सबकी धरती सबका हक

लापोड़िया और रामगढ़ की कहानी देश में चौतरफा फैले जल संकट का समाधान तो सुझाती ही है, लेकिन उससे भी बढ़कर सामाजिक समानता की नींव पर बने एक प्रगतिशील समाज का सपना भी साकार करती है...

जयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर, राजधानी के ही दुधू ब्लॉक में बसे लापोड़िया गांव तक जाने वाली सड़क के किनारे बने हरे-भरे चरागाह और हरियाली देखकर आप एक पल को जैसे भूल ही जाते हैं कि यह गांव भारत के सूखे राज्य राजस्थान में है। गांव में प्रवेश करते ही साफ पानी से लबालब भरे तालाब, दूर तक फैले हरे खेत, हरे मैदानों में चरते पशु और घने पेड़ों चहचहाते पक्षियों का सुरीला कलरव आपका स्वागत करता है। लापोड़िया को अकाल-प्रभावित, सूखे और बंजर गांव से खुशहाली के इस स्वागत गीत में बदलने का एक बड़ा श्रेय लक्ष्मण सिंह को जाता है। ऐसे समय में जब पानी की किल्लत दिल्ली-मुंबई से लेकर जयपुर तक सैकड़ों भारतीय शहरों को सूखे नलों के मकड़जाल और अनंत प्रतीक्षा के रेगिस्तान में तब्दील कर रही है, राजस्थान की मरुभूमि में लहलहाते खेतों और हरे-भरे चरागाहों की दो अनोखी कहानियां ठंडी हवा के झोंके की तरह आती हैं। हर साल गर्मियों की पहली दस्तक से ही शहरों में ‘जल-युद्ध’ शुरू हो जाता है। कहीं लोग ‘एक हफ्ते बाद’ आने वाले सरकारी पानी की राह देखते-देखते बेहाल हो जाते हैं तो कहीं से पानी के टैंकरों के सामने मारपीट की खबरें आती हैं। तेजी से बढ़ती शहरी जनसंख्या और साल दर साल उसी अनुपात में बढ़ रहा जल संकट हर गुजरते दिन के साथ और विकराल होता जा रहा है। लेकिन इस रिपोर्ट में आगे दर्ज राजस्थान के लापोड़िया गांव और रामगढ़ क्षेत्र की ये दो कहानियां जल-संरक्षण का सरल और देसी समाधान सुझाती है। साथ ही ये न्यूनतम जल स्तर और प्रतिकूल भौगोलिक परिस्थितियों में भी रेतीली ज़मीन पर लहलहाते खेतों का असंभव सा लगने वाला दृश्य भी रचती हैं।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजस्थान के इन गाँवों में जल-संरक्षण की सुंदर व्यवस्थाओं के फायदे सिर्फ पानी और खेती-किसानी तक सीमित नहीं हैं। दरअसल पानी सहेजने की यह प्रक्रिया जाति आधारित भेदभाव मिटाकर सद्भाव, समानता और भाईचारे की नींव पर खड़े एक प्रगतिशील समाज का सपना भी धरती पर उतारती है। साथ ही यह चरागाहों, पशुओं, पक्षियों और कुल मिलाकर कहें तो एक स्वस्थ पर्यावरण का सतत विकास भी सुनिश्चित करती चलती है।

लापोड़िया


जयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर, राजधानी के ही दुधू ब्लॉक में बसे लापोड़िया गांव तक जाने वाली सड़क के किनारे बने हरे-भरे चरागाह और हरियाली देखकर आप एक पल को जैसे भूल ही जाते हैं कि यह गांव भारत के सूखे राज्य राजस्थान में है। गांव में प्रवेश करते ही साफ पानी से लबालब भरे तालाब, दूर तक फैले हरे खेत, हरे मैदानों में चरते पशु और घने पेड़ों चहचहाते पक्षियों का सुरीला कलरव आपका स्वागत करता है। लापोड़िया को अकाल-प्रभावित, सूखे और बंजर गांव से खुशहाली के इस स्वागत गीत में बदलने का एक बड़ा श्रेय लक्ष्मण सिंह को जाता है। हालांकि वे खुद इस बदलाव को सामूहिक सामाजिक प्रयासों का नतीजा बताते हुए कहते हैं। ‘हम सभी ने मिलकर दशकों से टूटे पड़े गांव के तालाबों को वापस जिंदा किया, पारंपरिक खेती की तरफ लौटे, चरागाहों को आबाद करने के लिए काम किया और पशुओं पर ध्यान देना शुरू किया। अलग-अलग मोर्चों के लिए अलग-अलग योजनाएं बनाई गईं। अथक सामूहिक प्रयासों से लापोड़िया की तस्वीर बदलने लगी। हमें सबको एक साथ लाकर सिर्फ यह एहसास दिलाना था कि यह हम सबका गांव है और इसे ठीक करना हमारी ज़िम्मेदारी है।’

