दुपहर

नदी के किनारे कोई आसमान धो रहा है
दुपहर है,
महुए का पेड़ सो रहा है।

शाम, धुआँ और नदी


शाम है, धुआँ है,एक नदी है
और इस नदी में
कुछ लहरे हैं,
जो बहुत उदास हैं।

अभी यहां पछुआ थी और एक गान था।
अभी यहाँ आँसू थे और एक पाल था।
अब सब चले गए...सब चले गए।
शाम है, धुआँ हैं,
एक नदी है;
और इस नदी में कुछ लहरें हैं
जो बहुत उदास हैं।

मैं भी एक नदी हूँ, मुझ पर भी शाम है,
मुझ पर भी
धुआँ है,

मुझमें भी लहरें है, जो बहुत उदास हैं।
मुझको भी त्याग गए कुछ स्नेही,
मेरी भी नावें ले
चले गए कुछ यात्री
मेरे भी गान सब पालों की
ओट हुए।
मैं बहुत उदास हूँ, बहुत ही उदास हूँ।

क्या अब वे सुख-सहचर कभी नहीं लौटेंगे?
क्या अब वे छायाएँ
यहाँ नहीं डोलेंगी?
क्या अब कोई मुझसे यह नहीं कहेगा-
‘ओ प्रिय! तुम
नहीं अकेले।
मैं भी हूँ।’

यदि मुझमें आज भी कटाव है, गति है,
तो इसलिए,
शायद कोई मुझ जैसा
उदास, मनमारा
कल मुझ तक आए।
और इस उदासी में एक गान गाए।
शायद कोई
दिया जलाए,
फिर यह कहे-
ओ प्रिय! तुम नहीं अकेले!
मैं भी हूँ।

शाम है, धुआँ है, एक नदी है
और उस नदी में
कुछ लहरे हैं
जो बहुत उदास हैं, बहुत ही उदास हैं।

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