर सीधा प्रभाव यह पड़ा कि जैसे मैं एक पवित्र तीर्थ-स्थल पर आया हूं। 12 से 18 दिसम्बर 1986 तक मैं इस क्षेत्र में रहा। मैंने यह महसूस किया कि देश-भर में पर्यावरण और परती भूमि के संबंध में जो कार्य हो रहे हैं, वे मुख्यतया मनुष्य-जाति की रक्षा और बेहतरी के लिए किए जा रहे हैं। लेकिन भीनासर आंदोलन के माध्यम से जो कार्य हो रहा है, वह बोल न सकने वाले पशुओं और चल न सकने वाल वृक्षों की रक्षा और बेहतरी के लिए किया जा रहा है। इसमें मनुष्य जाति का हित मुख्य नहीं, गौण है।
भीनासर आंदोलन की तुलना मैं हिमालय की रक्षा के लिए चल रहे ‘चिपको आंदोलन’ से भी करना चाहता हूं। यहां मरुस्थल में जो कार्य किया जा रहा है, वह हिमालय से भी अब कठिन और विकट परिस्थितियों में हो रहा । रेगिस्तान में तो वनस्पति के दर्शन ही दुर्लभ हैं। यहां वनस्पति, पेड़-पौधे, घास-चारा लगाना और उसे सुरक्षित रखना प्रकृति को चुनौती देना है, जो कि बड़े जीवट का काम है। हिमालय में यह कार्य चुनौतीपूर्ण नहीं है। वहां तो संकट वनस्पति की रक्षा का है, जिसे मानव के हाथों विनाश का खतरा है। यहां प्रतिकूल जलवायु में वनस्पति लगाने और विनाश के हाथ से उसे सुरक्षित रखने की दोहरी चुनौती है। भीनासर आंदोलन के माध्यम से इस चुनौती का रचनात्मक उत्तर मिलता है। इस आंदोलन के माध्यम से पिछले दो सालों से जो कार्य हो रहे हैं, वे एक प्रकार से प्रयोग के काम हैं पर उनके परिणामों को देखकर यह विश्वास जगता है कि अब बड़े पैमाने पर काम हाथ में लिया जाना चाहिए तथा जन-आंदोलन की तरह उसे फैलाना चाहिए।
भीनासर में गोचर भूमि (सार्वजनिक चारागाह) करीब 2000 एकड़ (5,200 बीघा) है। श्री मुरली मनोहर गोशाला के माध्यम से राज्य सरकार की अनुमति लेकर 263 बीघा भूखंड पर चारागाह विकास का काम किया जा रहा है। पिछले वर्ष यहां गंभीर अकाल और सूखा पड़ा था। इस वर्ष तो हालत बदतर हैं। भीनासर आंदोलन के रचनात्मक साथियों ने सूखे और अकाल की स्थिति में भी हजारों क्विंटल हरा चारा पैदा किया। यह देखकर जिला ग्रामीण विकास अभिकरण, बीकानेर के अध्यक्ष तथा जिलाधीश श्री रामनारायण मीणा ने चार जल-छिड़काव यंत्र (स्प्रिंकलर सेट) प्रदान किए। इससे चारा उत्पादन का कार्य सरल हो गया।
इसी आंदोलन के माध्यम से एक ‘जन-पौधशाला’ (पीपल्स नर्सरी) भी स्थापित की गई है। यह राजस्थान में ऐसी एकमात्र पौधशाला है, जिसमें स्थानीय प्रजाति के खेजड़ी वृक्ष भी तैयार किए जा रहे हैं। पहले ही वर्ष करीब 20000 पौधे वन विभाग को प्रदान किए गए । इसी पौधशाला में तैयार हुए पौधे बापू के सेवाग्राम आश्रम वर्धा, ज्योतिपीठ और शारदापीठ, जोधपुर के माणक गांव और खेजड़ली में रोपे गए हैं। पाडली वह ऐतिहासिक गांव है, जहां 256 वर्ष पूर्व खेजड़ी वृक्षों की रक्षा के लिए 363 स्त्री-पुरुष-बच्चों के स्मारक खेजड़ली में रोपे गए। भीनासर आंदोलन का उद्देश्य खेजड़ी वृक्ष को बचाना है। मैंने अपने सात दिन के प्रवास में यह देखा कि मरुस्थल के लिए खेजड़ी का पेड़ एक मात्र उपयोगी पेड़ है, जो इस थार की विषमता को झेलकर वह सब कुछ दे सकता है जिसकी हमें आवश्यकता है। खेजड़ी की रक्षा के विषय में भीनासर गांव सदैव सजग रहा है। यहां की गोचर भूमि में खड़े खेजड़ी के हजारों उन्नत वृक्ष इसके प्रमाण है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि थोड़े से प्रयत्न से खेजड़ी की रक्षा और उन्नति संभव है। आंदोलन के माध्यम से स्थापित जन-पौधशाला का लक्ष्य, प्रतिवर्ष एक लाख खेजड़ी के पौध तैयार करने का है। इस कार्य में यहां के वन-संरक्षक श्री एस.