लेकिन एक अकालग्रस्त क्षेत्र की बंजर भूमि को रेगिस्तानी माहौल के बीच भी उपजाऊ और हरा-भरा बनाए रखने के लिए लक्ष्मण सिंह को सालों संघर्ष करना पड़ा। अपनी शुरुआती यात्रा के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘लापोड़िया राजस्थानी भाषा के ‘लापोड़’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है सनकी और अपनी धुन में रहने वाला व्यक्ति शायद हमेशा से हमारे गांव के लोग अपनी धुन में रहने वाले थे। इसलिए हमारे गांव का नाम लापोड़िया पड़ा। 80 के दशक में मुझे स्कूल में पढ़ने जयपुर भेजा गया। दसवीं कक्षा में था और दिवाली की छुट्टियों में घर आया था। तब यहां अकाल जैसी स्थिति थी। बातचीत के दौरान पड़ोस के गांव के एक आदमी ने कह दिया कि लापोड़िया तो बहुत खराब गांव है। यहां अकाल पड़ता है, लोगों के पास खाने को नहीं है, न तालाब है, न पानी है। ऊपर से पूरा गांव एक-दूसरे पर झूठे मुकदमें करता रहता है और सब आपस में लड़ते रहते हैं।

लापोड़िया गांव का तालाबलक्ष्मण सिंह बताते हैं कि यह बात सुनकर वे बहुत दुखी हुए, जैसा कि वे कहते हैं। ‘इतना दुख हुआ कि फिर वापस पढ़ने जा ही नहीं पाया। मन में यह बात थी कि जहां मैं रहता हूं वहां लोग इतनी परेशानी में हैं और आपस मे लड़ रहे हैं। मुझे इसे ठीक करना था। तब सच में गांव के लोग आपस में बहुत लड़ते थे। एक मोहल्ले का आदमी दूसरे मोहल्ले में घुस जाए तो पिट कर ही वापस आता था। लेकिन ऐसे टूटे समाज को एक करने का काम भी तालाबों और चरागाहों ने किया। हालांकि सबको एक साथ लाने में बहुत वक्त और श्रम लगा।’

स्कूल छोड़ने के बाद लक्ष्मण सिंह ने गांव का तालाब ठीक करने के लिए लोगों को बैठकों में बुलाना शुरू किया। 17 साल की उम्र में भी उनकी बैठकों में गांव के लगभग 1,500 लोग आते। लेकिन काफी बातचीत के बाद भी गांववाले दशकों से टूटे पड़े गांव के तालाबों पर दुबारा काम करने के लिए राजी नहीं हुए। इस बीच उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘ग्राम विकास नवयुवक मंडल-लापोड़िया’ नामक संगठन की स्थापना की और खुद फावड़ा लेकर तालाब ठीक करने निकल पड़े शाही राजपूत परिवार के प्रतिनिधि होने की वजह से गांव में उनका सम्मान है और यहां उन्हें ‘बना जी’ कहकर संबोधित किया जाता है। अपने ‘बना जी’ को तालाब में काम करता देख धीरे-धीरे और लोग भी तालाब सुधारने के काम में जुट गए, 1981 में देवसागर तालाब पूरा कर लिया गया। 1983 तक दो तालाब और बन गए अन्नसागर और फूलसागर बारिश में तालाबों के भरने से भूमिगत जल स्तर बढ़ने लगा और धीरे-धीरे बुझे हुए खेतों में फिर से जान आ गई। गांव में खेती की तकनीक के बारे में आगे बताते हुए सिंह जोड़ते हैं, ‘गीली मिट्टी में मौजूद नमी भाप बनकर हर दोपहर उड़ती है और रात में वापस मिट्टी में ओस की तरह मिल जाती है। हम सिंचाई के लिए मुख्यतः इस प्रक्रिया पर निर्भर हैं। खेतों में ऊपरी पानी बहुत कम दिया जाता है। गेहूं दो बार पानी लेता है, जो एक बार और चने की फसल तो ऊपरी सिंचाई के बिना ही हो जाती है। सिंचाई के लिए सिर्फ अन्नसागर का पानी इस्तेमाल किया जाता है। देवसागर का पानी पीने के लिए लिया जाता है और फूलसागर का निर्माण मूलतः भूमिगत जल स्तर बढ़ाने के लिए किया गया है। उस तालाब के आस-पास पेड़-पौधों की पट्टियां हैं और उसके पानी का इस्तेमाल सिर्फ फूलों की सिंचाई के लिए होता है। हर परिवार बारी-बारी से पानी लेता है। इसमें कोई झगड़ा नहीं होता।’

