रामधारी सिंह ‘दिनकर’

रामधारी सिंह ‘दिनकर’
नदी और पीपल
Posted on 25 Aug, 2013 12:07 PM
मैं वहीं हूँ,तुम जहाँ पहुँचा गए थे।

खँडहरों के पास जो स्रोतस्विनी थी,
अब नहीं वह शेष, केवल रेत भर है।
दोपहर को रोज लू के साथ उड़कर बालुका यह
व्याप्त हो जाती हवा-सी फैलकर सारे भवन में।
खिड़कियों पर, फर्श पर, मसिपात्र, पोथी, लेखनी में
रेत की कचकच;
कलक की नोंक से फिर वर्ण कोई भी न उगता है।
कल्पना मल-मल दृगों को लाल कर लेती।
नदी और पेड़
Posted on 25 Aug, 2013 12:06 PM
(पेड़ की उक्ति)
क्या हुआ उस दिन?
तुम्हें मैंने छुआ था
मात्र सेवा-भाव से, करुणा, दया से।
स्पर्श में, लेकिन, कहीं कोई सुधा की रागिनी है।
और त्वचा के भी श्रणव हैं।
स्पर्श का झंकारमय यह गीत सुनते ही
त्वचा की नींद उड़ जाती,
लहू की धार में किरणें कनक की झिलमिलाती हैं।

रोम-कूपों से उठी संगीत की झंकार,
नाव-सी कोई लगा खेने रुधिर में।
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