अपने नाम के अनुरूप एक विशाल झील है इस शहर में। कुछ सदी पहले जब यह झील गढ़ी गई होगी तब इसका उद्देश्य जीवन देना हुआ करता था। वही सरोवर आज शहर भर के लिए जानलेवा बीमारियों की देन होकर रह गया है। हर साल इसकी लंबाई, चौड़ाई और गहराई घटती जा रही है। कोई भी चुनाव हो हर पार्टी का नेता वोट कबाड़ने के लिए इस तालाब के कायाकल्प के बड़े-बड़े वादे करता है।
सरकारें बदलने के साथ ही करोड़ों की योजनाएं बनती और बिगड़ती है। यदाकदा कुछ काम भी होता है, पर वह इस मरती हुई झील को जीवन देने के बनिस्पत सौंदर्यीकरण का होता है। फिर कहीं वित्तीय संकट आड़े आ जाता है तो कभी तकनीकी व्यवधान। हार कर लोगों ने इसकी दुर्गति पर सोचना ही बंद कर दिया है।
तालाब के बिगड़ते हाल पर 11 लोगों को पीएचडी अवार्ड हो चुकी है, पर ‘सागर’ का दर्द लाइलाज है। विडंबना है कि ‘सागर’ में अभी से सूखा है, जबकि अगली बारिश को आने में लगभग तीन महीने हैं। मध्य प्रदेश शासन ने इस सूखाग्रस्त इलाके में जल-व्यवस्था के लिए हाल ही में करोड़ों रुपए मंजूर किए हैं। इन दिनों सागर नगर निगम की किन्नर महापौर कमला बुआ झील की सफाई के लिए जन जागरण कर रही हैं। कुछ लोग आकर किनारों से गंदगी भी साफ कर रहे हैं, लेकिन इससे झील की सेहत सुधरने की संभावना बेहद कम है।
बुदेलखंड की सदियों पुरानी तालाबों की अद्भुत तकनीकी की बानगियों में से एक सागर की झील कभी 600 हेक्टेयर क्षेेत्रफल और 60 मीटर गहरी जल की अथाह क्षमता वाली हुआ करती थी । 1961 के सरकारी गजट में इसका क्षेत्रफल 400 एकड़ दर्ज है। आज यह सिमट कर महज 80 हेक्टेयर ही रह गई है। और पानी तो उससे भी आधे में है। बकाया में खेती होने लगी है और पानी की गहराई तो 20 फीट भी बमुश्किल होगी।
मौजूदा कैचमेंट एरिया 14.10 वर्ग किमी है । 1931 का गजेटियर गवाह है कि इस विशाल झील का अधिकतर हिस्सा सागर के शहरीकरण की चपेट में आ गया है। रिकार्ड मुताबिक मदारचिल्ला, परकोटा, खुशीपुरा, जैसे घने मुहल्ले और यूटीआई ग्राउंड आदि इसी तालाब को सुखा कर बसे हैं।
किवदंतिया हैं कि 11वीं सदी में लाखा नामक बंजारे ने अपने बहु-बेटे की बलि चढ़ा कर इस झील को बनवाया था। जबकि भूवैज्ञानिकों के नजरिए में यह एक प्राकृतिक जलाशय है, जो विंध्याचल का निचला पठार हर तरफ होने के कारण बनी है। यह पठार सागर शहर के पुरव्याऊ टोरी से टाऊन हाल तक फैला है। 19वीं सदी के अंत में पश्चिम की ओर बामनखेड़ी का बांध यहां का जल निर्गमन रोकने के इरादे से बनाया गया था।
आज इस तालाब के तीन ओर घनी बस्तियां हैं जिसकी गंदगी इस ऐतिहासिक धरोहर को लील रही है। विशेषज्ञों का दावा है कि आने वाले कुछ दशकों में यह तालाब सागर का गौरव ना होकर वहां की त्रासदी बन जाएगा।
ऊंची-नीची पठारी बसाहट वाले सागर शहर में पेयजल का भीषण संकट पूरे साल बना रहता है। भूमिगत जल दोहन यहां बुरी तरह असफल रहा है। इसका मुख्य कारण भी तालाब का सूखना रहा है। मध्य प्रदेश के संभागीय मुख्यालय सागर में मस्तिष्क ज्वर, हैजा और पीलिया का स्थाई निवास है। कई शोध कार्यों की रिपोर्ट बताती हैं कि इन संक्रामक रोगों का उत्पादन स्थल यही झील है।