खेती और तालाबों के साथ-साथ लापोड़िया की तस्वीर बदलने में गोचर की बहुत महत्वूपर्ण भूमिका है। गोचर मूलतः गांव और खेतों के पास मौजूद पशुओं के विशाल पारंपरिक चरागाह होते हैं। ज़मीन की बढ़ती कीमतों और खेती में आधुनिक उपकरणों के प्रवेश के बाद से भारत के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों के चरागाह खत्म होते गए और पशुओं को एक खूंटे से बांधकर, चारदीवारी में चारा परोसा जाने लगा। लक्ष्मण सिंह का मानना है कि पशु किसानी व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है और उनके चरने के लिए खुले चरागाह आवश्यक हैं। लापोड़िया के उजड़े बंजर चरागाह को वापस जीवित करने की उधेड़बुन में उन्होंने कई कृषि विश्वविद्यालयों के चक्कर लगाए, विशेषज्ञों से बात की और आखिर में स्वयं ही ‘चौका पद्धति’ का आविष्कार किया। इस चौका प्रणाली के तहत तीन भुजाओं में मिट्टी के पाल बनाकर चरागाह में चौकोर बनाई जाती हैं। बरसात का पानी इन चौकों में ठहरता है। एक चौके में पूरा भर जाने पर पानी अपने आप दूसरे चौके में चला जाता है। सारे चौकों में पानी भर जाने पर सारा अतिरिक्त पानी चरागाह के अंत में मौजूद एक नहरनुमा तालाब में इक्ट्ठा हो जाता है। चरागाह को वापस जिंदा करने की प्रक्रिया को याद करते हुए लक्ष्मण सिंह बताते हैं। ‘शुरु-शुरू में काफी विरोध हुआ, राजनीति हुई। गांव के कुछ लोगों को लगा कि संगठन चरागाह पर कब्ज़ा करना चाहता है। लेकिन धीरे-धीरे सभी लोग हमारे साथ आ गए, चरागाह बनाने में पूरे गांव ने श्रमदान किया। सभी जातियों के लोगों ने एक साथ फावड़े चलाए, देखते ही देखते चौका-पद्धति रंग लाई और चरागाह हरा-भरा हो गया। गोचर में सबका स्वागत होता है। यहां से कोई जानवर भगाया नहीं जाता क्योंकि हमारा मानना है कि पशु प्रकृति के मित्र हैं, व्यवधान नहीं। पशुओं की मेंगनी और गोबर से चरागाह की भूमि और उपजाऊ होती है।’

पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था हुई तो इसके फायदे भी दिखने लगे। लापोड़िया में दूध का उत्पादन बढ़ने लगा। आज गांव से सालाना लगभग 40 लाख रु. का दूध जयपुर डेरी को जाता है। पशुओं और उन्नत खेतों ने गांव के लोगों को आर्थिक तौर पर मजबूत बनाने में बड़ी महत्वूर्ण भूमिका निभाई है।

धरती के सबसे बंजर क्षेत्रों में से एक पर बसा और सालों सूखे की मार झेलने वाला लपोड़िया गांव आज सम्मान से अपने पैरों पर खड़ा है। गांव के किसान खुशहाल हैं। बीती रात हुई बारिश के बाद अलसुबह गांव के खेत और खूबसूरत लग रहे हैं। गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्तियों में से एक छोटू राम दास और पुष्प देवी अपने पशुओं को चराने गोचर की ओर जा रहे हैं। गांव में हुए बदलाव के बारे में पूछने पर छोटू राम दास हाथ जोड़कर कहते हैं, ‘हमने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि इस गांव में इतना अनाज होगा, दूध की नदियां बहेंगी, पीने के लिए इतना पानी होगा! लेकिन बनाजी सा की प्रणा से सारे तालाब बनाए गए और गोचर इतना हरा-भरा हो गया। मुझे याद है, शुरू में गांववाले मान नहीं रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे हम सबने एक साथ ज़मीन पर काम किया। अब हमारे गांव में कोई किसी के साथ मार-पीट नहीं करता, झूठे मुकदमे नहीं होते, झगड़े भी खत्म हो गए, जाति के नाम पर भी कोई नहीं सताता। आखिर हम सब एक ही तालाब का पानी जो पीते हैं!’