पी. माथुर बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं। राजस्थान का वन विभाग यदि शुरू से ही इस बारे में सक्रिय होता तो आज हालत कुछ और होती।
मुझे रचनात्मक कार्यकर्ताओं ने बताया कि इस पौधशाला की स्थापना का विचार जब वन-अधिकारियों के सामने रखा गया, तो उन्होंने कार्यकर्ताओं को न केवल हतोत्साहित किया, बल्कि उनका मखौल भी उड़ाया पर आज वे इसके प्रशंसक बन गए हैं। अलबत्ता अब भी सरकारी पौधशालाओं में खेजड़ी के पौधे नाममात्र को ही तैयार किए जा रहे हैं पर उन्होंने शुरुआत कर दी है, यह प्रसन्नता की बात है।
मौलिक ज्ञान के अभाव और पश्चिम की अधूरी नकल के नग्न दर्शन मुझे इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र के दोनों ओर किए गए वृक्षारोपण से हुए। यहां इजराईली बबूल लगाए गए हैं। यह पेड़ किसी भी रूप में उपयोगी और लाभदायक नहीं है। सफेदा (युकेलिप्टस) की तरह इससे होने वाली हानि के बारे में तो अभी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं, मगर इसे यहां रोपने के पीछे जो दृष्टिहीनता है, वह तो स्पष्ट दिखाई दे जाती है। मुझे बताया गया कि नहर के सहारे सफेदा भी सघन रूप से लगाया गया है। जितना नहरी क्षेत्र में देख सका, उसमें तो इजराईली बबूल ही अपनी वीभत्सता लिए खड़े थे। हां, उनके बीच में प्रकृति की अनुकंपा से खेजड़ी खड़ी थी। वह अनूठी अभी और आकर्षण लिए हुए थी। मेरे मन में रह-रह कर यह सवाल उठता रहा है कि इसराइली बबूल के स्थान पर खेजड़ी ही क्यों नहीं लगाई गई? इस अदूरदर्शिता के लिए कौन ज़िम्मेवार है और भविष्य में इस प्रकार की दृष्टिहीनता को कैसे रोका जाए, ये प्रश्न विचारणीय हैं।
सात दिन के अपने प्रवास में मैंने राजस्थान गो सेवा संघ के छतरगढ़ स्थित कृषि फार्म और वहां हो रहे कामों को भी देखा। इस कार्य में मुझे भीनासर आंदोलन की तरह जनता की भागीदारी तो नहीं देखने को मिली, किंतु जो काम हो रहा है वह उल्लेखनीय है। भीनासर आंदोलन के माध्यम से हो रहे चारागाह विकास के कार्य में साधन सीमित हैं, जबकि यहां साधनों की विपुलता है। सबसे बड़ा साधन तो पानी ही है, जो नहर के कारण यहां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। यहां भी चारागाह विकसित किया जा रहा है और हजारों खेजड़ी के पेड़ सहज रूप से विकसित हो रहे हैं।
इस क्षेत्र को देखकर मुझे वनविदों की यह धारणा झूठी लगी कि खेजड़ी के पेड़ धीरे-धीरे बढ़ते हैं। इस कृषि फार्म में हजारों खेजड़ी के पेड़ लदे-फदे खड़े थे। नहर के सहारे वन विभाग ने इजराईली बबूल की ही देखभाल की है। खेजड़ी को पानी देने का कोई प्रबंध नहीं है। खेजड़ी के पेड़ नहर का पानी देख-देखकर ही फल फूल रहे हैं। नहर के किनारे यदि खेजड़ी लगाया गया होता तो कितना बड़ा काम हो गया होता। क्या हम इस अनुभव से कोई सबक लेने को तैयार हैं?
