कलम और तलवार दोनों के समान धनी महाराज छत्रसाल ने सन् 1907 में जब छतरपुर शहर की स्थापना की थी तो यह वेनिस की तरह हुआ करता थ। चारों तरफ घने जंगलों वाली पहाड़ियों और बारिश के दिनों में वहाँ से बहकर आने वाले पानी की हर बूँद को सहजेने वाले तालाब, तालाबों के बीच से सड़क व उसके किनारे बस्तियाँ।
सन् 1908 में ही इस शहर को नगरपलिका का दर्जा मिल गया था। आसपास के एक दर्जन जिले बेहद पिछड़े थे से व्यापार, खरीदारी, सुरक्षित आवास जैसे सभी कारणों के लिए लोग यहाँ आकर बसने लगे।
आजादी मिलने के बाद तो यहाँ का बाशिन्दा होना गर्व की बात कहा जाने लगा। लेकिन इस शहरीय विस्तार के बीच धीरे-धीरे यहाँ की खूबसूरती, नैसर्गिकता और पर्यावरण में सेंध लगने लगी।जिस तालाब की लहरें कभी आज के छत्रसाल चौराहे से महल के पीछे तक और बसोरयाना से आकाशवाणी तक उछाल मारती थीं, वहाँ अब गन्दगी, कंक्रीट के जंगल और बदबू रह गई है।
भले ही मामला राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के सामने है, लेकिन यह तय है कि पूरे साल पानी के लिए कराहते छतरपुर शहर को अपने सबसे बड़े व नए ‘‘किशोर सागर’ की दुर्गति करने का खामियाजा तो भुगतना ही पड़ेगा।
बुन्देलखण्ड का मिजाज है कि हर पाँच साल में दो बार कम बारिश होगी ही, इसके बावजूद अस्सी के दशक तो छतरपुर शहर में पानी का संकट नहीं था। इस बीच यहाँ बाहर से आने वाले लोगों की बाढ़ आ गई। उनकी बसाहट और व्यापार के लिए जमीन की कमी आई तो शहर के दर्जन भर तालाबों के किनारों पर लोगों ने कब्जे शुरू कर दिए। उन दिनों तो लोगों को लगा था कि पानी की आपूर्ति नल या हैण्डपम्प से होती है।
जब लोगों को समझ आया कि नल या भूजल का अस्तित्व तो उन्हीं तालाबों पर निर्भर है जिन्हे वे हड़प गए हैं, बहुत देर हो चुकी थी। किशोर सागर कानपुर से सागर जाने वाले राजमार्ग पर है, उसके आसपास नया छतरपुर बसना शुरू हुआ था, सो किशोर सागर पर मकान, दुकान, बाजार, मॉल, बैक्वेट सभी कुछ बना दिए गए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह से कब्जे करने वालों में अधिकांश रसूखदार लोग ही है।
अभी कुछ सालों में बारिश के दौरान वहाँ बनी कालोनी के घरों में पानी भरने की दिक्कतें आनी शुरू हुईं। कुछ लोगों ने प्रशासन को कोसना भी शुरू किया, उन्हें पता नहीं था कि तालाब उनके घर में नहीं, बल्कि वे तालाब में घुसे बैठे हैं। बीच-बीच में कुछ शिकायतें होती रहीं, कई बार जाँच भी हुईं लेकिन हर बार भूमाफिया, राजस्व अफसर साँठ-गाँठ कर ऐसे दस्तावेज सामने रखते कि छतरपुर के सरकारी स्कूल से कर अस्पताल तक तो तालाब पर अवैध कब्जे दिखते, लेकिन वहाँ जल निधि के बीच बने घर और दुकानें निरापद रहते।
किशोर सागर के बन्दोबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन् 1939-40 से लेकर सन् 1951-52 तक खसरा नम्बर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। सन् 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया।
आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़कर तालाब को किसी की सम्पत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहाँ की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहाँ का कई साल का बन्दोबस्त बाबत् पटवारी का रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है।
यह बात हमारे संविधान के मूल कर्तव्यों में दर्ज है, सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में समय-समय पर कहती रही है, पर्यावरण मन्त्रालय के दिशा निर्देश भी हैं और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश भी कि - किसी भी नाले, नदी या तालाब, नहर, वन क्षेत्र जो कि पर्यावरण को सन्तुलित करने का काम करते हैं, वहाँ किसी भी तरह का पक्का निर्माण नहीं किया जा सकता।