स्वामित्व का ऐसा सुखद विसर्जन किसे नहीं सुहाएगा?

रामगढ़


तीन तरफ से थार मरुस्थल से घिरा राजस्थान का जैसलमेर जिला। जिला मुख्यालय से लगभग 65 किलोमीटर दूर रामगढ़ भारत- पाकिस्तान सीमा से पहले आखिरी प्रमुख कस्बा है। सीमा की ओर बढ़ते हुए रामगढ़ से लगभग 25 किलोमीटर आगे जाने पर रेगिस्तान के बीच एकल पार नाम का एक छोटा-सा गांव है। मरुभूमि के इस निर्जन इलाके में अक्सर गांव बिखरे हुए होते हैं और मौसम के हिसाब से जगह भी बदलते रहते हैं। इस गांव में गाजीराम भील अपने परिवार के साथ रहते हैं। भील होकर पुश्तों से पशु चराने और सड़क निर्माण में मजदूरी करने के बाद अब गाजीराम रेगिस्तान में खेती करते हैं। रेतीली-बंजर भूमि पर रबी और खरीफ की फसलें उगाते हैं और अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। उनके पास जो ऊंट है वह इलाके में मौजूद सबसे अच्छी नस्ल के ऊंटों में से एक है। हाल ही में उन्होंने खेती करने के लिए एक नया ट्रैक्टर खरीदा है और परिवार के लिए दो कमरे का एक पक्का मकान बनवाया है।

50 डिग्री सेल्सियस पर तपते रेगिस्तान के बीच ठाकुरों के प्रभुत्व वाले एक इलाके में गाजीराम भील के लहलहाते खेत, उनका ट्रैक्टर, और एक स्थायी पक्का मकान किसी परीकथा जैसा लगता है। अपनी पिछली पुश्तों को तीन फुट की झोपड़ियों में रहकर पशु चराते, बंजारों की तरह घूमते, मजदूरी करते हुए और फिर एक दिन खामोशी से मरते हुए देखने वाले गाजीराम के लिए यह परीकथा जैसा है। आठ साल पहले तक रेगिस्तान में अपनी एक-दो बकरियां लेकर गूमने वाले गाजीराम का जीवन ‘खडीनों में खेती’ की पारंपरिक विधा ने बदल दिया।

रेगिस्तान नौलखा हार कहलाने वाला खडीन रेगिस्तान में खेती करने की एक विशिष्ट तकनीक है। रेगिस्तान की बंजर भूमि के नीचे जिप्सम की परत पाई जाती है। लेकिन मेट की यह पट्टी सिर्फ कुछ जगहों में मिलती है। यह पट्टी रेगिस्तान में होने वाली सामान्य वर्षा के पानी को नीचे जाने से रोक लेती है और इस तरह रेत की गर्म सतह के नीचे ठंडा पानी इकट्ठा होने लगता है। जिप्सम की वजह से इकट्ठा होने वाले इस पानी को स्थानीय भाषा में ‘राजवानी पानी’ कहते हैं। रेगिस्तान के जिन इलाकों में जिप्सम की यह परत पंद्रह-बीस फुट से सत्तर फुट की गहराई में मौजूद हो वहां स्थानीय लोग गहरे कुएं खोद कर ‘बेरियों’ का निर्माण कर लेते हैं। लेकिन जब जिप्सम की यह परत ऊपर उठ जाती है तो उस क्षेत्र में खेती की जा सकती है। जिप्सम आधारित इस विशिष्ट कृषि प्रणाली को ‘खडीन’ कहते हैं। भारत में खडीन खेती सिर्फ राजस्थान के जैसलमेर जिले में होती है। पूरे जिले में लगभग 300 खडीन हैं। पिछले आठ साल से रामगढ़ क्षेत्र में लगभग टूट चुकी खडीनों को दोबारा आबाद करने और छोटे खडीनों को प्रोत्साहित करने के काम में जुटे स्थानीय किसान और सामाजिक कार्यकर्ता छतर सिंह कहते हैं, ‘रामगढ़ क्षेत्र में फिलहाल 10-11 बड़े खडीन हैं और लगभग 50 छोटे खडीन। खडीन तो इस इलाके में पिछले 300 सालों से थे लेकिन ज्यादातर टूट चुके थे। खडीन की खेती लगभग समाप्त-सी हो गई थी। लोगों को इंदिरा गांधी नहर से बहुत उम्मीदें थी लेकिन कुछ नहीं हुआ। फिर 2004 के आस-पास हमने सोचा कि खडीन को जिंदा करना चाहिए। यहां लोगों को समझाने में थोड़ा समय तो लगा, लेकिन धीरे-धीरे सभी को एहसास हो गया कि पारंपरिक खडीन आधारित खेती ही हमें इस रेगिस्तान में जीवन दे सकती है।’