पश्चिम राजस्थान पशुपालन प्रधान क्षेत्र है। पशुपालन यहां के गाँवों की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। गांव-गांव में चारागाह है और आरोप छोड़े गए हैं। पर आज इनकी हालत बुरी है। भीनासर गांव में ही, गोचर भूमि के प्रति जागरुकता होते हुए भी अनेक चारगाह नाजायज कब्ज़े में हैं। यदि प्रशासन जागरुकता दिखाए तो य कब्ज़े हट सकते हैं। दूसरे गाँवों में भी ऐसा ही प्रयास हो सकता है। भीनासर आंदोलन के रचनात्मक कार्यकर्ता गांव-गांव में इस प्रकार की जनचेतना जगाने के लिए पहल कर सकते हैं। जिला प्रशासन और वन विभाग इस काम को गति दे सकते हैं। भारत सरकार के पर्यावरण विभाग और राजस्थान के वन विभाग के संयुक्त प्रयासों से भूतपूर्व सैनिकों को साथ लेकर बनाई गई इको टास्क फोर्स भी वनारोपण और चारागाह विकास का कार्य कर रही है। यह सचमुच महान कार्य है। इको टॉस्क फोर्स के जवान और वन विभाग अनुशासित ढंग से विकट परिस्थितियों में यह कार्य कर रहे हैं। लेकिन इस प्रशंसनीय काम में जनता की भागीदारी का सर्वथा अभाव है। ऐसे काम यदि जन-आंदोलन का रूप नहीं लेंगे, तो उनका पूरा लाभ नहीं मिल सकेगा। दूसरी बात, हमारी स्थानीय आवश्यकताएं क्या है और स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर हम आगे बढ़ सकते हैं। इसका कोई स्पष्ट चिंतन मुझे यहां दिखाई नहीं दिया। हजारों एकड़ क्षेत्र में काम हो रहा है। इस कार्य के लिए साधनों की विपुलता भी है। मैं मानता हूं कि यदि भीनासर आंदोलन जैसे जन-अभिक्रम को इसके शतांश साधन भी उपलब्ध करा दिए जाए, तो बेहतर परिणाम निकल सकते हैं। मैंने देखा कि सैकड़ों एकड़ क्षेत्र में सुबबूल (कुबबूल) की खेती की जा रही है। यह भी पश्चिम की नकल है।
यदि इजराईली बबूल, सुबबूल अथवा सफेदा हमारी धरती के लिए होते तो वे यहां के देशज वनस्पति क्यों न होती, जैसे की खेजड़ी, फोग, रोहिड़ा इत्यादि है? मैंने देखा कि ये पश्चिमी पेड़ हमारी जलवायु को झेल नहीं पा रहे हैं। ठंड के कारण इनके पत्ते जल चुके हैं। सैकड़ों एकड़ क्षेत्र में होने वाली सुबबूल की खेती का हमारी मिट्टी, पर्यावरण और हमारे पशुधन पर क्या असर पड़ रहा है, इसका अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। हम एक अंधी दौड़ में लगे हैं। बिना दूरगामी परिणामों को सोचे-समझे मैं समझता हूं कि वनीकरण एवं चारागाह-विकास के विषय में दृष्टिकोण क्या रखना हैं, यह हमें पहले तय कर लेना चाहिए।
