संयुक्त राष्ट्रसंघ के जलशांति वर्ष-2024 के अवसर पर एक अपील

संयुक्त राष्ट्रसंघ का जलशांति वर्ष-2024
संयुक्त राष्ट्रसंघ का जलशांति वर्ष-2024

भारत में हम लोग जल को शांति का प्रतीक मानते आये हैं।  जब भी हम यज्ञ अग्नि से करते हैं, तो उसकी शुरूआत, और सम्पन्नता भी, जल से ही होती है।  यज्ञ-स्थल की जल से परिक्रमा करके, शांति को आहूत करते हैं।  मतलब यह कि भारत जलशांति, व्यवहार, संस्कार और तीर्थपन में सदाचारी रहा है।  भारत और दुनिया के सभी धर्मों में जल को जीवन आधार माना गया है।  सभी धर्मों में अलग- अलग तरीकों से इसके दर्शन होते हैं। 

हिंदू धर्म :

जल जीवन है।  यही जीविका और अध्यात्म है। 
सभी को सब कुछ देने वाला यही नारायण है। 
यही सृजन और संहार करने वाली शक्ति है। 

इस्लाम धर्म :

जल खुदा का रहमो-करम है, यह पाक-पवित्र है। 
यही हमारे शरीर को पाक रखता है। 
जल कुदरत की हिफाजत है।  पैगंबर कहते हैं कि सभी इसकी हिफाजत करें। 

ईसाई धर्म :

जल जैसे हमारी शारीरिक ज़रूरतों की पूर्ति करता है, वैसे ही परमात्मा हमारी आध्यात्मिक ज़रूरतों की पूर्ति करता है। 

पारसी धर्म :

जल, अग्नि, धरती तीनों पवित्र हैं, और इन तीनों की पवित्रता बचाना ही हमारा धर्म है। 

यहूदी धर्म :

पानी खुदा का ऐसा शस्त्र है, जो किसी के लिए वरदान और किसी के लिए श्राप बन सकता है। 

शिंटो धर्म :

प्राणी का प्रत्येक अंग पूज्य है, जिसे ईश्वर ने जल से निर्मित किया है। 

बौद्ध धर्म :

परलोक में जाने वाले प्राणी की पूर्ण तृप्ति जल से होती है। 

सभी धर्मों की अपनी आस्था और श्रद्धा का अपना आधार है।  वेदों में कहा गया है कि जल ही ब्रह्मा है, जल ही ब्रह्मांड है।  जल ही जीवन है और जल ही इस ब्रह्मांड को बनाता और चलाता है।  जब हम सभी के शुभ की बात सोचते हैं, तो हमें लगता है कि पूरी दुनिया एक है और धर्म को धारण करने वाला परमात्मा भी एक ही है; उस परमात्मा को बनाने वाली प्रकृति भी एक है। 

जब हम इसे लोभ की दृष्टि से देखने लगते हैं, तब पारिस्थितिकी, पर्यावरण और साझे भविष्य-वर्तमान को भूलकर, हम आमने-सामने खड़े हो जाते हैं तथा धर्म का अधर्म हो जाता है।  जो धर्म सबको एक बनाता है, वही धर्म सत्ता, लाभ, लालच और लोभ प्रबल होने पर, हमें आपस में बांटने लगता है।  इससे हमारी आंखों और दिल-दिमाग का पानी सूख जाता है।  हमारी नदियां सूखने लगती हैं, तो जो सभ्यताएं शिखर पर होती हैं वे भी धरती पर गिर पड़ती हैं।  इसलिए हमें जल-दर्शन को गहराई से समझने की ज़रूरत है।  जल की मान्यता व तीर्थपन बना रहता है, तो हम एक-दूसरे के साथ मिल जाते हैं। 

जल के व्यवहार को देखें ! वह विनम्रता से सदैव नीचे की तरफ बहता है, मरहम बनकर कष्ट को कम करता है; वही जल विषैला बनकर आपस में लड़कर, विश्वयुद्ध का वातावरण निर्माण कर देता है।  आज पूरी दुनिया में तीसरे विश्वयुद्ध का जो वातावरण बन रहा है, वह समानांतर होकर लड़ने वाला नहीं होगा।  वह तो पूरी धरती पर फैलकर होगा, इसलिए ज़्यादा खतरनाक होगा।  जल विश्वयुद्ध की शुरूआत मानवीय विस्थापन से होती है। 

अपनी जगह से विस्थापित लाचार, बेकार और बीमार कुछ भी करने को तैयार रहता है- 'मरता क्या न करता !' जो जल औषधि बनकर कष्ट कम करता है और अपने तीर्थपन से नीरोग रखता है, वही जल आज हमारे जीवन में बाढ़-सुखाड़ लाकर, हमें आपस में लड़ाने के लिए, तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी करवा रहा है। 

