आज साफ पेयजल की कमी, आनुवंशिक विविधता की कमी, जमीन का कटाव, जंगल की समाप्ति, जंगली जीव-जंतुओं का बिखराव, भू-जल स्तर का खिसकते जाना और शहरीकरण के दुष्परिणाम जैसे पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर तुरन्त ध्यान देने की आवश्यकता है। इनको लेकर ठोस और कड़े निर्णय की जरूरत है।पिछले कुछ समय से जिस तरह मौसम की मार मनुष्य पर पड़ने लगी है, उसे देख कर लगता है कि हमने कुदरत के साथ जो बेईमानी की थी उसने अब उसका जवाब देना शुरु कर दिया है। हर महीने मौसम का अलग मिजाज सामने आने लगा है। अगर प्रधानमन्त्री के वाराणसी के दो बार टल चुके दौरे की ही बात करें तो इसमें सबसे बड़ी बेईमानी मौसम की लगती है। प्रधानमन्त्री का मामला है, इसलिए माना जा सकता है कि उनके कार्यक्रम से पहले मौसम वैज्ञानिकों के गुणा-भाग का सहारा भी लिया गया होगा कि उस दौरान बरसात तो नहीं होगी उसके बाद भी अगर बादल मेहरबान हो जाएँ, तो यही कहना पड़ेगा कि मौसम ने प्रकृति के साथ लगातार खिलवाड़ का उत्तर देना शुरु कर दिया है। जुलाई के महीने में कभी बारिश कभी उमस कभी ठंडी हवा और कभी पारा 10 से 12 डिग्री नीचे-ऊपर होना साफ जाहिर करता है कि अब हमें अगली लड़ाई अपने अंदर के मौसम से ही लड़नी पड़ेगी हमारे अंदर का मौसम यानी हमारी लालच की प्रवृत्ति सच्चाई यह है कि अगली लड़ाई अब मनुष्य को प्रगति के अपने मापदंडो के विरुद्ध ही लड़नी पड़ेगी।
मौसम और मनुष्य का बहुत करीबी रिश्ता है मौसम का असर इंसान के दिल और दिमाग पर पड़ता है पर कहीं न कहीं ये आदमी ही तो है, जो मौसम और समाज को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करता रहता है। मनुष्य और उसके समाज का भी एक मौसम होता है, लेकिन एक मौसम है। प्रकृति का, जिसपर चाहे जितनी कोशिश कर ले, मनुष्य का वश नहीं चल सकता। हाँ वह इसे तबाह और बर्बाद कर सकता है, कर भी रहा है। मगर जब प्रकृति अपने रौद्र रूप में आती है तब यही मनुष्य है, जो विलाप करने लगता है। प्राकृतिक आपदा के कारण भारी तबाही का विलाप। जबकि सच यह है कि ये सब आपदायें प्राकृतिक कम और मानव निर्मित अधिक होती हैं। मगर मनुष्य कैसा नादान है कि वह सोचता है कि उसके द्वारा की गई प्रगति और विकास में मौसम पर भी उसकी जीत दर्ज करवा दी है। और अब वह वैज्ञानिकों के सहारे मौसम पर भरपूर काबू पा सकता है। काश, वह केवल इतना सोच लेता कि यह गर्व की नहीं, शर्म की बात है।
अभी कुछ दिनों पहले कश्मीर में ऐसी बाढ़ आई थी कि उसने सब कुछ बहा दिया, लेकिन क्या मनुष्य ने उससे सीख ली। पहाड़ कटना रूका! हरे-भरे जंगलों की तबाही पर रोक लगी! नालों में कचरा और अपनी तमाम शराफत को गन्दगी में लपेटकर फेंकने की आदत समाप्त हुई! झेलम के किनारे के बाँधों पर कब्जा रुका! और सबसे बड़ी बात यह कि मानवता का एक-दूसरे का सहारा बनने का सिलसिला क्या मजबूत हुआ? ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालच और हवस का खेल उसी प्रकार जारी रहा। एक दूसरे को नोचने-खसोटने का काम भी जारी रहा और प्रकृति चूँकि शान्त रहती है, उसको तबाह करने का काम चलता रहा।
