नदी और पीपल

मैं वहीं हूँ,तुम जहाँ पहुँचा गए थे।

खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी,
अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है।
दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह
व्याप्त हो जाती हवा-सी फैलकर सारे भवन में।
खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में
रेत की कचकच;
कलक की नोंक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है।
कल्पना मल-मल दृगों को लाल कर लेती।
आँख की इस किरकिरी में दर्द कम ही हो भले,
पर, खीज, बेचैन, परेशानी बहुत है।
किंतु, घर के पास का पीपल पुराना
आज भी पहले सरीखा ही हरा है।
गर्मियों में भी नहीं ये पेड़ शीतल सूखते हैं।

पक्षियों का ग्राम केशों में बसाए
यह तपस्वी वृक्ष सबको छाँह का सुख बाँटता है।
छाँह यानी पेड़ की करुणा,
सहेली स्निग्ध, शीतल वारि की, कर्पूर, चंदन की।

इस पुरातन वृक्ष के नीचे पहुंचते ही हृदय की
हलचलें सब शांत हो जातीं,
बहुत बातें पुरानी याद आती हैं।

और तब बादल हृदय के कूप से बाहर निकलकर
दृष्टि के पथ को उमड़कर घेर लेते हैं।
सूझता कुछ भी नहीं, निर्वाक् खो जाता कहीं पर
मैं नयन खोले हुए निष्प्राण प्रतिमा-सा।

टूट गिरते शीर्ण-से दो पत्र,
मानो, वृद्ध तरु की आँख से आँसू चुए हों।
फिर वही अनुभूति,
नदियाँ स्नेह को भी एक दिन सिकता बना देतीं,
संत, पर, करुणा-द्रवित आँसू बहाते हैं।

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