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भारत के भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण : प्रमुख तथ्य
आर्सेनिक की उत्पत्ति आर्सेनोपाइराईट, ऑपींमेंट, रियलगर, क्लुडेटाइट, आर्सेनोलाइट, पेंटोक्साइड, स्कॉरोडाइट आर आर्सेनोपालेडाइटे जैसे खनिजों से हो सकती है। हालांकि, आर्सेनोपाइराइट को ज्यादातर शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेखित किया गया है एवं यह भूजल में आर्सेनिक की अशुद्धि उत्पन्न करने वाला एक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध खनिज है। रेडॉक्स नियंत्रित वातावरण के तहत, यह आर्सेनिक तलछट (सेडीमेंट) से भूजल में निर्मुक्त हो जाता है। हिमालयी नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में पीने के पानी के स्रोतों में आर्सेनिक संदूषण देखने में आता है। इसकी वजह यह है कि हिमालय की चट्टानों से बहते पानी में आर्सेनिक घुलता जाता है। Posted on 15 Jun, 2024 03:38 PM

एक लंबी अवधि में अकार्बनिक आर्सेनिक की उच्च सांद्रता के सेवन से आर्सेनिकोसिस नामक क्रोनिक आर्सेनिक विषाक्तता हो सकती है। आर्सेनिक युक्त जल के सेवन से लक्षणों को विकसित होने में वर्षों का समय लगता है एवं यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि एक्सपोज़र का स्तर क्या है?

आर्सेनिक से स्वास्थ्य समस्याएं, फोटो साभार - ढाका ट्रिव्यून
बावड़ियाँ: प्राचीन भारत के भूले-बिसरे एवं विश्वसनीय जल स्रोत (भाग 1)
भारत में इन सीढ़ीनुमा कुओं को आमतौर पर बावड़ी या बावली के रूप में जाना जाता है, जैसा कि नाम से पता चलता है कि इसमें एक ऐसा कुआ होता है जिसमें उतरते हुए पैड़ी या सीढ़ी होती है। भारत में, विशेषकर पश्चिमी भारत में बावली बहुतायत में पाई जाती हैं और सिंधु घाटी सभ्यता काल से ही इसका पता लगाया जा सकता है। इन बावड़ियों का निर्माण केवल एक संरचना रूप में ही नहीं किया गया था। अपितु उनका मुख्य उद्देश्य व्यावहारिक रूप में जल संरक्षण का था। लगभग सभी बावड़ियों का निर्माण पृथ्वी में गहराई तक खोद कर किया गया है ताकि यह सम्पूर्ण वर्ष जल के निरंतर स्रोत के रूप में काम करते रहें। तत्पश्चात, पैड़ी या सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था, जो जल के संग्रह को और अधिक सुलभ एवं सरल करने का काम करती थी। इन सीढ़ियों का उपयोग पूजा एवं मनोरंजन आदि के लिये भी किया जाता था। Posted on 15 Jun, 2024 08:56 AM

भारत में इन सीढ़ीनुमा कुओं को आमतौर पर बावड़ी या बावली के रूप में जाना जाता है, जैसा कि नाम से पता चलता है कि इसमें एक ऐसा कुआ होता है जिसमें उतरते हुए पैड़ी या सीढ़ी होती है। भारत में, विशेषकर पश्चिमी भारत में बावली बहुतायत में पाई जाती हैं और सिंधु घाटी सभ्यता काल से ही इसका पता लगाया जा सकता है। इन बावड़ियों का निर्माण केवल एक संरचना रूप में ही नहीं किया गया था। अपितु उनका मुख्य उद्देश्य व्य

चांद बावड़ी, साभार - Pixabay
बावड़ियाँ: प्राचीन भारत के भूले-बिसरे एवं विश्वसनीय जल स्रोत (भाग 2)
प्राचीन भारतवर्ष में जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। विभिन्न जल स्रोतों के संरक्षण और जल संरचनाओं को लगभग सभी पूर्व के शासकों ने अपनी प्राथमिकता पर रखा था। जन कल्याण के कार्यों में बावड़ियों, कुओं, तालाबों आदि का निर्माण सर्वोपरि माना जाता था। इस लेख में भारत की कुछ प्रमुख बावड़ियों का उल्लेख किया गया है। इनके अलावा बहुत सारी बावड़ियाँ हैं जो लगभग हर छोटे-बड़े शहरों में देखने को मिल सकती हैं। इस लेख में उल्लेखित हर एक बावड़ी का अपना एक इतिहास है, एक विशिष्ट वास्तुकला है और हर एक का अपना एक विशेष ध्येय है। इनमें से कई तो मध्यकालीन युग के दौरान बनाई गई थी, जो आज भी स्थानीय लोगों की जल की मूलभूत आवश्यकता को पूरा कर रही हैं। किन्तु इनमें से अनेक बावड़ियां स्थानीय लोगों एवं सरकारी उपेक्षा का शिकार हो सूख गई हैं और जर्जर अवस्था में पहुंच गई हैं। Posted on 15 Jun, 2024 02:23 AM