यहां पैदा होने वाली मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे आदि हजारों परिवार के जीवकोपार्जन का जरिया रहा है। तालाब के मरने के साथ-साथ इन चीजों का उत्पादन भी घटा है। सागर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर व मछली विषय की विशेषज्ञ डा सुनीता सिंह ने एक रिसर्च रिपोर्ट में बताया है कि बढ़ती गंदगी, बदबू और जलीय वनस्पतियों के कारण इस तालाब का पानी मछलियों के जीवन के लिए जहर बन गया है। गौरतलब है कि यहां कई बार मछलियों की सामूहिक मृत्यू हो चुकी है।
अभी कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं, जहां भीषण दलदल है; जिसमें सुअर लोटा करते हैं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि (जिसे तकनीकी भाषा में यूट्रोफिकेशन कहते हैं) अंतिम चरण में पहुंच गया है।
तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं। दिन में धूप चढ़ते ही तालाब की दुर्गंध इसके करीब रहने वालों का हाल बेहाल कर देती है। तालाब बड़े-बड़े पौधों से पट चुका है, फलस्वरूप पानी के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा कम रहती है। मछलियों के मरने का कारण भी यही है। यहां 55 प्रजाति के पादप पल्लव है। इनमें से 33 क्लोराफाइसी, 11 साइनोफाइसी, नौ बस्लिरियाफायसी और दो यूग्नेलोफायसी प्रजाति के हैं। इस झील में साल भर माईक्रोसिस्टर, ऐरोपीनोसा गेलोसीरा, ग्रेनेलारा, पेंडिस्ट्रम और सीनोडेसमस आदि पौधे मिलते हैं।
यहां मिलने वाले माईक्रोफाइट्स यानि बड़े जातिय पौधे अधिक खतरनाक हैं । इनमें पोटेमोसेटन, पेक्टिनेट्स, क्रिसपस, हाईड्रीला-बर्टीसीलीटा, नेलुंबो न्यूसीफीरस आदि प्रमुख हैं। इन पौधों को मानव जीवन के लिए हानिकारक कीटाणुओं की सुविधाजनक शरणस्थली माना जाता है। गेस्ट्रोपोड्स नामक जीवाणु इन पौधों में बड़ी मात्रा में चिपके देखे जा सकते हैं। खतरनाक सीरोकोमिड लार्वा भी यहां पाया जाता है। कई फीट गहरा दलदल और मोटी काई की परत इसे नारकीय बना रही है।
इस तालाब के प्रदूषण का मुख्य कारण इसके चारों ओर बसे नौ घनी आबादी वाले मुहल्ले हैं। गोपालगंज, किशनगंज, शनीचरी, शुक्रवारी, परकोटा, पुरव्याऊ, चकराघाट, बरियाघाट, और रानी ताल की गंदी नालियां सीधे ही इसमें गिरती हैं। नष्ट होने के कगार पर खड़ा इस तालाब की सफाई के नाम पर बुने गए ताने-बाने भी खासे दिलचस्प रहे हैं।
उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार सन् 1900 में पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन अंग्रेज शासकों ने सात हजार रूपए खर्च कर इसकी मरम्मत व सफाई करवाई थी। आजादी के बाद तो सागरवासियों ने कई साल तक इस ‘सागर’ की सुध ही नहीं ली। यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों को जब इसके पर्यावरण का ख्याल आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तालाब के बड़े हिस्से में कंक्रीट के जंगल उग आए थे। पानी बुरी तरह सड़ांध मारने लगा था। सागरवासी कुछ चेते। झील बचाओ समिति गठित हुई। फिर जुलूस, धरनों के जो दौर चले, तो वे आज तक जारी है।
