श्रीकांत वर्मा

श्रीकांत वर्मा
विसर्जन
Posted on 29 Sep, 2013 01:24 PM
दिन पवित्र, वेला मंगलमय
नदियों में
नावों के उत्सव।
घाटों पर ये कलश-कलसियाँ
पितर पुण्य के
ये अशेष रव।
कर दो आज विसर्जन कर दो
फिर यह वेला नहीं आएगी।

‘भटका मेघ’ से

स्वरों का समर्पण
Posted on 29 Sep, 2013 01:22 PM
डबडब अँधेरे में, समय की नदी में
अपने-अपने दिए सिरा दो;
शायद कोई दिया क्षितिज तक जा
सूरज बन जाए!!

हरसिंगार जैसी यदि चुए कहीं तारे,
अगर कहीं शीश झुका
बैठे हों मेड़ों पर
पंथी पथहारे,
अगर किसी घाटी भटकी हो छायाएँ,
अगर किसी मस्तक पर
जर्जर हों जीवन की
त्रिपथगा ऋचाएँ;

पीड़ा की यात्रा के ओर पूरब-यात्री!
अनपहचाना घाट
Posted on 29 Sep, 2013 01:21 PM
धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर!!

यह नदी, यह घाट, यह चढ़ती दुपहरी
सब तुझे पहिचानते हैं।

सुबह से ही घाट तुझको जोहता है,
नदी तक को पूछती है,
दोपहर,
उन झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारती है।

यह पवन, यह धूप, यह वीरान पथ
सब तुझे पहिचानते हैं।

और मैं कितनी शती से यहां तुझको जोहता हूँ।
दुपहर
Posted on 29 Sep, 2013 01:19 PM
नदी के किनारे कोई आसमान धो रहा है
दुपहर है,
महुए का पेड़ सो रहा है।

शाम, धुआँ और नदी


शाम है, धुआँ है,एक नदी है
और इस नदी में
कुछ लहरे हैं,
जो बहुत उदास हैं।

अभी यहां पछुआ थी और एक गान था।
अभी यहाँ आँसू थे और एक पाल था।
अब सब चले गए...सब चले गए।
शाम है, धुआँ हैं,
एक नदी है;
और इस नदी में कुछ लहरें हैं
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