अग्रसेन की बावली

अग्रसेन की बावली (जिसे उग्रसेन की बावड़ी भी कहा जाता है), प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थलों और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित स्मारक है। लगगभग 60 मीटर लंबी और 15 मीटर चौड़ी यह ऐतिहासिक बावड़ी नई दिल्ली में कनॉट प्लेस, जंतर मंतर के पास, हैली रोड़ पर स्थित है। यह 108 सीढ़ी या पैड़ी वाली बाबड़ी तीन मंजिला इमारत के समान ऊंची

चांद बावड़ी, साभार - Pixabay
पर्वतों में जल समस्या
हिंदू-कुश क्षेत्र (यह चार देशों-भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश में विस्तारित है) में किये गए इस अध्ययन में पाया गया कि इस क्षेत्र के 8 शहरों में पानी की उपलब्धता आवश्यकता के मुकाबले 20-70% ही थी। रिपोर्ट के अनुसार, मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिमपॉन्ग और दार्जलिंग जैसे शहर जलसंकट से जूझ रहे हैं। Posted on 12 Jun, 2024 06:55 AM

हाल ही में एक शोध में पर्वतीय क्षेत्र में पानी की बढ़ती समस्या पर चिंता व्यक्त की गई है। हिंदू-कुश क्षेत्र (यह चार देशों-भारत, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश में विस्तारित है) में किये गए इस अध्ययन में पाया गया कि इस क्षेत्र के 8 शहरों में पानी की उपलब्धता आवश्यकता के मुकाबले 20-70% ही थी। रिपोर्ट के अनुसार, मसूरी, देवप्रयाग, सिंगतम, कलिमपॉन्ग और दार्जलिंग जैसे शहर जलसंकट से जूझ रहे हैं। प्राकृ

पर्वतों में जल समस्या
पीने योग्य पानी की कमी और इसका सही उपयोग
सोचने वाली बात तो यह है कि घरती पर 2 तिहाई हिस्सा पानी होने के बावजूद पीने योग्य शुद्ध पेयजल सिर्फ 1 प्रतिशत ही है। 97 फीसदी जल महासागर में खारे पानी के रुप में भरा हुआ है, जबकि 2 प्रतिशत जल का हिस्सा बर्फ के रुप में जमा है। जिसकी वजह से यह नौबत आ गई है कि कई जगह पर लोगों को बूंद-बूंद पानी के लिए तरसना पड़ रहा है। इसलिए सभी को जल संरक्षण के महत्व को समझना चाहिए और अनावश्यक पानी की बर्बादी नहीं करनी चाहिए। Posted on 12 Jun, 2024 06:15 AM

जल हमारे जीवन के लिए बेहद जरूरी है, जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन आजकल जल का व्यर्थ इस्तेमाल किया जा रहा है, जिसकी वजह से आज भारत समेत पूरी दुनिया में जल की भारी कमी है। वहीं सोचने वाली बात तो यह है कि घरती पर 2 तिहाई हिस्सा पानी होने के बावजूद पीने योग्य शुद्ध पेयजल सिर्फ 1 प्रतिशत ही है। 97 फीसदी जल महासागर में खारे पानी के रुप में भरा हुआ है, जबकि 2 प्रतिशत जल का हिस्सा

पीने योग्य पानी आज सबसे बड़ा मुद्दा
दक्षिण बिहार की जीवनदायिनी 'पारम्परिक आहर-पईन जल प्रबन्धन प्रणाली' की समीक्षा (भाग 2)
भारतीय सभ्यता में मानवीय हस्तक्षेप द्वारा वर्षा जल संग्रहण और प्रबन्धन का गहन इतिहास रहा है। भारत के विभित्र इलाकों में मौजूद पारम्परिक जल प्रबन्धन प्रणालियाँ आज भी उतनी ही कारगर साबित हो सकती हैं जितनी पूर्व में थी। समय की कसौटी पर खरी उतरी और पारिस्थितिकी एवं स्थानीय संस्कृति के अनुरूप विकसित हुई पारम्परिक जल प्रबन्धन प्रणालियों ने लोगों की घरेलू और सिंचाई जरूरतों को पर्यावरण के अनुकूल तरीके से पूरा किया है। एकीकृत मानव अनुभव ने पारम्परिक प्रणालियों को कालांतर में विकसित किया है जो उनकी सबसे बड़ी खासियत व ताकत है। Posted on 11 Jun, 2024 07:56 PM

आहर-पईन खोदते समय निकली मिट्टी से अलंग बनाया जाता है जो अतिवृष्टि एवं बाढ़ की स्थिति का सामना करने में सहायक होता था। भू-क्षेत्र के केंद्र में गाँव और गाँव के चारों तरफ समतल खेत मगध के ग्रामीण बसाहट की विशेषता है। खेतों के बड़े आयताकार समुच्चय (50 से 100/200 एकड़ रकबे) को खंधा कहा जाता है। हर खंधे का विशेष नाम होता है जैसे मोमिन्दपुर, बकुंरवा, धोविया घाट, सरहद, चकल्दः, बडका आहर, गौरैया खंधा आदि