मध्य प्रदेश के आवास और पर्यावरण संगठन (एपको) द्वारा 1985 में स्वीकृत 19.27 लाख रुपए की योजना का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह पैसा किश्तों में मिला। सत्र 1986-87 में 5.37 लाख रुपए, 87-88 में चार लाख, 88-89 में केवल 8.50 जारी किए गए। यह पैसा सड़ रहे तालाब की सफाई पर ना खर्च कर इसके कथित सौंदर्यीकरण पर लगाया गया। बस स्टैंड से संजय ड्राइव तक 1938 फीट लंबी रिटेनिंग वाल बनाने में ही अधिकांश पैसा फूंक दिया गया। देखते-ही-देखते यह दीवार ढह भी गई। बाकी का पैसा नाव खरीदने, पक्के घाट बनाने या मछली व कॉपर सल्फेट छिड़कने जैसे कागजी कामों पर खर्च दिखा दिया गया।
यह बात जान लेना चाहिए कि अपने अस्तित्व के लिए जूझते इस तालाब को सौंदर्यीकरण से अधिक सफाई की जरूरत है।
झील बचाओ समिति शासन का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के इरादे से समय-समय पर कुछ मनोरंजक आयोजन करते रहते हैं। कभी सूखे तालाब पर क्रिकेट मैच तो कभी पारंपरिक लोक नृत्य राई के आयोजन यहां होते रहते हैं।
कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने पांच करोड़ 83 लाख 88 हजार की एक योजना को मंजूरी दी थी। वैसे तो वह योजना भी फाईलों के गलियारों में भटक रही है, लेकिन उसकी कार्य योजना में इस बात को नजरअंदाज किया गया था कि पुरव्याऊ से गोपालगंज तक के नौ नालों को झील में मिलने से रोके बगैर कोई भी काम झील को जीवन नहीं दे सकता है। झील बचाओ समिति ड्रेजर मशीनों से सफाई पर सहमत नहीं है। उसका कहना है कि झील की सफाई के लिए मशीनें मंगाने मात्र में 22 लाख से अधिक खर्चा आना है। ऐसे में यह काम मजदूरों से करवाना अधिक कारगर और व्यावहारिक होगा।
गर्मी के दिनों में जब तालाब पूरी तरह सूख जाता है, तब जनता के सहयोग से गाद निकालने का काम बहुआयामी होगा। सनद रहे कि इस तालाब की गाद दशकों से जमा हो रहे अपशिष्ट पदार्थों का मलबा है, जो उम्दा किस्म की कंपोस्ट खाद है। यदि आसपास के किसानों से सरकारी सहयोग के साथ-साथ मुफ्त खाद देने की बात की जाए तो हजारों लोग सहर्ष सफाई के लिए राजी हो जाएंगे।
यदि इस तालाब की सफाई और गहरीकरण हो जाए तो यह लाखों कंठों की प्यास तो बुझाएगा ही,, हजारों घरों में चूल्हा जलने का जरिया भी बनेगा। इतना बड़ा ‘सागर’ होने के बावजूद शहरवासियों का साल भर बूंद-बूंद पानी के लिए भटकना दुखद विडंबना ही है। इस ताल की जल क्षमता शहर को बारहों महीने भरपूर पानी देने में सक्षम है। इतने विशाल तालाब में मछली के ठेके के एवज में नगर निगम को कुछ हजार रुपए ही मिलते हैं। यदि तालाब में गंदी नालियों की निकासी रोक दी जाए और चारों ओर सुरक्षा दीवार बन जाए तो यही ताल साल में 50 लाख की मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे दे सकता है। इसके अलावा नौकायन से भी लोगों को रोजगार मिल सकता है।