पश्चिम राजस्थान पशुपालन प्रधान क्षेत्र है। पशुपालन यहां के गाँवों की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। गांव-गांव में चारागाह है और आरोप छोड़े गए हैं। पर आज इनकी हालत बुरी है। भीनासर गांव में ही, गोचर भूमि के प्रति जागरुकता होते हुए भी अनेक चारगाह नाजायज कब्ज़े में हैं। यदि प्रशासन जागरुकता दिखाए तो य कब्ज़े हट सकते हैं। दूसरे गाँवों में भी ऐसा ही प्रयास हो सकता है। भीनासर आंदोलन के रचनात्मक कार्यकर्ता गांव-गांव में इस प्रकार की जनचेतना जगाने के लिए पहल कर सकते हैं। जिला प्रशासन और वन विभाग इस काम को गति दे सकते हैं। भीनासर आंदोलन को देखने से मेरी यह धारणा स्पष्ट और सुदृढ़ हुई है कि ऐसे महान कार्य कठिन होते हुए भी, सरल होते है। सवाल है कि शासन की दृष्टि क्या है। यदि दृढ़ता के साथ यह कार्य जन-भागीदारी से किया जाए तो सफलता सुनिश्चित है।
मेरा आग्रह है कि हमें भीनासर आंदोलन के अब तक के प्रयोगों और कार्यों को आधार बनाकर उसे व्यापक स्तर पर चलाना और नमूने (मॉडल) का रूप देना चाहिए। भीनासर में जो दो हजार एकड़ के चारागाह क्षेत्र हैं, उन पर से नाजायज कब्ज़े हटा कर, समूचे क्षेत्र को तारबंदी से सुरक्षित करना चाहिए। जन-पौधशाला की क्षमता भी बढ़ानी चाहिए। इसके लिए शासन को साधन उपलब्ध कराने चाहिए।
इस समय भीनासर आंदोलन के चारागाह क्षेत्र में एक कुआं है, एक लाख पौधों की पौधशाला है और 263 बीघा भूमि कांटेदार बाढ़ से घेरी गई है। यह सारा काम जन सहयोग से एकत्र धन से किया गया है। इसलिए इस काम को मैं अभिनव, प्रेरक और अनूठा मानता हूं और भीनासर को तीर्थ के समान आदर और श्रद्धा से देखता हूं।
भीनासर आंदोलन की तुलना मैं हिमालय की रक्षा के लिए चल रहे ‘चिपको आंदोलन’ से भी करना चाहता हूं। यहां मरुस्थल में जो कार्य किया जा रहा है, वह हिमालय से भी अब कठिन और विकट परिस्थितियों में हो रहा । रेगिस्तान में तो वनस्पति के दर्शन ही दुर्लभ हैं। यहां वनस्पति, पेड़-पौधे, घास-चारा लगाना और उसे सुरक्षित रखना प्रकृति को चुनौती देना है, जो कि बड़े जीवट का काम है। हिमालय में यह कार्य चुनौतीपूर्ण नहीं है। वहां तो संकट वनस्पति की रक्षा का है, जिसे मानव के हाथों विनाश का खतरा है। यहां प्रतिकूल जलवायु में वनस्पति लगाने और विनाश के हाथ से उसे सुरक्षित रखने की दोहरी चुनौती है। भीनासर आंदोलन के माध्यम से इस चुनौती का रचनात्मक उत्तर मिलता है। इस आंदोलन के माध्यम से पिछले दो सालों से जो कार्य हो रहे हैं, वे एक प्रकार से प्रयोग के काम हैं पर उनके परिणामों को देखकर यह विश्वास जगता है कि अब बड़े पैमाने पर काम हाथ में लिया जाना चाहिए तथा जन-आंदोलन की तरह उसे फैलाना चाहिए।
भीनासर में गोचर भूमि (सार्वजनिक चारागाह) करीब 2000 एकड़ (5,200 बीघा) है। श्री मुरली मनोहर गोशाला के माध्यम से राज्य सरकार की अनुमति लेकर 263 बीघा भूखंड पर चारागाह विकास का काम किया जा रहा है। पिछले वर्ष यहां गंभीर अकाल और सूखा पड़ा था। इस वर्ष तो हालत बदतर हैं। भीनासर आंदोलन के रचनात्मक साथियों ने सूखे और अकाल की स्थिति में भी हजारों क्विंटल हरा चारा पैदा किया। यह देखकर जिला ग्रामीण विकास अभिकरण, बीकानेर के अध्यक्ष तथा जिलाधीश श्री रामनारायण मीणा ने चार जल-छिड़काव यंत्र (स्प्रिंकलर सेट) प्रदान किए। इससे चारा उत्पादन का कार्य सरल हो गया।
