हिलकोरे

हर रात समय की तिमिर नदी में एक लहर
जिस पर उजले सपने आते हैं छहर-छहर
नतशीश जिसे धारण करता रहता कगार
वह मानव जिसमें पत्थर की-सी क्षमता है
चुपचाप थपेड़ों को सह लेने की ताकत
लेकिन मिट्टी-सा घुल जाने की भी आदत
इसलिए लहर की अधिक उसी से ममता है।
सारा तूफान उसी पर आकर थमता है।
सच-झूठ तुम्हीं जानो मेरे इन स्वप्नों का
पर मेरे मन के विश्वासों की यह नौका
हो ही जाती है डगमग-डगमग एक बार
जब तट से लड़कर वापस आती ठहर-ठहर
वह सजल साँवली ठंडी-ठंडी एक लहर।

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