सागर सरोवर का जीवन शहर के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सीधा जुड़ा हुआ है। इस आकार का तालाब बनाने में आज 50 करोड़ भी कम होंगे। जबकि कुछ लाख रुपयों के साथ थोड़ी-सी निष्ठा व ईमानदारी से काम कर इसे अपने पुराने स्वरूप में लौटाया जा सकता है। वैसे भी इन दिनों पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण, वाटर हार्वेस्टिंग जैसे जुमलों का फैशन चल रहा है। सागरवासियों की जागरुकता, राजनेताओं के निष्कपट तालमेल और नौकरशाहों की सूझबूझ की संयुक्त मुहिम अब सागर के सागर को जीवनदान दे सकती है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
सरकारें बदलने के साथ ही करोड़ों की योजनाएं बनती और बिगड़ती है। यदाकदा कुछ काम भी होता है, पर वह इस मरती हुई झील को जीवन देने के बनिस्पत सौंदर्यीकरण का होता है। फिर कहीं वित्तीय संकट आड़े आ जाता है तो कभी तकनीकी व्यवधान। हार कर लोगों ने इसकी दुर्गति पर सोचना ही बंद कर दिया है।
तालाब के बिगड़ते हाल पर 11 लोगों को पीएचडी अवार्ड हो चुकी है, पर ‘सागर’ का दर्द लाइलाज है। विडंबना है कि ‘सागर’ में अभी से सूखा है, जबकि अगली बारिश को आने में लगभग तीन महीने हैं। मध्य प्रदेश शासन ने इस सूखाग्रस्त इलाके में जल-व्यवस्था के लिए हाल ही में करोड़ों रुपए मंजूर किए हैं। इन दिनों सागर नगर निगम की किन्नर महापौर कमला बुआ झील की सफाई के लिए जन जागरण कर रही हैं। कुछ लोग आकर किनारों से गंदगी भी साफ कर रहे हैं, लेकिन इससे झील की सेहत सुधरने की संभावना बेहद कम है।
बुदेलखंड की सदियों पुरानी तालाबों की अद्भुत तकनीकी की बानगियों में से एक सागर की झील कभी 600 हेक्टेयर क्षेेत्रफल और 60 मीटर गहरी जल की अथाह क्षमता वाली हुआ करती थी । 1961 के सरकारी गजट में इसका क्षेत्रफल 400 एकड़ दर्ज है। आज यह सिमट कर महज 80 हेक्टेयर ही रह गई है। और पानी तो उससे भी आधे में है। बकाया में खेती होने लगी है और पानी की गहराई तो 20 फीट भी बमुश्किल होगी।
मौजूदा कैचमेंट एरिया 14.10 वर्ग किमी है । 1931 का गजेटियर गवाह है कि इस विशाल झील का अधिकतर हिस्सा सागर के शहरीकरण की चपेट में आ गया है। रिकार्ड मुताबिक मदारचिल्ला, परकोटा, खुशीपुरा, जैसे घने मुहल्ले और यूटीआई ग्राउंड आदि इसी तालाब को सुखा कर बसे हैं।
किवदंतिया हैं कि 11वीं सदी में लाखा नामक बंजारे ने अपने बहु-बेटे की बलि चढ़ा कर इस झील को बनवाया था। जबकि भूवैज्ञानिकों के नजरिए में यह एक प्राकृतिक जलाशय है, जो विंध्याचल का निचला पठार हर तरफ होने के कारण बनी है। यह पठार सागर शहर के पुरव्याऊ टोरी से टाऊन हाल तक फैला है। 19वीं सदी के अंत में पश्चिम की ओर बामनखेड़ी का बांध यहां का जल निर्गमन रोकने के इरादे से बनाया गया था।
आज इस तालाब के तीन ओर घनी बस्तियां हैं जिसकी गंदगी इस ऐतिहासिक धरोहर को लील रही है। विशेषज्ञों का दावा है कि आने वाले कुछ दशकों में यह तालाब सागर का गौरव ना होकर वहां की त्रासदी बन जाएगा।