इसी आंदोलन के माध्यम से एक ‘जन-पौधशाला’ (पीपल्स नर्सरी) भी स्थापित की गई है। यह राजस्थान में ऐसी एकमात्र पौधशाला है, जिसमें स्थानीय प्रजाति के खेजड़ी वृक्ष भी तैयार किए जा रहे हैं। पहले ही वर्ष करीब 20000 पौधे वन विभाग को प्रदान किए गए । इसी पौधशाला में तैयार हुए पौधे बापू के सेवाग्राम आश्रम वर्धा, ज्योतिपीठ और शारदापीठ, जोधपुर के माणक गांव और खेजड़ली में रोपे गए हैं। पाडली वह ऐतिहासिक गांव है, जहां 256 वर्ष पूर्व खेजड़ी वृक्षों की रक्षा के लिए 363 स्त्री-पुरुष-बच्चों के स्मारक खेजड़ली में रोपे गए। भीनासर आंदोलन का उद्देश्य खेजड़ी वृक्ष को बचाना है। मैंने अपने सात दिन के प्रवास में यह देखा कि मरुस्थल के लिए खेजड़ी का पेड़ एक मात्र उपयोगी पेड़ है, जो इस थार की विषमता को झेलकर वह सब कुछ दे सकता है जिसकी हमें आवश्यकता है। खेजड़ी की रक्षा के विषय में भीनासर गांव सदैव सजग रहा है। यहां की गोचर भूमि में खड़े खेजड़ी के हजारों उन्नत वृक्ष इसके प्रमाण है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि थोड़े से प्रयत्न से खेजड़ी की रक्षा और उन्नति संभव है। आंदोलन के माध्यम से स्थापित जन-पौधशाला का लक्ष्य, प्रतिवर्ष एक लाख खेजड़ी के पौध तैयार करने का है। इस कार्य में यहां के वन-संरक्षक श्री एस.पी. माथुर बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं। राजस्थान का वन विभाग यदि शुरू से ही इस बारे में सक्रिय होता तो आज हालत कुछ और होती।
मुझे रचनात्मक कार्यकर्ताओं ने बताया कि इस पौधशाला की स्थापना का विचार जब वन-अधिकारियों के सामने रखा गया, तो उन्होंने कार्यकर्ताओं को न केवल हतोत्साहित किया, बल्कि उनका मखौल भी उड़ाया पर आज वे इसके प्रशंसक बन गए हैं। अलबत्ता अब भी सरकारी पौधशालाओं में खेजड़ी के पौधे नाममात्र को ही तैयार किए जा रहे हैं पर उन्होंने शुरुआत कर दी है, यह प्रसन्नता की बात है।
मौलिक ज्ञान के अभाव और पश्चिम की अधूरी नकल के नग्न दर्शन मुझे इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र के दोनों ओर किए गए वृक्षारोपण से हुए। यहां इजराईली बबूल लगाए गए हैं। यह पेड़ किसी भी रूप में उपयोगी और लाभदायक नहीं है। सफेदा (युकेलिप्टस) की तरह इससे होने वाली हानि के बारे में तो अभी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं, मगर इसे यहां रोपने के पीछे जो दृष्टिहीनता है, वह तो स्पष्ट दिखाई दे जाती है। मुझे बताया गया कि नहर के सहारे सफेदा भी सघन रूप से लगाया गया है। जितना नहरी क्षेत्र में देख सका, उसमें तो इजराईली बबूल ही अपनी वीभत्सता लिए खड़े थे। हां, उनके बीच में प्रकृति की अनुकंपा से खेजड़ी खड़ी थी। वह अनूठी अभी और आकर्षण लिए हुए थी। मेरे मन में रह-रह कर यह सवाल उठता रहा है कि इसराइली बबूल के स्थान पर खेजड़ी ही क्यों नहीं लगाई गई? इस अदूरदर्शिता के लिए कौन ज़िम्मेवार है और भविष्य में इस प्रकार की दृष्टिहीनता को कैसे रोका जाए, ये प्रश्न विचारणीय हैं।