पारम्परिक आहर-पईन जल प्रबन्धन प्रणाली
अंटार्कटिका में घट रही है बर्फ
1986 में अंटार्कटिका से टूटकर अलग हुआ जो हिमखंड स्थिर बना हुआ था।  वह अब 37 साल बाद समुद्री सतह पर बहने लगा है।  उपग्रह से लिए चित्रों से पता चला है कि करीब एक लाख करोड़ टन वजनी यह हिमखंड अब तेज हवाओं और जल धाराओं के चलते अंटार्कटिका के प्रायद्वीप के उत्तरी सिरे की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है। Posted on 10 Jun, 2024 04:12 PM

अंटार्कटिका से हिमखंड कट रहे हैं

जलवायु परिवर्तन के संकेत अब अंधी आंखों से भी दिखने लगे हैं।  नये शोध बताते हैं कि अंटार्कटिका से हिमखंड तो टूट ही रहे हैं, वायुमंडल का तापमान बढ़ने के कारण बर्फ भी तेज़ी से पिघल रही है।  जलवायु बदलाव का बड़ा संकेत संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में भी देखने में आया है।  बीते 75 सालों में यहां सबसे अधिक बारिश रिकॉर्ड की गयी है।  24 घंटे में 10 इंच से ज़्यादा

अंटार्कटिका से हिमखंड कट रहे हैं
भारतीय लोक संस्कृति और साहित्य में जल की महिमा
भारतीय धर्म, संस्कृति और साहित्य में जल को अमृत तुल्य और जीवनदाता माना गया है। एक ओर जहां जल को प्रदूषित न करने की बात कही गई है, वहीं दूसरी ओर उसका संरक्षण यानी अपव्यय न करने की बात कही गई है। सभी धर्मों में इसकी महत्ता को समझाया गया है। Posted on 10 Jun, 2024 06:25 AM

यदि हम प्राचीन ग्रंथों की बात करें तो ऋग्वेद में जल संरक्षण करने का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में भी लोगों को जल संरक्षण के लिए आगाह किया गया है। इसके अलावा, तैतरीय उपनिषद, छांदग्योपनिषद और शंख स्मृति में भी कहा गया है कि पानी असीमित नहीं है, उसकी मात्रा निश्चित है। इसलिए उसे बचाने की चेतावनी दी गई है।

लोक साहित्य में जल
मिलकर भविष्य संवारें
दुनिया का बदलता मौसम समय के गहराते संकट को हमारे परिभाषित कर रहा है- और यह काम जितनी गति से हो रहा है, उसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी।  लेकिन इस वैश्विक संकट के सामने हम उतने असहाय नहीं हैं जितना हम समझ रहे हैं।  मौसम का यह संकट-काल भले ही आज हमें हारी हुई स्पर्धा लग रहा हो, पर हम यह मुकाबला जीत सकते हैं।  Posted on 09 Jun, 2024 07:24 PM

क्लाइमेट में हो रहे परिवर्तन के खतरनाक परिणामों से विश्व का कोई कोना अछूता नहीं है।  बढ़ता तापमान पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति को, प्राकृतिक विनाश को, खाद्यान्न और पानी की असुरक्षा, आर्थिक उतार-चढ़ाव को, अन्य संघर्षों को बढ़ावा ही दे रहा है।  समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है, आर्कटिक पिघल रहा है, कोरल रीफ मर रहे हैं, समुद्रों में तेज़ाब की मात्रा बढ़ रही है, जंगल जल रहे हैं।  स्पष्ट है स्थितियां अनुक

बेहतर धरती के भविष्य के लिए
संयुक्त राष्ट्रसंघ के जलशांति वर्ष-2024 के अवसर पर एक अपील
मानवीय जीवन में जब जल का तीर्थपन था, तब मानवीय मन में जल-सुरक्षा, शांति और सम्मान भी था।  जल के बाजारू दुरुपयोग और दुर्व्यवहारों ने बहुत कुछ बदल दिया है।  इसीलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ ने न्यूयॉर्क के दूसरे विश्व सम्मेलन में 2024 को जलशांति वर्ष घोषित कर दिया है।  Posted on 09 Jun, 2024 02:55 PM

भारत में हम लोग जल को शांति का प्रतीक मानते आये हैं।  जब भी हम यज्ञ अग्नि से करते हैं, तो उसकी शुरूआत, और सम्पन्नता भी, जल से ही होती है।  यज्ञ-स्थल की जल से परिक्रमा करके, शांति को आहूत करते हैं।  मतलब यह कि भारत जलशांति, व्यवहार, संस्कार और तीर्थपन में सदाचारी रहा है।  भारत और दुनिया के सभी धर्मों में जल को जीवन आधार माना गया है।  सभी धर्मों में अलग- अलग तरीकों से इसके दर्शन होते हैं। 

संयुक्त राष्ट्रसंघ का जलशांति वर्ष-2024
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