भारत

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इंसानी गतिविधियों से बढ़ता जलवायु परिवर्तन का खतरा
Posted on 24 Jul, 2015 10:08 AM दुख इस बात का है कि दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ
climate change
हमारी परम्परा में है वर्षाजल संरक्षण
Posted on 23 Jul, 2015 04:40 PM वर्तमान जल संकट से उबरने का एकमात्र उपाय है वर्षाजल का समुचित प्रबन
चुक रहा है भूजल
Posted on 23 Jul, 2015 01:53 PM जहाँ आज हमें पुनर्भरण बढ़ाने की जरूरत है वहाँ उसे घटाने का काम कर रहे हैं। हमारे पास जल संसाधन सीमित है। देश की ज़मीन पर प्रकृति हमें 4000 घन किलोमीटर पानी देती है। यह पानी वर्षा और हिमपात के रूप में होता है। इस 4000 घन किलोमीटर (4000 अरब घन मीटर या 4000 बीसीएम) पानी में से 20 फीसद से ज्यादा भाप बनकर उड़ जाता है। पचास से 60 फीसद पानी बाँधों, तालाबों, खेतों और कच्ची ज़मीन से रिसकर ज़मीन में चला जाता है। विश्व के सभी देश जल संकट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक रूप से जल विपन्न देशों के सामने यह संकट सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। भारतवर्ष भी तेजी से बढ़ी अपनी जनसंख्या के कारण अब जल विपन्न देशों की श्रेणी में है। साल-दर-साल जल प्रबन्धन करते हुए हम जैसे-तैसे काम चला रहे हैं। सिर्फ आज की स्थिति देखें तो हालात इतने डरावने हैं कि कल के इन्तज़ाम के लिये विशेषज्ञों को कोई भी विश्वसनीय और वैध उपाय सूझ नहीं रहा है।

इतनी भयावह स्थिति है कि ज़मीन के भीतर का पानी यानी भूजल ऊपर खींचकर काम चलाना पड़ रहा है। भूजल की स्थिति यह है कि पूरे देश में भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। हालांकि 80 और 90 के दशक में जल विज्ञानियों ने इस मामले में हमें आगाह किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में तत्कालीन सरकार ने पूर्व सक्रियता दिखाते हुए भूजल प्रबन्धन के लिये केन्द्रीय भूजल बोर्ड के रूप में नियामक संस्था बना ली थी। तब की सरकार की चिन्ताशीलता का एक सबूत यह भी है कि 80 के दशक के मध्य में इनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट बना लिया गया।
हमारे पर्यावरण का भविष्यवक्ता
Posted on 23 Jul, 2015 11:22 AM

‘‘यदि हमारे गाँव ऐसे स्थान पर हैं जहाँ पर्यावरण व इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो शहर ऐसा स्थान है, जहाँ इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शहर के साझा स्थानों को इस्तेमाल तो सभी करना चाहते हैं, उस पर अपना अधिक से अधिक अधिकार का दावा भी सभी करते हैं, लेकिन उस स्थान के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं होता।’’ यह बात आज की नहीं है, सन 1988 की है, जब वैश्विकरण का हल्ला

Environment
पुस्तक विमर्श : हर एक पेड़ जरूरी होता है
Posted on 23 Jul, 2015 09:46 AM

‘‘यह वनस्थली खड़ी है विविध पुष्पचिन्हों से सज्ज्ति हरित साड़ी पहनकर अपने कोमल शरीर पर, अकारण अंकुरित पुलक से सिहरी पक्षियों के कलरव में बारम्बार कहलास करती हुई’’ (मलयालम के महान कवि जी.शंकर कुरूप के काव्य संग्रह ‘औटक्कुशल’ (बाँसुरी) की एक रचना)

Book cover
लोक-विश्वास, टोने-टोटके
Posted on 21 Jul, 2015 12:36 PM अवर्षण से मुक्ति के लिए
सरयू से बागमती तक
Posted on 20 Jul, 2015 02:41 PM भारत और नेपाल की भौगोलिक सीमाएं भले ही अलग हों, मगर उनमें गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक एका है। पवित्र नदियाँ दोनों देश की पहचान है। इसी पहचान को समझने-बुझने के लिए सरयू से बागमती तक का एक यात्रा-वृत प्रस्तुत कर रही हैं उर्मिला शुक्ल।
पर्यावरण हितैषी मकान ‘किफायती’ होते हैं
Posted on 19 Jul, 2015 01:37 PM पर्यावरण हितैषी मकानों के खिलाफ यह बात अक्सर उठाई जाती रही है कि ये
मौसम, मनुष्य और बेईमानी
Posted on 19 Jul, 2015 12:00 PM आज साफ पेयजल की कमी, आनुवंशिक विविधता की कमी, जमीन का कटाव, जंगल की
आपदा : जागरूकता से कम हो सकता है खतरा
Posted on 18 Jul, 2015 12:06 PM

प्राकृतिक आपदाएँ हालाँकि आदिकाल से आती रही हैं लेकिन इधर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के चलते इनकी आवृत्ति बढ़ गई है। आज मानव समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौती इनसे जूझने की है। ऐसा नहीं है कि सरकारों ने इनसे निपटने के लिए उपाय नहीं किए हों लेकिन जब भी ऐसी कोई आपदा आती है, तमाम तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। हमारे देश में भी आपदाओं से निपटने और राहत कार्यों के लिए एक बड़े तन्त्र की स्थापना की गई ह

Disaster management
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