मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त
गंगा
Posted on 14 Jul, 2013 09:46 AM
यह ‘घट’ इतना कहां हाय! जो इसमें रहती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू, बहती गंगा

देखे हैं कितने ‘युग’ तूने क्या कहती है गंगा
तुझसे बुझती रहे चिता वह, जो दहती है गंगा

आज हमारे पाप-ताप ही तू सहती है गंगा
‘फूल’ भेंट के साथ बाँह यह तू गहती है गंगा

बहती रह इस महा मही पर मेरी महती गंगा
मुझे हाथ धोने का अवसर दे तू बहती गंगा।

सुरसरि तीर
Posted on 13 Jul, 2013 05:48 PM
समयोचित संदेश उन्हें प्रभु ने दिए,
सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किए।
कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में,
उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में।
देश सुमन्त्र – विषाद हुए सब अनमने,
आए सुरसरि – तीर त्वरित तीनों जने।
बैठीं नाव – निहार लक्षणा – व्यंजना,
‘गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।

बढ़ी पदों की ओर तरंगित सुरसरी,
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