खडीनखडीन निर्माण का श्रेय लगभग 900 साल पहले जैसलमेर के राजा के प्रस्ताव पर रामगढ़ में आकर बसने वाले पाली ब्राह्मणों को जाता है। उन्होंने ज़मीन के कुछ हिस्सों में मौजूद नमी को पहचानकर उन्ही जगहों पर विशाल खडीन बनाए। खडीन एक विशिष्ट प्रकार का खेत है जिसके दो तरफ मिट्टी की ऊंची पाल खड़ी की जाती है और एक तरफ पत्थर की मजबूत चादर बिछाई जाती है। ज्यादातर ढलान वाली जगहों पर बने इन खडीनों के चौथे छोर से बरसात का पानी भीतर आता है और फिर एक अस्थायी तालाब की तरह खेत में कई दिन खड़ा रहता है। धीरे-धीरे ज़मीन में समाने वाला यह पानी जिप्सम की परत के ऊपर ही ठहर जाता है और किसान आसानी से रबी और खरीफ की फसलें उगा लेता है। छतर सिंह बताते हैं, ‘पानी हर साल अपने साथ कई घुलनशील तत्व, पशुओं का गोबर, सूखे पेड़- पत्ते आदि बहुत कुछ बहा कर ले आता है। यह पानी खडीनों में खाद का काम करता है और साल-दर साल मिट्टी को और ज्यादा उपजाऊ बनाता है।’ वे आगे बताते हैं कि खडीन हमेशा पाटों में विभाजित होते हैं और हर पाट में दस-पंद्रह परिवारों का हिस्सा होता है। सब मिलकर खडीन में खेती करते हैं और फसल काम करने वाले सभी परिवारों में बांट दी जाती है। यदि किसी परिवार में कोई विकलांग है, विधवा है या रोगी है तो उनका हिस्सा भी उनके दरवाज़े पर पहुंचा दिया जाता है। ज्यादातर बड़े खडीनों में शुरुआत से ही राजपूत खेती करते आए हैं लेकिन अब कुम्हार, नाई, भील और मुसलमानों समेत सभी समुदाय खडीनों में काम करते हैं। खडीन की खेती सामाजिक एकता पर निर्भर है। छतर सिंह कहते हैं, ‘खडीन पर किसी का स्वामित्व नहीं होता बल्कि वे पूरे समाज के होते हैं और सभी को बराबर हिस्सा मिलता है। जिस दिन यहां का समाज टूटा, खडीन भी टूट जाएंगे।’

रामगढ़ के खडीन किसानों ने शायद कभी समानता और स्वतंत्रता के फ्रांसीसी सिद्धातों के बारे में सुना भी नहीं होगा और न ही उन्हें पर्यावरण संरक्षण के नाम पर हर रोज छप रही सैकड़ों किताबों के बारे में कोई जानकारी होगी। लेकिन अपने समाज से ही विकसित हुई एक अनोखी न्याय प्रक्रिया के तहत आज खडीनों का लाभ रेगिस्तान में अकेले खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंच रहा है और थार के लोग दुनिया की सबसे कम बारिश में भी रेत में गेहूं उपजा रहे हैं। साल की पहली बारिश के इंतजार में आसमान को ताकते गाजीराम हाथ जोड़कर कहते हैं, ‘कभी सोचा नहीं था कि छत जैसा भी कुछ हो सकता है हमारे सर पर। खडीन देवता है हमारे जैसे किसी की जान का मोल नहीं होता, वैसे ही हमारे खडीन भी अनमोल है।’

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