किशोर सागर के बन्दोबस्त रिकार्ड के मुताबिक सन् 1939-40 से लेकर सन् 1951-52 तक खसरा नम्बर 3087 पर इसका रकबा 8.20 एकड़ था। सन् 1952-53 में इसके कोई चौथाई हिस्से को कुछ लोगों ने अपने नाम करवा लिया। आज पता चल रहा है कि उसकी कोई स्वीकृति थी ही नहीं, वह तो बस रिकार्ड में गड़बड़ कर तालाब को किसी की सम्पत्ति बना दिया गया था। उन दिनों यह इलाका शहर से बाहर निर्जन था और किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि आने वाले दिनों में यहाँ की जमीन सोने के भाव होगी। अब तो वहां का कई साल का बन्दोबस्त बाबत् पटवारी का रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है।
यही ही नहीं ऐसी जल-निधियों के जल ग्रहण क्षेत्र या कैचमेण्ट एरिया के चारों ओर चालीस फुट दायरे में भी कोई निर्माण नहीं हो सकता। किशोर सागर में तो निर्माण कर उसे डेढ़ एकड़ में समेट दिया गया। मामला ग्रीन ट्रिब्यूनल की भोपाल शाखा में गया। चूँकि इसमें घपलों, गड़बड़ियों की अनन्त शृंखलाएँ हैं, सो सही स्थिति जानने में कई बाधाएँ आईं। यही नहीं ट्रिब्यूनल कलेक्ट के खिलाफ गैर जमानती वारण्ट भी जारी कर चुका है।
भू-अभिलेख कार्यालय, ग्वालियर ने सेटेलाईट व अत्याधुनिक तकनीक वाली टीएसएम से तालाब के असली रकबे की जाँच हुई। उसके बाद 07 अगस्त 2014 को एनजीटी की भोपाल बेंच के न्यायमूर्ति दलीप सिंह ने विस्तृत आर्डर जारी कर 1978 के बाद निर्मित तथा तालाब के मूल स्वरूप के जलग्रहण क्षेत्र से नौ मीटर भीतर के सभी निर्माण गिराने, तालाब के आसपास हरियाली विकसित करने के आदेश दिए।
जब जमीन की लूट में सब शामिल हों तो तालाब की नपाई, गिराए जाने वाले मकानों को तय करने में रोड़े तो अटकाए जाने ही हैं। 11 बार नाप जोख होने के बावजूद भी अभी तक धरातल पर तालाब नहीं उभर पाया है। चूँकि अब तालाब पर सैंकड़ों मकान बन गए हैं सो यह मानवीय, सियासती मुद्दा भी बन गया है।
किशोर सागर तो एक बानगी मात्र है- छतरपुर शहर के दो दर्जन, जिले के हजार, बुन्देलखण्ड के बीस हजार और देश भर के कई लाख तालाबों की त्रासदी लगभग इसी तरह की है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे।
एक आँकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। तब पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए।
देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पाँच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी-न-किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केन्द्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोंद्धार (आर आर आर) के लिए योजना बनाई।
ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केन्द्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत् इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं।
भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपए में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबन्दी ने देश को तालाबविहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आँकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपए खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।
जरा अपने आसपास देखें, ना जाने कितने किशोर सागर समय से पहले मरते दिख रहे होंगे, असल में ये तालाब नहीं मर रहे हैं, हम अपने आने वाले दिनों की प्यास को बढ़ा रहे है, जल संकट को बढ़ा रहे हैं, धरती के तापमान को बढ़ा रहे हैं।
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