केदारनाथ धार्मिक रुप से महत्त्वपूर्ण है। वहाँ की तबाही के बाद ही चेत जाते! कोई ऐसा निर्णय करते कि पहाड़ों का सीना छलनी होने से बच जाता। लेकिन नहीं हो पाया। अब जब बादल घिरते हैं तो चीख-पुकार मचाने लगते हैं सब। यही तो है बेईमानी, जो मौसम की नहीं, बल्कि इंसानों की है। प्रकृति का मतलब है कि जैसा कुदरत का रुप है उसे बनाए रखो। उसकी सहजता के साथ खिलवाड़ मत करो। उसका अपना वजूद है। वह चाहे बारिश की एक बूँद ही क्यों न हो, जिसकी आस में सागर रहता है। कि कब गिरे और मुझसे आ मिले। बूँद को भी सागर में मिलकर फिर बादल बन बरसने की तड़प होती है, जो उसे सागर के पास ले जाती है। बूँद से जो सागर का रिश्ता है। उसी का तो नाम है प्रकृति। प्रकृति का अगर ध्यान रखा जाए तो मौसम की बेईमानी प्रेम रस में डूब जाती है, वरना वह करुणा का सागर बन जाती है। कश्मीर और केदारनाथ ही क्यों, देश के किसी भी विकसित नगर को ले लीजिए, एक दिन की बारिश और हर तरफ हाहाकार। अगर यही विकास है, तो फिर विकास का कोई और फॉर्मूला ढूँढना पड़ेगा।
सब जान चुके हैं कि मौसम में जो अचानक बदलाव आ रहा है वह मनुष्य की प्रगति की गति के कारण है। आज पूरा विश्व तापमान वृद्धि का शिकार है। दुनिया में कई देशों में प्रकृति का कहर जारी है। पहाड़ चीख-चीखकर कह रहे हैं कि हमारे सीने पर भारी-भरकम मोटरगाड़ियाँ दिन-रात मत दौराओं। हमें इनकी कंपकंपाहट से टूटन का अहसास होने लगता है। इनकी रफ्तार से हम टूटकर बिखर जाएँगे। पहले ही तुमने वृक्षों को काटकर अपने घर भरने का सामान कर लिया है। वैसे भी हमारी मिट्टी खिसकने लगी है। पहाड़ बेचैन हैं, तो नदियाँ भी उफान पर आकर कह रही हैं कि हममें इतना प्रदूषण न उगलो कि हम कहीं अपना अस्तित्व ही न खो बैठें।
सब कुछ बेचैनी भरा है। बादल फट रहे हैं। बर्फ के पहाड़ बहने लगे हैं। रेगिस्तानों में बाढ़ आ रही है। सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है। मनुष्य ने सिर नीचे और पैर उपर करके प्रकृति को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की और आज अपनी ही उलटी गिनती शुरु हो चुकी है। ऐसे में यह निर्णय करना है कि इस तबाही को बाजार बनाया जाए या फिर इसमें सुधार लाया जाए। फिलहाल तो यह तबाही भी उसी प्रकार बाजार है, जैसे विकास। रहते हैं दिल्ली में जहाँ साँस लेने तक का समय नहीं, मगर पहाड़ों पर भी एक फ्लैट खरीद लिया है कि कभी छुट्टियों में आए-जाएँगे, चाहे उसमें ताला लगा रहे। मगर छुट्टी कहाँ से मिलेगी, जब छुट्टी ही हो जाएगी! उसी लालच और हवस के चलते बड़े नगरों से सटे इलाकों में नए बने आधे से अधिक मकानों में ताले पड़े हैं, क्योंकि इन्हें रहने के लिए नहीं, निवेश के लिए खरीदा गया है, बढ़ाते रहो धरती पर बोझ। कल धरती बोझ उतारेगी तो सब पता चल जायेगा! पर्यावरण संरक्षण, जो मानव धर्म का बुनियादी हिस्सा है, आज उसी को मानवजाति से खतरा है।