ऊंची-नीची पठारी बसाहट वाले सागर शहर में पेयजल का भीषण संकट पूरे साल बना रहता है। भूमिगत जल दोहन यहां बुरी तरह असफल रहा है। इसका मुख्य कारण भी तालाब का सूखना रहा है। मध्य प्रदेश के संभागीय मुख्यालय सागर में मस्तिष्क ज्वर, हैजा और पीलिया का स्थाई निवास है। कई शोध कार्यों की रिपोर्ट बताती हैं कि इन संक्रामक रोगों का उत्पादन स्थल यही झील है।
यहां पैदा होने वाली मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे आदि हजारों परिवार के जीवकोपार्जन का जरिया रहा है। तालाब के मरने के साथ-साथ इन चीजों का उत्पादन भी घटा है। सागर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर व मछली विषय की विशेषज्ञ डा सुनीता सिंह ने एक रिसर्च रिपोर्ट में बताया है कि बढ़ती गंदगी, बदबू और जलीय वनस्पतियों के कारण इस तालाब का पानी मछलियों के जीवन के लिए जहर बन गया है। गौरतलब है कि यहां कई बार मछलियों की सामूहिक मृत्यू हो चुकी है।
अभी कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं, जहां भीषण दलदल है; जिसमें सुअर लोटा करते हैं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि (जिसे तकनीकी भाषा में यूट्रोफिकेशन कहते हैं) अंतिम चरण में पहुंच गया है।
तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं। दिन में धूप चढ़ते ही तालाब की दुर्गंध इसके करीब रहने वालों का हाल बेहाल कर देती है। तालाब बड़े-बड़े पौधों से पट चुका है, फलस्वरूप पानी के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा कम रहती है। मछलियों के मरने का कारण भी यही है। यहां 55 प्रजाति के पादप पल्लव है। इनमें से 33 क्लोराफाइसी, 11 साइनोफाइसी, नौ बस्लिरियाफायसी और दो यूग्नेलोफायसी प्रजाति के हैं। इस झील में साल भर माईक्रोसिस्टर, ऐरोपीनोसा गेलोसीरा, ग्रेनेलारा, पेंडिस्ट्रम और सीनोडेसमस आदि पौधे मिलते हैं।
यहां मिलने वाले माईक्रोफाइट्स यानि बड़े जातिय पौधे अधिक खतरनाक हैं । इनमें पोटेमोसेटन, पेक्टिनेट्स, क्रिसपस, हाईड्रीला-बर्टीसीलीटा, नेलुंबो न्यूसीफीरस आदि प्रमुख हैं। इन पौधों को मानव जीवन के लिए हानिकारक कीटाणुओं की सुविधाजनक शरणस्थली माना जाता है। गेस्ट्रोपोड्स नामक जीवाणु इन पौधों में बड़ी मात्रा में चिपके देखे जा सकते हैं। खतरनाक सीरोकोमिड लार्वा भी यहां पाया जाता है। कई फीट गहरा दलदल और मोटी काई की परत इसे नारकीय बना रही है।
इस तालाब के प्रदूषण का मुख्य कारण इसके चारों ओर बसे नौ घनी आबादी वाले मुहल्ले हैं। गोपालगंज, किशनगंज, शनीचरी, शुक्रवारी, परकोटा, पुरव्याऊ, चकराघाट, बरियाघाट, और रानी ताल की गंदी नालियां सीधे ही इसमें गिरती हैं। नष्ट होने के कगार पर खड़ा इस तालाब की सफाई के नाम पर बुने गए ताने-बाने भी खासे दिलचस्प रहे हैं।
उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार सन् 1900 में पड़े भीषण अकाल के दौरान तत्कालीन अंग्रेज शासकों ने सात हजार रूपए खर्च कर इसकी मरम्मत व सफाई करवाई थी। आजादी के बाद तो सागरवासियों ने कई साल तक इस ‘सागर’ की सुध ही नहीं ली। यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों को जब इसके पर्यावरण का ख्याल आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तालाब के बड़े हिस्से में कंक्रीट के जंगल उग आए थे। पानी बुरी तरह सड़ांध मारने लगा था। सागरवासी कुछ चेते। झील बचाओ समिति गठित हुई। फिर जुलूस, धरनों के जो दौर चले, तो वे आज तक जारी है।