सात दिन के अपने प्रवास में मैंने राजस्थान गो सेवा संघ के छतरगढ़ स्थित कृषि फार्म और वहां हो रहे कामों को भी देखा। इस कार्य में मुझे भीनासर आंदोलन की तरह जनता की भागीदारी तो नहीं देखने को मिली, किंतु जो काम हो रहा है वह उल्लेखनीय है। भीनासर आंदोलन के माध्यम से हो रहे चारागाह विकास के कार्य में साधन सीमित हैं, जबकि यहां साधनों की विपुलता है। सबसे बड़ा साधन तो पानी ही है, जो नहर के कारण यहां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। यहां भी चारागाह विकसित किया जा रहा है और हजारों खेजड़ी के पेड़ सहज रूप से विकसित हो रहे हैं।
इस क्षेत्र को देखकर मुझे वनविदों की यह धारणा झूठी लगी कि खेजड़ी के पेड़ धीरे-धीरे बढ़ते हैं। इस कृषि फार्म में हजारों खेजड़ी के पेड़ लदे-फदे खड़े थे। नहर के सहारे वन विभाग ने इजराईली बबूल की ही देखभाल की है। खेजड़ी को पानी देने का कोई प्रबंध नहीं है। खेजड़ी के पेड़ नहर का पानी देख-देखकर ही फल फूल रहे हैं। नहर के किनारे यदि खेजड़ी लगाया गया होता तो कितना बड़ा काम हो गया होता। क्या हम इस अनुभव से कोई सबक लेने को तैयार हैं?
पश्चिम राजस्थान पशुपालन प्रधान क्षेत्र है। पशुपालन यहां के गाँवों की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। गांव-गांव में चारागाह है और आरोप छोड़े गए हैं। पर आज इनकी हालत बुरी है। भीनासर गांव में ही, गोचर भूमि के प्रति जागरुकता होते हुए भी अनेक चारगाह नाजायज कब्ज़े में हैं। यदि प्रशासन जागरुकता दिखाए तो य कब्ज़े हट सकते हैं। दूसरे गाँवों में भी ऐसा ही प्रयास हो सकता है। भीनासर आंदोलन के रचनात्मक कार्यकर्ता गांव-गांव में इस प्रकार की जनचेतना जगाने के लिए पहल कर सकते हैं। जिला प्रशासन और वन विभाग इस काम को गति दे सकते हैं। भारत सरकार के पर्यावरण विभाग और राजस्थान के वन विभाग के संयुक्त प्रयासों से भूतपूर्व सैनिकों को साथ लेकर बनाई गई इको टास्क फोर्स भी वनारोपण और चारागाह विकास का कार्य कर रही है। यह सचमुच महान कार्य है। इको टॉस्क फोर्स के जवान और वन विभाग अनुशासित ढंग से विकट परिस्थितियों में यह कार्य कर रहे हैं। लेकिन इस प्रशंसनीय काम में जनता की भागीदारी का सर्वथा अभाव है। ऐसे काम यदि जन-आंदोलन का रूप नहीं लेंगे, तो उनका पूरा लाभ नहीं मिल सकेगा। दूसरी बात, हमारी स्थानीय आवश्यकताएं क्या है और स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर हम आगे बढ़ सकते हैं। इसका कोई स्पष्ट चिंतन मुझे यहां दिखाई नहीं दिया। हजारों एकड़ क्षेत्र में काम हो रहा है। इस कार्य के लिए साधनों की विपुलता भी है। मैं मानता हूं कि यदि भीनासर आंदोलन जैसे जन-अभिक्रम को इसके शतांश साधन भी उपलब्ध करा दिए जाए, तो बेहतर परिणाम निकल सकते हैं। मैंने देखा कि सैकड़ों एकड़ क्षेत्र में सुबबूल (कुबबूल) की खेती की जा रही है। यह भी पश्चिम की नकल है।