आज साफ पेयजल की कमी, आनुवंशिक विविधता की कमी, जमीन का कटाव, जंगल की समाप्ति, जंगली जीव-जंतुओं का बिखराव, भू-जल स्तर का खिसकते जाना और शहरीकरण के दुष्परिणाम जैसे पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर तुरन्त ध्यान देने की आवश्यकता है। इनको लेकर ठोस और कड़े निर्णय की जरूरत है। मगर आदमी बड़ा बेईमान और चालबाज है, इसलिए लगता नहीं कि वह जिस तेजी से विकास के नाम पर विनाश को हवा दे रहा है उसी तेजी से वह पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे बढ़ेगा।
ईमेल : drsyedmubinzehra@gmail.com
मौसम और मनुष्य का बहुत करीबी रिश्ता है मौसम का असर इंसान के दिल और दिमाग पर पड़ता है पर कहीं न कहीं ये आदमी ही तो है, जो मौसम और समाज को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करता रहता है। मनुष्य और उसके समाज का भी एक मौसम होता है, लेकिन एक मौसम है। प्रकृति का, जिसपर चाहे जितनी कोशिश कर ले, मनुष्य का वश नहीं चल सकता। हाँ वह इसे तबाह और बर्बाद कर सकता है, कर भी रहा है। मगर जब प्रकृति अपने रौद्र रूप में आती है तब यही मनुष्य है, जो विलाप करने लगता है। प्राकृतिक आपदा के कारण भारी तबाही का विलाप। जबकि सच यह है कि ये सब आपदायें प्राकृतिक कम और मानव निर्मित अधिक होती हैं। मगर मनुष्य कैसा नादान है कि वह सोचता है कि उसके द्वारा की गई प्रगति और विकास में मौसम पर भी उसकी जीत दर्ज करवा दी है। और अब वह वैज्ञानिकों के सहारे मौसम पर भरपूर काबू पा सकता है। काश, वह केवल इतना सोच लेता कि यह गर्व की नहीं, शर्म की बात है।
अभी कुछ दिनों पहले कश्मीर में ऐसी बाढ़ आई थी कि उसने सब कुछ बहा दिया, लेकिन क्या मनुष्य ने उससे सीख ली। पहाड़ कटना रूका! हरे-भरे जंगलों की तबाही पर रोक लगी! नालों में कचरा और अपनी तमाम शराफत को गन्दगी में लपेटकर फेंकने की आदत समाप्त हुई! झेलम के किनारे के बाँधों पर कब्जा रुका! और सबसे बड़ी बात यह कि मानवता का एक-दूसरे का सहारा बनने का सिलसिला क्या मजबूत हुआ? ऐसा कुछ नहीं हुआ। लालच और हवस का खेल उसी प्रकार जारी रहा। एक दूसरे को नोचने-खसोटने का काम भी जारी रहा और प्रकृति चूँकि शान्त रहती है, उसको तबाह करने का काम चलता रहा।
केदारनाथ धार्मिक रुप से महत्त्वपूर्ण है। वहाँ की तबाही के बाद ही चेत जाते! कोई ऐसा निर्णय करते कि पहाड़ों का सीना छलनी होने से बच जाता। लेकिन नहीं हो पाया। अब जब बादल घिरते हैं तो चीख-पुकार मचाने लगते हैं सब। यही तो है बेईमानी, जो मौसम की नहीं, बल्कि इंसानों की है। प्रकृति का मतलब है कि जैसा कुदरत का रुप है उसे बनाए रखो। उसकी सहजता के साथ खिलवाड़ मत करो। उसका अपना वजूद है। वह चाहे बारिश की एक बूँद ही क्यों न हो, जिसकी आस में सागर रहता है। कि कब गिरे और मुझसे आ मिले। बूँद को भी सागर में मिलकर