पंकज चतुर्वेदी

पंकज चतुर्वेदी
...तो क्या हमारे पास ज़मीन की कमी है
Posted on 15 Jan, 2015 12:52 PM
रासायनिक खादों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिग
barren land
कीटनाशक बने मानवनाशक
Posted on 04 Jan, 2015 03:57 PM
वैसे तो नोएडा की पहचान एक उभरते हुए विकसित इलाके के तौर पर है लेकिन यहाँ के कई गाँव वहाँ रच-बस चुकी कैंसर की बीमारी के कारण जाने जाते हैं। अच्छेजा गाँव में बीते पाँच साल में दस लोग इस असाध्य बीमारी से असामयिक काल के गाल में समा चुके हैं। अब अच्छेजा व ऐसे ही कई गाँवों में लोग अपना रोटी-बेटी का नाता भी नहीं रखते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश का दोआब इ
pesticide
और किशोर सागर बन गया ‘बूढ़ा नाबदान’
Posted on 19 Dec, 2014 10:04 AM

कलम और तलवार दोनों के समान धनी महाराज छत्रसाल ने सन् 1907 में जब छतरपुर शहर की स्थापना की थी तो यह वेनिस की तरह हुआ करता थ। चारों तरफ घने जंगलों वाली पहाड़ियों और बारिश के दिनों में वहाँ से बहकर आने वाले पानी की हर बूँद को सहजेने वाले तालाब, तालाबों के बीच से सड़क व उसके किनारे बस्तियाँ।

सन् 1908 में ही इस शहर को नगरपलिका का दर्जा मिल गया था। आसपास के एक दर्जन जिले बेहद पिछड़े थे से व्यापार, खरीदारी, सुरक्षित आवास जैसे सभी कारणों के लिए लोग यहाँ आकर बसने लगे।

आजादी मिलने के बाद तो यहाँ का बाशिन्दा होना गर्व की बात कहा जाने लगा। लेकिन इस शहरीय विस्तार के बीच धीरे-धीरे यहाँ की खूबसूरती, नैसर्गिकता और पर्यावरण में सेंध लगने लगी।

<i>खत्म होने के कगार पर किशोर सागर तालाब</i>
समुद्री चिड़िया ने उजाड़े घरौंदे
Posted on 04 Dec, 2014 01:05 PM
शिलान्यास के बाद ही यह परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई थी। 1995 में
sea
किनारों को खाते समुद्र
Posted on 04 Dec, 2014 12:10 PM
देश के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, केरल, और तमिलनाडु में समुद्र तट पर हजारों गांवों पर इन दिनों सागर की अथाह लहरों का आतंक मंडरा रहा है। समुद्र की तेज लहरें तट को काट देती हैं और देखते-ही-देखते आबादी के स्थान पर नीले समुद्र का कब्जा हो जाता है। किनारे की बस्तियों में रहने वाले मछुआरे अपनी झोपड़ियां और पीछे कर लेते हैं।
Mangrove
गागर में सिमटता सागर का सागर
Posted on 28 Nov, 2014 01:12 PM
अपने नाम के अनुरूप एक विशाल झील है इस शहर में। कुछ सदी पहले जब यह झील गढ़ी गई होगी तब इसका उद्देश्य जीवन देना हुआ करता था। वही सरोवर आज शहर भर के लिए जानलेवा बीमारियों की देन होकर रह गया है। हर साल इसकी लंबाई, चौड़ाई और गहराई घटती जा रही है। कोई भी चुनाव हो हर पार्टी का नेता वोट कबाड़ने के लिए इस तालाब के कायाकल्प के बड़े-बड़े वादे करता है।

सरकारें बदलने के साथ ही करोड़ों की योजनाएं बनती और बिगड़ती है। यदाकदा कुछ काम भी होता है, पर वह इस मरती हुई झील को जीवन देने के बनिस्पत सौंदर्यीकरण का होता है। फिर कहीं वित्तीय संकट आड़े आ जाता है तो कभी तकनीकी व्यवधान। हार कर लोगों ने इसकी दुर्गति पर सोचना ही बंद कर दिया है।
Sagar Jhil
संकट नहीं है सूखा : सूखे से मुकाबला
Posted on 24 Nov, 2014 01:04 PM
आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादों में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गर्मी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है।

भारत की अर्थ-व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है।
Talab
संपन्न बस्तर की विपन्न कहानी
Posted on 16 Nov, 2014 07:51 PM
लंबे वक्त से बस्तर नक्सली हिंसा, प्राकृतिक संपदा और आदिवासी संस्कृति की वजह से सुर्खियों में रहा है। लेकिन वहां की गरीबी, बीमारी और बदहाली पर अक्सर चर्चा नहीं होती। बस्तर के लोग मौसम को भी बीमारियों के नाम से बुलाते हैं। इस इलाके के जन-जीवन के बारे में बता रहे हैं पंकज चतुर्वेदी।
pankaj chaturvedi
बाढ़ की डूब से उबर नहीं पाती है असम की अर्थव्यवस्था
Posted on 16 Nov, 2014 04:24 PM

बाढ़ की डूब से उबर नहीं पाती है असम की अर्थव्यवस्था असम की आबादी हर साल बाढ़ की चपेट में मई मही

Badh
चुनाव से पहले दिल्ली की जल कुंडली भी बांच लो
Posted on 08 Nov, 2014 01:48 PM

दिल्ली की पिछली 49 दिन वाली सरकार उम्मीदों के जिस रथ पर सवार होकर आई थी उसमें सबसे ज्यादा प्यासा अश्व ‘‘जल’’ का ही है- हर घर को हर दिन सात सौ लीटर पानी, वह भी मुफ्त। उसकी घोषणा भी हो गई थी लेकिन उसकी हकीकत क्या रही? कहने की जरूरत नहीं है। दिल्ली एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है और जाहिर है कि सभी राजनीतिक दल बिजली, पानी के वायदे हवा में उछालेंगे। जरा उन उम्मीदों पर एतबार करने से पहले यह भी जानना जरूरी है कि इस महानगर में पानी की उपलब्धता क्या सभी के कंठ तर करने में सक्षम है भी कि नहीं।

दिल्ली में तेजी से बढ़ती आबदी और यहां विकास की जरूरतों, महानगर में अपने पानी की अनुपलब्धता को देखें तो साफ हो जाता है कि पानी के मुफ्त वितरण का यह तरीका ना तो व्यावहारिक है, ना ही नीतिगत सही और ना ही नैतिक। यह विडंबना ही है कि अब हर राज्य सरकार सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कुछ-ना-कुछ मुफ्त बांटने के शिगूफे छोड़ती है जबकि बिजली-पानी को बांटने या इसके कर्ज माफ करने के प्रयोग अभी तक सभी राज्यों में असफल ही रहे हैं।

<i>दिल्ली जलबोर्ड</i>
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