विश्वयुद्ध के प्रलय को रोकने के लिए जल के साथ प्यार, सम्मान, सदाचार और विश्वास का व्यवहार करना होगा।  सामुदायिक विकेंद्रित जल-प्रबंधन द्वारा दुनिया को बाढ़-सुखाड़ से मुक्त करने की समयसिद्ध युक्ति सम्भव है।  संयुक्त राष्ट्रसंघ जल शांतिवर्ष में जल संरक्षण के सामुदायिक प्रयासों को बढ़ावा दे, दुनिया की नदियों को पुनर्जीवित करने की दिशा में पहल करे, तभी हम तीसरे विश्वयुद्ध से मुक्ति पा सकेंगे। 

आज भारत में जितने भी तीर्थस्थान हैं सब पर्यटन-स्थान बन गये हैं, तीर्थों के प्रति हमारी भारतीय आस्था, जिसमें पर्यावरण, प्रकृति, धरती, नीर, नारी, नदी, सभी का सम्मान था, आज पर्यटन के कारण लुप्त हो रहा है।  विविधता में एकता का मूल तत्व जल ही है।  जल जितना हमारे शरीर में है, उतना ही हमारी पृथ्वी में है।  लेकिन आज आधुनिक अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी जल को प्रदूषित कर रही है।  प्राकृतिक जल स्रोतों का हम अतिक्रमण कर रह हैं।  यह अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण आधुनिक शिक्षा की देन है।  विद्या को शिक्षा ने नष्ट किया है।  कष्ट बढ़ गया है। 

विश्वयुद्ध के संकट का समाधान तो जीवन की विद्या के अहसास और आभास में निहित है।  विश्व जल शांतिवर्ष घोषित करना एक शुरूआत तो मानी जा सकती है लेकिन इसे अन्य विश्व-वर्ष घोषित करने जैसी औपचारिकता में डाल देंगे तो परिणाम नहीं आयेगा।  शांति नारों, प्रवचनों, पूजा- आरती या उत्सव से नहीं होगी।  अब तो उत्सव, पूजा-पाठ आदि शांति के नहीं, एक-दूसरे को बुलाने व लड़ाने के साधन बन गये हैं।  यही आरती, उत्सव, पूजा- पाठ तीसरे विश्वयुद्ध के केंद्र बन जाएंगे।  इससे बचने के लिए सभी धर्मों के लोगों को पीने के पानी, पेड़-पौधों, उभयचरों, नदी और समुद्र की सुरक्षा करनी होगी। 

जब नदियां सूख जाती हैं, तो समुद्र भी सूख जाता है।  अभी आरएलसी समुद्र पूरी तरह से सूख गया है।  इस समुद्र को अमुदरिया, जो तजाकिस्तान से शुरू होकर उज्बेकिस्तान से होते हुए आरएलसी समुद्र को पोषित करती थी, तथा सुरदरिया, जो तजाकिस्तान से चल कर उज्बेकिस्तान में आकर आरएलसी को पोषित करती थी, ये दो नदियां कपास की खेती करने के कारण सूख गयीं तो इनसे पोषित आरएलसी समुद्र भी सूख गया। 

यह जलवायु-परिवर्तन का बड़ा भयानक चित्र प्रस्तुत करता है।  समुद्र के सूखने की मुख्य वजह आर्थिक लाभ, लोभ और लालच है।  जब उज्बेकिस्तान रूस के स्वामित्व में था तो रूस ने पूरे उज्बेकिस्तान की दोनों नदियों को सुखाया, फिर समुद्र को सुखाया।  आज यह क्षेत्र पर्यावरणीय पीड़ित क्षेत्र घोषित किया गया है।  यह धरती पर घटी बहुत खतरनाक घटना है। 

ये घटनाएं तीसरे विश्वयुद्ध की आयुद्ध सामग्री तैयार कर रही हैं।  धरती का चढ़ता बुखार और बिगड़ते मौसम का मिजाज हमारी आयुद्ध सामग्री है।  जब जल के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है, तभी विश्वास, आस्था, श्रद्धा, निष्ठा और भक्तिभाव का योग बनता है।  जब ये भाव मिट जाते हैं, तब हम भोगी बन जाते हैं।  धर्म दरअसल प्रकृति से प्रेम करना सिखाता है, जल का सम्मान करना सिखाता है।  भारत में नीर, नारी और नदी को नारायण मानने की जो परंपरा थी, वह उसी जल प्रेम से आरम्भ होकर, जल सम्मान की तरफ बढ़ी थी।  सभी धर्मों के लोग मिलकर एक मंच पर आकर, जल-आस्था को पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा का औजार बनाएं।  इससे तीसरा विश्वयुद्ध रुकेगा। 

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Post By: Kesar Singh
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