फिर बादल बन बरसने की तड़प होती है, जो उसे सागर के पास ले जाती है। बूँद से जो सागर का रिश्ता है। उसी का तो नाम है प्रकृति। प्रकृति का अगर ध्यान रखा जाए तो मौसम की बेईमानी प्रेम रस में डूब जाती है, वरना वह करुणा का सागर बन जाती है। कश्मीर और केदारनाथ ही क्यों, देश के किसी भी विकसित नगर को ले लीजिए, एक दिन की बारिश और हर तरफ हाहाकार। अगर यही विकास है, तो फिर विकास का कोई और फॉर्मूला ढूँढना पड़ेगा।
सब जान चुके हैं कि मौसम में जो अचानक बदलाव आ रहा है वह मनुष्य की प्रगति की गति के कारण है। आज पूरा विश्व तापमान वृद्धि का शिकार है। दुनिया में कई देशों में प्रकृति का कहर जारी है। पहाड़ चीख-चीखकर कह रहे हैं कि हमारे सीने पर भारी-भरकम मोटरगाड़ियाँ दिन-रात मत दौराओं। हमें इनकी कंपकंपाहट से टूटन का अहसास होने लगता है। इनकी रफ्तार से हम टूटकर बिखर जाएँगे। पहले ही तुमने वृक्षों को काटकर अपने घर भरने का सामान कर लिया है। वैसे भी हमारी मिट्टी खिसकने लगी है। पहाड़ बेचैन हैं, तो नदियाँ भी उफान पर आकर कह रही हैं कि हममें इतना प्रदूषण न उगलो कि हम कहीं अपना अस्तित्व ही न खो बैठें।
सब कुछ बेचैनी भरा है। बादल फट रहे हैं। बर्फ के पहाड़ बहने लगे हैं। रेगिस्तानों में बाढ़ आ रही है। सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है। मनुष्य ने सिर नीचे और पैर उपर करके प्रकृति को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की और आज अपनी ही उलटी गिनती शुरु हो चुकी है। ऐसे में यह निर्णय करना है कि इस तबाही को बाजार बनाया जाए या फिर इसमें सुधार लाया जाए। फिलहाल तो यह तबाही भी उसी प्रकार बाजार है, जैसे विकास। रहते हैं दिल्ली में जहाँ साँस लेने तक का समय नहीं, मगर पहाड़ों पर भी एक फ्लैट खरीद लिया है कि कभी छुट्टियों में आए-जाएँगे, चाहे उसमें ताला लगा रहे। मगर छुट्टी कहाँ से मिलेगी, जब छुट्टी ही हो जाएगी! उसी लालच और हवस के चलते बड़े नगरों से सटे इलाकों में नए बने आधे से अधिक मकानों में ताले पड़े हैं, क्योंकि इन्हें रहने के लिए नहीं, निवेश के लिए खरीदा गया है, बढ़ाते रहो धरती पर बोझ। कल धरती बोझ उतारेगी तो सब पता चल जायेगा! पर्यावरण संरक्षण, जो मानव धर्म का बुनियादी हिस्सा है, आज उसी को मानवजाति से खतरा है।
आज साफ पेयजल की कमी, आनुवंशिक विविधता की कमी, जमीन का कटाव, जंगल की समाप्ति, जंगली जीव-जंतुओं का बिखराव, भू-जल स्तर का खिसकते जाना और शहरीकरण के दुष्परिणाम जैसे पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों पर तुरन्त ध्यान देने की आवश्यकता है। इनको लेकर ठोस और कड़े निर्णय की जरूरत है। मगर आदमी बड़ा बेईमान और चालबाज है, इसलिए लगता नहीं कि वह जिस तेजी से विकास के नाम पर विनाश को हवा दे रहा है उसी तेजी से वह पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे बढ़ेगा।
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