कुछ साल पहले तक हर वार-त्यौहार पर इस तालाब के घाट स्नान करने वालों से ठसा-ठस रहते थे। अब वहां पानी बचा नहीं। जीवनदायी समझे जाने वाला सरोवर शहर वालों के लिए कई मुश्किलों की जड़ बन गया है। जनता की इस दुखती रग को नेता ताड़ गए है। तभी हर चुनाव के दौरान झील सफाई के वादों पर वोटों की फसल उगाई जाती है। सागर तालाब का सरोवरीय जमाव, सिल्टिंग, प्रदूषण आदि अंतिम चरण में पहुंच गया है। तालाब में गाद की गहराई 10 से लेकर 15 फीट तक है। एपको और सागर यूनिवर्सिटी के जीव व वनस्पति विभाग के वैज्ञानिक इसे एक दशक पहले ही एक मृत तालाब और इसके पानी को गैर उपयोगी करार दे चुके हैं।
19 जनवरी 1988 को उस समय के मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा ने दो करोड़ तीन लाख 44 हजार रुपए लागत की एक ऐसी परियोजना की घोषणा की जिसमें सागर झील की सफाई और सौंदर्यीकरण दोनों का प्रावधान था। फिर सियासती उठापटक में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बदल गए और योजना सागर के गंदे तालाब में कहीं गुम हो गई। उसी साल हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल ‘जन जागरण अभियान’ के तहत सागर आए। उन्होंने जब तालाब के बारे में सुना तो उसे देखने गए व तत्काल सात लाख रूपए के अनुदान की घोषणा कर गए। कुछ दिनों बाद इसकी पहली किश्त इस शर्त के साथ आई कि मजदूरी का भुगतान हरियाणा के रेट से होगा। फिर ताऊ देश के उप प्रधानमंत्री बने, बड़ी उम्मीदों के साथ उनसे गुहार लगाई गई पर तब उन्हें कहां फुर्सत थी सागर की मरती हुई झील के लिए! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में तो ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ नामक बड़ी चमकदार योजना शुरू हुई। उसके बाद शिवराज सिंह ने भी ‘‘जलाभिषेक’’ का लोकलुभावना नारा दिया। ना जाने क्या कारण है कि सागर के ‘सागर’ की तकदीर ही चेत नहीं पा रही है। असल कारण तो यह है कि नारों के जरिए पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण की बात करने वाले नेता तालाबों के रखरखाव और उसके सौंदर्यीकरण में अंतर ही नहीं समझ पाते हैं। तालाब को जरूरत है गहरीकरण, सफाई की और वे उसके किनारे लाईटें लगाने या रंग पोतने में बजट फूंक देते हैं।मध्य प्रदेश के आवास और पर्यावरण संगठन (एपको) द्वारा 1985 में स्वीकृत 19.27 लाख रुपए की योजना का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह पैसा किश्तों में मिला। सत्र 1986-87 में 5.37 लाख रुपए, 87-88 में चार लाख, 88-89 में केवल 8.50 जारी किए गए। यह पैसा सड़ रहे तालाब की सफाई पर ना खर्च कर इसके कथित सौंदर्यीकरण पर लगाया गया। बस स्टैंड से संजय ड्राइव तक 1938 फीट लंबी रिटेनिंग वाल बनाने में ही अधिकांश पैसा फूंक दिया गया। देखते-ही-देखते यह दीवार ढह भी गई। बाकी का पैसा नाव खरीदने, पक्के घाट बनाने या मछली व कॉपर सल्फेट छिड़कने जैसे कागजी कामों पर खर्च दिखा दिया गया।