यदि इजराईली बबूल, सुबबूल अथवा सफेदा हमारी धरती के लिए होते तो वे यहां के देशज वनस्पति क्यों न होती, जैसे की खेजड़ी, फोग, रोहिड़ा इत्यादि है? मैंने देखा कि ये पश्चिमी पेड़ हमारी जलवायु को झेल नहीं पा रहे हैं। ठंड के कारण इनके पत्ते जल चुके हैं। सैकड़ों एकड़ क्षेत्र में होने वाली सुबबूल की खेती का हमारी मिट्टी, पर्यावरण और हमारे पशुधन पर क्या असर पड़ रहा है, इसका अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। हम एक अंधी दौड़ में लगे हैं। बिना दूरगामी परिणामों को सोचे-समझे मैं समझता हूं कि वनीकरण एवं चारागाह-विकास के विषय में दृष्टिकोण क्या रखना हैं, यह हमें पहले तय कर लेना चाहिए।
पश्चिम राजस्थान पशुपालन प्रधान क्षेत्र है। पशुपालन यहां के गाँवों की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है। गांव-गांव में चारागाह है और आरोप छोड़े गए हैं। पर आज इनकी हालत बुरी है। भीनासर गांव में ही, गोचर भूमि के प्रति जागरुकता होते हुए भी अनेक चारगाह नाजायज कब्ज़े में हैं। यदि प्रशासन जागरुकता दिखाए तो य कब्ज़े हट सकते हैं। दूसरे गाँवों में भी ऐसा ही प्रयास हो सकता है। भीनासर आंदोलन के रचनात्मक कार्यकर्ता गांव-गांव में इस प्रकार की जनचेतना जगाने के लिए पहल कर सकते हैं। जिला प्रशासन और वन विभाग इस काम को गति दे सकते हैं। भीनासर आंदोलन को देखने से मेरी यह धारणा स्पष्ट और सुदृढ़ हुई है कि ऐसे महान कार्य कठिन होते हुए भी, सरल होते है। सवाल है कि शासन की दृष्टि क्या है। यदि दृढ़ता के साथ यह कार्य जन-भागीदारी से किया जाए तो सफलता सुनिश्चित है।
मेरा आग्रह है कि हमें भीनासर आंदोलन के अब तक के प्रयोगों और कार्यों को आधार बनाकर उसे व्यापक स्तर पर चलाना और नमूने (मॉडल) का रूप देना चाहिए। भीनासर में जो दो हजार एकड़ के चारागाह क्षेत्र हैं, उन पर से नाजायज कब्ज़े हटा कर, समूचे क्षेत्र को तारबंदी से सुरक्षित करना चाहिए। जन-पौधशाला की क्षमता भी बढ़ानी चाहिए। इसके लिए शासन को साधन उपलब्ध कराने चाहिए।
इस समय भीनासर आंदोलन के चारागाह क्षेत्र में एक कुआं है, एक लाख पौधों की पौधशाला है और 263 बीघा भूमि कांटेदार बाढ़ से घेरी गई है। यह सारा काम जन सहयोग से एकत्र धन से किया गया है। इसलिए इस काम को मैं अभिनव, प्रेरक और अनूठा मानता हूं और भीनासर को तीर्थ के समान आदर और श्रद्धा से देखता हूं।
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