सुनील गांगुली की यमुना

क्यों मुझे अलकनंदा के प्रति
भय से चंचल कर देती है?

इससे अधिक कोई सार्थकता नहीं होती है नींद की। वह
मुझे कल्पना से अनुभव की घाटियों में ले जाती है।
एक अंधा विषदंत साँप,
पत्थर की नीली चट्टानों पर अपना फन पटकता रह जाए
सारी रात।

इससे अधिक सार्थकता क्यों चाहिए?
समय अगर चट्टान है, उसके किनारे सटकर उन्माद में
बहती हुई नदी है अलकनंदा।

वैसे यह भी सच है कि आत्म-प्रकाश करने का अधिकार
सुनील गांगुली को है, मुझे अभी नहीं। अभी
मंत्रबिद्ध हूँ मैं,-
इस नदी से, इस नीली चट्टान से, इस क्षत-विक्षत साँप से
मुझे मात्र एक बीज-अक्षर का संपर्क है,
-स्त्री!

यह स्त्री अभी व्यथा है, किंतु व्यर्थ नहीं।
अभी अर्थ नहीं,
मैं इस एक बीज अक्षर का संपूर्ण ध्वनि-व्यक्तित्व
अपने शरीर में होकर एकाग्र और उत्तापहीन होकर भी,
अभी व्यवस्थित कर रहा हूँ आत्म-साक्षात्कार;
केवल आत्म-साक्षात्कार!
मैं उन दिनों ढूँढ़ रहा था अपने लिए अमृत एकांत, जब
सर्दियों की सुनहली धूप में नहाई हुई
बिखरी हुई यमुना क्या चाहती थी
देह के सिवा-
स्पर्श और विचरण ही तो विलास का मर्म है विगलित
अंधकार में; किंतु, यह रस-मीमांसा
मुझे आसक्ति की शून्यता से, और
भय से चंचल कर देती है। मुझे आशा नहीं है,
अलकनंदा इस नीली चट्टान पर अभी सो पाएगी
नींद के लिए, इससे अधिक जिसकी कोई
नहीं होती है सार्थकता।

आद्यंत, जनवरी-फरवरी, 67

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