बाढ़ की डूब से उबर नहीं पाती है असम की अर्थव्यवस्था असम की आबादी हर साल बाढ़ की चपेट में मई महीने में आ जाती है इसका प्रकोप उतरते-उतरते सितंबर बीत जाता है। इस राज्य के 14 जिलों में हर साल लगभग 200 करोड़ रुपये का नुकसान हो जाता है। इस नुकसान की भरपाई के लिए कसरत करने की बजाय सरकारी अमला मुआवजे और राहत सामग्री बांटने की रस्मअदायगी में ज्यादा व्यस्त दिखता है।
पूर्वोत्तर के असम राज्य के 14 जिले भी तीन महीने पूरी तरह बाढ़ की चपेट में रहे और कमोबेश यही स्थिति वहां हर साल प्रकट होती रहती है। हर साल नदियों में आने वाली बाढ़ की विभीषिका की वजह से राज्य का लगभग 40 फीसदी हिस्सा पस्त सा रहता है।एक अनुमान के अनुसार इससे हर साल जानमाल की लगभग 200 करोड़ रुपये का क्षति होती है। राज्य में एक साल के नुकसान के बाद सिर्फ मूलभूत सुविधाएं खड़ी करने में ही दस साल से ज्यादा का समय लग जाता है जबकि नुकसान का सिलसिला हर साल जारी रहता है। इसका मतलब यह हुआ कि असम हर साल विकास की राह में 19 साल पीछे चला जाता है।
केंद्र और राज्य की सरकारें बाढ़ के बाद मुआवजा बांटने में तत्परता दीखाती है। यह दुखद ही है कि आजादी के लगभग 67 साल बाद भी हम राज्य के लिए बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राशि को जोड़े तो पाएंगे कि इतनी धनराशि में एक नया और सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।
नीतियां ऐसी बनें कि बाढ़ और कर्ज से उबर सके किसान
असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्मपुत्र और बराक नदियां और उनकी लगभग 48 सहायक नदियां और उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थव्यवस्था का मूलाधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हेक्टेयर में खड़ी फसल को नष्ट कर देता है।
ऐसे में यहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और यह कि ब्रह्मपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा लगातार और तेजी से बदलती रहती है। परिणामस्वरूप भूमि का कटाव, उपजाऊ जमीन के क्षरण से नुकसान बड़े पैमाने पर होता रहता है।
बाढ़ के साथ भूकंप से भी नुकसान
यह क्षेत्र भूकंपग्रस्त है और यहां हल्के-फुल्के झटके अक्सर महसूस किए जाते हैं। भूकंप की वजह से जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसो, दालें व गन्ना हैं।
धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहां धान की खेती का 92 प्रतिशत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिस्सा हर साल बाढ़ में धुल जाता है।
माजुली को भी झेलना पड़ता है नुकसान
असम में मई से लेकर सितंबर तक बाढ़ रहती है और इसकी चपेट में तीन से पांच लाख हेक्टेयर खेत आते हैं । हालांकि खेती के तरीकों में बदलाव और जंगलों का बेतरतीब दोहन जैसी मानव-निर्मित दुर्घटनाओं ने जमीन के नुकसान के खतरे का दुगना कर दिया है।
दुनिया में नदियों पर बने सबसे बड़े द्वीप माजुली पर नदी के बहाव के कारण जमीन कटान का सबसे अधिक असर पड़ा है। बाढ़ का असर यहां के वनों व वन्य जीवों पर भी पड़ता है। हर साल कांजीरंगा व अन्य संरक्षित वनों में गैंडा जैसे संरक्षित जानवर भी मारे जाते हैं, वहीं दूसरी ओर इससे पेड़-पौधों को बड़े पैमाने पर नुकसान होता है।
बांधों में दरारें पड़ चुकी हैं
राज्य में नदी पर बनाए गए अधिकांश तटबंध व बांध 60 के दशक में बनाए गए थे। अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं। उनमें गाद भी जमा हो गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं।
पिछले साल पहली बारिश के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे। इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही शामिल होते हैं।
मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं। उनका गांव तो बच जाता है लेकिन दूसरी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं। बराक नदी गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है।
इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।
राहत के नाम पर रस्म अदायगी
हर साल की तरह इस बार भी सरकारी अमले बाढ़ से तबाही होने के बाद राहत सामग्री बांटने के कागज भरने में जुट गए हैं। विडंबना ही हैं कि राज्य में राहत सामग्री बांटने के लिए किसी बजट की कमी नहीं हैं, पर बाढ़ रोकने के लिए पैसे का टोटा है।
बाढ़ नियंत्रण विभाग का सालाना बजट महज सात करोड़ है, जिसमें से वेतन आदि बांटने के बाद बाढ़ नियंत्रण के लिए बमुश्किल एक करोड़ बचता है। जबकि मौजूदा मेढ़ों व बांधों की सालाना मरम्मत के लिए कम से कम 70 करोड़ चाहिए। यहां बताना जरूरी है कि राजय सरकार द्वारा अभी तक इससे अधिक की राहत सामग्री बांटने का दावा किया जा रहा है।
ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी। बोर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी।
केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा है और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देश के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से हैं। इन महकमों नेेे इस दिशा में अभी तक क्या कुछ किया? उससे कागज व आंकड़ों को जरूर संतुष्टि हो सकती है, असम के आम लेागों तक तो उनका काम पहुंचा नहीं हैं।
असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध व तटबंधों की सफाई, नए बांधों को निर्माण जरूरी हैं। लेकिन सियासती खींचतान के चलते जहां जनता ब्रह्मपुत्र की लहरों के कहर को अपनी नियति मान बैठी है, वहीं नेतागण एकदूसरे को आरोप के गोते खिलवाने की मशक्कत में व्यस्त हो गए हैं । हां, राहत सामग्री की खरीद और उसके वितरण के सच्चे-झूठे कागज भरने के खेल में उनकी प्राथमिकता बरकारार हैं।
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Post By: Shivendra