Posted on 19 Sep, 2013 04:22 PMगोमती तट दूर पेंसिल-रेख-सा वह बाँस झुरमुट शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह धूप की लट। जल के नग्न ठंडे बदन पर का झुका कुहरा लहर पीना चाहता है। सामने के शीत नभ में आइरन-ब्रिज की कमानी बाँह मस्जिद की बिछी है। धोबियों की हाँक वट की डालियाँ दुहरा रही हैं। अभी उड़कर गया है वह छतर-मंजिल का कबूतर झुंड।
Posted on 19 Sep, 2013 04:18 PMसरबस ही बहा ले गई गंगा मैया बचा नहीं एक भी उपाय। धान और बाजरा समेत लहरों में समा गए खेत टीले परनाव चले दैया रे दैया पेड़ों पर नदी चढ़ी जाए। डूब गए निचले खपरैल रात बहे ‘बंसी’ के बैल बँसवट पर अटक गई घाट की मड़ैया डूब गई पंडित की गाय। पिए गाँव-घर का एहसास पानी को लगी हुई प्यास खेतों में मार रहीं लहरें कलैया लोग करें हाय, हाय,हाय!
Posted on 19 Sep, 2013 04:16 PM(पूरी-दर्शन की याद में)
सागर को सामने पाकर ठिठक गई कैसी तुम नदी हो?
जिसके लिए निकली थीं एक युग पहले तुम चट्टानें तोड़तीं अनजाने बीहड़ वनों को झिंझोड़ती बाधाएँ उपाटकर अपनी अनोखी,क्षिप्र इठलाती गति से कठिन जमीन को काटकर जीवन-भर गाती हुई सूखे मैदानों को रिझाती हुई बाँहों से तटों के कगारों को काटकर पगली!
Posted on 19 Sep, 2013 04:12 PMपानी कई-कई बार हमें अपनों से दूर ले गया उसने हमारी कागज की नावें ही नहीं सचमुच की नावें और जहाज डुबा दिये हमारे खिलौने छीन लिये बेशकीमती चीजें लूट लीं और कहीं भीतर अपने तलघट में छिपा दिया बेघरबार कर दिया हमारे बच्चों को हमारे खेतों को तहस-नहस कर डाला हमें भूख के हाथों बिलबिलाता हुआ छोड़ दिया वह हमारी स्त्रियों और बच्चों को चुरा कर ले गया
Posted on 19 Sep, 2013 04:04 PMपानी-पानी बच्चा-बच्चा हिंदुस्तानी मांग रहा है पानी-पानी, जिसको पानी नहीं मिला है वह धरती आजाद नहीं उस पर बसते हिंदुस्तानी पर है वह आबाद नहीं पानी-पानी बच्चा-बच्चा मांग रहा है हिंतुस्तानी। जो पानी के मालिक हैं भारत पर उनका कब्जा है जहां न दे पानी वहां सूखा जहां दे वहां सब्जा है अपना पानी मांग रहा है हिंदुस्तानी
Posted on 16 Sep, 2013 03:10 PMमैं गुजरा हूँ उन खेतों से, मंद बयार के अहरह झोंको में, जहाँ गदराई हरीतिमा झूम रही थी- और अब मैं रुकता हूँ और पीछे मुड़कर देखता हूँ- वहाँ स्वर्ण-रेखा है- सोने की लकीर, उसका उत्फुल्ल जल उस चट्टान पर उच्छल जिस पर हम बैठे थे और प्यार की बातें की थीं, धूम-भूरे बादल से कोमल तिपहरी में : वे रहे हमारे पदचिन्ह
Posted on 16 Sep, 2013 03:08 PM...और यह वह स्थल, यही नदी वह जिसके तट बैठे थे सट हम दोनों, पहली बार: और नयन के मूक-मुखर स्वर में बातें दो-चार कर लेते थे.. आँखों के वे स्वर मूक, निरर्थक, फिर भी, सुख पीड़ा के व्यंग्य-मार से पिच्छल, और-किंतु, वह था विगत जन्म में।
यह नदी, स्वर्ण-रेखा स्मृति के दो तट जिसके, यह हम में है; और क्षणों का ढूह-रेत,
Posted on 16 Sep, 2013 03:07 PMमाँझी! जल का छोर न आता अब भी तट आँखों से ओझल माँझी! जल का छोर न आता भरी नदी बरसाती धारा घन-गर्जन अंबर अँधियारा काली-काली मेघ घटाएँ आ पहुँची रजनी अज्ञाता माँझी! जल का छोर न आता क्षुब्ध पवन वन-पथ में रोता दुर्दिन को उन्मत्त बनाता नभ अश्रांत गाढ़ी तम छाया मन वियोगिनी का भर आया प्राणों की आशा बादल पर खींच रही जो मौन सुजाता माँझी! जल का छोर न आता