पंकज चतुर्वेदी
आखिर कहाँ जाता है परमाणु बिजली घरों का कचरा
Posted on 17 Mar, 2015 04:01 PMभारत में हर साल भारी मात्रा में निकलने वाले ऐसे कचरे को हिमालय पर्वखेत को आस्था का विषय बनाएँ
Posted on 16 Mar, 2015 04:30 PMचीन में खेती की विकास की सालाना दर 7 से 9 प्रतिशत है, जबकि भारत मेंकूड़ा ढोने का मार्ग बन गई हैं नदियाँ
Posted on 16 Mar, 2015 12:45 PMविश्व जल दिवस पर विशेष
अब सुनने में आया है कि लखनऊ में शामे अवध की शान गोमती नदी को लन्दन की टेम्स नदी की तरह सँवारा जाएगा। महानगर में आठ किलोमीटर के बहाव मार्ग को घाघरा और शारदा नहर से जोड़कर नदी को सदानीरा बनाया जाएगा। साथ ही इसके सभी घाट व तटों को चमकाया जाएगा। इस पर खर्च आएगा ‘महज’ छह सौ करोड़।
लुप्त होती पारम्परिक जल-प्रणालियाँ
Posted on 26 Feb, 2015 12:22 PM यह देश-दुनिया जब से है तब से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्षा, मरूस्थल, जैसी विषमताएँ प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों-पिण्डों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर जल-विपदा का समाधान रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आँगन, गाँव के पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएँ गायब हुए हैं।संकट में पहाड़
Posted on 25 Feb, 2015 02:15 PMदेश में सरकार को हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकोंयमुना की वजह से संकट में ताज
Posted on 03 Feb, 2015 12:57 PMआगरा का ताजमहल अब केवल एक ऐतिहासिक इमारत, या दुनिया के सात अजूबों में से एक ही नहीं रह गया है, प्रेम की यह निशानी अब भारत की राजनयिक सम्बन्धों की मिलन स्थली बन गया है। पिछले महीने भारत आए अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा भी वहाँ जाना चाहते थे। इससे पहले कई देशों के ताकतवर राष्ट्राध्यक्ष वहाँ जा चुके हैं।पुस्तकें समाज भी बदलती हैं और भूगोल भी
Posted on 01 Feb, 2015 04:07 PM तो क्या पुस्तकें केवल ज्ञान प्रदान करती हैं? इसके अलावा और क्या करती हैं? यह सवाल अक्सर कुछ लोग पूछते रहते हैं। यदि दो पुस्तकों का जिक्र कर दिया जाए तो समझ में आता है कि पुस्तकें केवल पठन सामग्री या विचार की खुराक मात्र नहीं है, ये समाज, सरकार को बदलने और यहाँ तक कि भूगोल बदलने का भी जज्बा रखती हैं।
जब गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ को छापा था तो यह एक शोधपरक पुस्तक मात्र थी और आज 20 साल बाद यह एक आन्दोलन, प्रेरणा पुंज और बदलाव का माध्यम बन चुकी है। इसकी कई लाख प्रतियाँ अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाशकों ने छाप लीं, अपने मन से कई भाषाओं में अनुवाद भी कर दिए, कई सरकारी संस्थाओं ने इसे वितरित करवाया, स्वयंसेवी संस्थाएँ सतत् इसे लोगों तक पहुँचा रही हैं।
परिणाम सामने हैं जो समाज व सरकार अपने आँखों के सामने सिमटते तालाबों के प्रति बेखबर थे, अब उसे बचाने, सहेजने और समृद्ध करने के लिए आगे आ रहे हैं।
पानी एक-रूप अनेक
Posted on 24 Jan, 2015 04:49 PM ‘‘पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा- जिसमें मिला दो लगे उस जैसा।’’ जल और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के हर कोने में प्रत्येक जीव-जन्तु, वनस्पति में पानी अत्यावश्यक घटक है। पानी जीवन का आधार है। आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 90 प्रतिशत पानी है। मानव शरीर में 70 फीसदी से अधिक पानी रहता है। जो साग, फल हम खाते हैं उसका भी बड़ा हिस्सा पानी है। यहाँ-वहाँपानीदार समाज
Posted on 24 Jan, 2015 12:05 PMभारत का बड़ा हिस्सा पानी के मामले में दूभर माना जाता है। विशेष रूप से राजस्थान, गुजरात का सौराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश का रायलसीमा, महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, मध्य प्रदेश का बुन्देलखण्ड, कनार्टक का कुर्ग क्षेत्र लगभग प्रत्येक तीन वर्ष में एक बार अल्प वर्षा व चार वर्ष में एक बार अति वर्षा से जूझता है।
मरूभूमि की प्यास को झुठलाते पारम्परिक जल साधन
Posted on 18 Jan, 2015 11:32 AM‘राजस्थान’ देश का सबसे बड़ा दूसरा राज्य है परन्तु जल के फल में इसका स्थान अन्तिम है। यहाँ औसत वर्षा 60 सेण्टीमीटर है जबकि देश के लिए यह आँकड़ा 110 सेमी है। लेकिन इन आँकड़ों से राज्य की जल कुण्डली नहीं बाची जा सकती। राज्य के एक छोर से दूसरे तक बारिश असमान रहती है, कहीं 100 सेमी तो कहीं 25 सेमी तो कहीं 10 सेमी तक भी।
यदि कुछ सालों की अतिवृष्टि को छोड़ दें तो चुरू, बीकानेर, जैलमेर, बाड़मेर, श्रीगंगानगर, जोधपुर आदि में साल में 10 सेमी से भी कम पानी बरसता है। दिल्ली में 150 सेमी से ज्यादा पानी गिरता है, यहाँ यमुना बहती है, सत्ता का केन्द्र है और यहाँ पूरे साल पानी की मारा-मारी रहती है, वहीं रेतीले राजस्थान में पानी की जगह सूरज की तपन बरसती है।