कुँवर नारायण
कुँवर नारायण
रात को नदी के किनारे वाली सड़क पर
Posted on 26 Sep, 2013 01:50 PMचाँदनी-(पिया-सी है!)जैसे घटिया चीजों पर बढ़िया पालिश।
एक झुंड भूँकते कुत्तों की तरह
शहर का शोर-दक्षिण की ओर,
और चांद
जैसे खुले मैदान में एक डरा हुआ जंगली खरगोश:
बिदकते बछड़ों-सी लापरवाह हवा:
तट पर लोटतीं
अर्द्धनग्न सोनपंख परियाँ,
घास पर बिछाकर
फूलों की दरियाँ:
नदी में डूबे मछिलियों के महल,
समापन
Posted on 26 Sep, 2013 01:48 PMमैं गुजरता रहा, बल्कि बहता रहाजैसे नदियाँ-बिना कुछ चाहे-
जो किनारे नहीं लग पातीं
किनारे लगा सकती हैं अगर कोई चाहे!
क्या तुम्हें मालू है कैसे एक नदी
सागर हो जाती है?
वह, बस, भटकती रहती है और एक दिन
किनारा पाकर खो जाती है।
‘परिवेश : हम तुम’ में संकलित ‘समापन’ शीर्षक कविता की अंतिम आठ पंक्तियाँ
दो छायाचित्र
Posted on 26 Sep, 2013 01:47 PM(1)नदी-पथ पर डगमगाते चंद्रमा के पाँव।
नदी-तट पर खोजते शायद प्रिया का गाँव!
(2)
नदी की गोद में नादान शिशु-सा
अर्द्धसोया द्वीप-
झिलमिल चाँदनी में नाचती परियाँ,
लहर पर लहर लहरातीं
बजाकर तालियाँ गातीं
सुनाती लोरियाँ-
सुनता नदी का लाड़ला बेटा,
चमकते चाँद के चाँदी-कटोरे से
मजे में दूध पीता।
एक चित्र : दो पट
Posted on 26 Sep, 2013 01:45 PMरात का निस्तब्ध छाया वन,न कुछ-सा नदी-तट पर वृक्ष
जैसे एक मुट्ठी-भर अँधेरा,
पास ही सिर डालकर सोई हुई-सी नदी
गाढ़े कोहरे को ओढ़कर चुपचाप-
(जैसे किसी फोटोग्राफ का धुँधला नेगेटिव)
सुबह सब कुछ पुनः आभासित,
समूचा दृश्य तीखी रोशनी में
जी उठे चलचित्र-सा रंगीन-
चंचल पल्लवों में किरण-कोलाहल,
हजारों पंछियों का बसा पूरा शहर!
गंगा-जल
Posted on 26 Sep, 2013 01:44 PMफूटकर समृद्धि की स्रोत स्वर्णधारा सेछलकी
गंगा बही धर्मशील,
सूर्य स्थान था
जहां से मानव-स्वरूप
कोई धर्मावतार
रत्नजटित, आभूषित, स्वयं घटित,
हिम के धवल श्रृंगों पर
आदिम आश्चर्य बना :
जनता का शक्ति धन
साधन धनवानों का...
उसी चकाचौंध में सज्जनता छली गई,
धर्म धाक,
भोला गजरात चतुर अंकुश से आतंकित
अहंहीन दास बना,
पानी का स्वाद
Posted on 15 Jan, 2014 06:02 PMअकड़ कर कहता है नमक –मै तो हूँ नमक
मै कभी नहीं बदलता अपनी राय,
और पानी मे घुल जाता :
इतरा कर कहती शकर -
मै तो हूँ मीठी
मीठी ही रहूंगी हमेशा,
और पानी मे घुल जाती :
इसी तरह खट्टा,कडुवा,तीता,बकठा...
हर स्वाद अपनी –अपनी
अकड़ और ऐंठ लिए
घुल जाता पानी में ।