यह बात जान लेना चाहिए कि अपने अस्तित्व के लिए जूझते इस तालाब को सौंदर्यीकरण से अधिक सफाई की जरूरत है।
झील बचाओ समिति शासन का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के इरादे से समय-समय पर कुछ मनोरंजक आयोजन करते रहते हैं। कभी सूखे तालाब पर क्रिकेट मैच तो कभी पारंपरिक लोक नृत्य राई के आयोजन यहां होते रहते हैं।
कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने पांच करोड़ 83 लाख 88 हजार की एक योजना को मंजूरी दी थी। वैसे तो वह योजना भी फाईलों के गलियारों में भटक रही है, लेकिन उसकी कार्य योजना में इस बात को नजरअंदाज किया गया था कि पुरव्याऊ से गोपालगंज तक के नौ नालों को झील में मिलने से रोके बगैर कोई भी काम झील को जीवन नहीं दे सकता है। झील बचाओ समिति ड्रेजर मशीनों से सफाई पर सहमत नहीं है। उसका कहना है कि झील की सफाई के लिए मशीनें मंगाने मात्र में 22 लाख से अधिक खर्चा आना है। ऐसे में यह काम मजदूरों से करवाना अधिक कारगर और व्यावहारिक होगा।
गर्मी के दिनों में जब तालाब पूरी तरह सूख जाता है, तब जनता के सहयोग से गाद निकालने का काम बहुआयामी होगा। सनद रहे कि इस तालाब की गाद दशकों से जमा हो रहे अपशिष्ट पदार्थों का मलबा है, जो उम्दा किस्म की कंपोस्ट खाद है। यदि आसपास के किसानों से सरकारी सहयोग के साथ-साथ मुफ्त खाद देने की बात की जाए तो हजारों लोग सहर्ष सफाई के लिए राजी हो जाएंगे।
यदि इस तालाब की सफाई और गहरीकरण हो जाए तो यह लाखों कंठों की प्यास तो बुझाएगा ही,, हजारों घरों में चूल्हा जलने का जरिया भी बनेगा। इतना बड़ा ‘सागर’ होने के बावजूद शहरवासियों का साल भर बूंद-बूंद पानी के लिए भटकना दुखद विडंबना ही है। इस ताल की जल क्षमता शहर को बारहों महीने भरपूर पानी देने में सक्षम है। इतने विशाल तालाब में मछली के ठेके के एवज में नगर निगम को कुछ हजार रुपए ही मिलते हैं। यदि तालाब में गंदी नालियों की निकासी रोक दी जाए और चारों ओर सुरक्षा दीवार बन जाए तो यही ताल साल में 50 लाख की मछलियां, सिंघाड़े, कमल गट्टे दे सकता है। इसके अलावा नौकायन से भी लोगों को रोजगार मिल सकता है।
सागर सरोवर का जीवन शहर के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सीधा जुड़ा हुआ है। इस आकार का तालाब बनाने में आज 50 करोड़ भी कम होंगे। जबकि कुछ लाख रुपयों के साथ थोड़ी-सी निष्ठा व ईमानदारी से काम कर इसे अपने पुराने स्वरूप में लौटाया जा सकता है। वैसे भी इन दिनों पारंपरिक जल स्रोतों के संरक्षण, वाटर हार्वेस्टिंग जैसे जुमलों का फैशन चल रहा है। सागरवासियों की जागरुकता, राजनेताओं के निष्कपट तालमेल और नौकरशाहों की सूझबूझ की संयुक्त मुहिम अब सागर के सागर को जीवनदान दे सकती है।
पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
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