क्लाइमेट में हो रहे परिवर्तन के खतरनाक परिणामों से विश्व का कोई कोना अछूता नहीं है। बढ़ता तापमान पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति को, प्राकृतिक विनाश को, खाद्यान्न और पानी की असुरक्षा, आर्थिक उतार-चढ़ाव को, अन्य संघर्षों को बढ़ावा ही दे रहा है। समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है, आर्कटिक पिघल रहा है, कोरल रीफ मर रहे हैं, समुद्रों में तेज़ाब की मात्रा बढ़ रही है, जंगल जल रहे हैं। स्पष्ट है स्थितियां अनुकूल नहीं हैं। इससे पहले कि बदलता पर्यावरण ऐसी स्थिति में पहुंचे कि सुधार हो ही न सके, अभी समय है कि हम साहसिक सामूहिक कदम उठायें।
हवा में हर साल करोड़ों टन कार्बन डाई आक्साइड घुलती है। मनुष्य लगातार ग्रीनहाउस गैसों का उत्पादन कर रहा है। विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार साल में हम औद्योगिक पूर्व काल से कम से कम एक डिग्री ऊपर के स्तर पर हैं और वैज्ञानिक बताते हैं कि हम 'अस्वीकार्य खतरे' के निकट पहुंच रहे हैं। सन् 2015 के पेरिस समझौते में यह तय पाया गया था कि तापमान में यह बढ़त दो डिग्री सेल्सियस से कम ही रहनी चाहिए। कोशिश यह होनी चाहिए कि यह 1.5 डिग्री से आगे न बढ़े। लेकिन यदि हम तापमान की इस बढ़त को नहीं रोक पाये खतरा बहुत बढ़ जायेगा।
ध्रुवीय क्षेत्रों और पर्वतों पर बर्फ पहले तो से कहीं तीव्र गति से पिघल रही है। पचास लाख से अधिक आबादी वाले दो तिहाई शहर समुद्री स्तर के बढ़ने से होने वाले खतरों की सीमा में आते हैं। दुनिया की लगभग 40 प्रतिशत आबादी समुद्र तट से सौ किलोमीटर के क्षेत्र में आती है। यदि समय रहते उचित कदम नहीं उठाये गये तो हमारे जीवन-काल में ही न्यूयार्क, शंघाई, अबूधाबी, ओसाका, रियो-री-जेनेरो समेत अन्य कई शहर पानी में डूब सकते हैं!
यह वैश्विक गर्माहट खाने और पानी की सुरक्षा को भी प्रभावित करेगी। तापमान में परिवर्तन का सीधा रिश्ता मिट्टी के क्षरण से है। यह क्षरण उस कार्बन की सीमा को घटा देता है जो पृथ्वी के भीतर समा सकता है। लगभग पचास करोड़ लोग आज इस क्षरण से प्रभावित इलाकों में रहते हैं, और इसके परिणामस्वरूप तीस प्रतिशत खाद्यान्न नष्ट हो रहा है। दूसरी ओर तापमान में परिवर्तन पीने के पानी और कृषि-उत्पादन, दोनों को सीमित बना रहा है।
कई क्षेत्रों में सदियों से लहलहाने वाली फसलें आज खतरे में हैं। इस सबका पहला असर गरीबों पर पड़ता है। यही नहीं, तापमान में वैश्विक वृद्धि दुनिया के सबसे गरीब देशों में आर्थिक उत्पाद की विषमता को भी बढ़ायेगी।
तापमान और मौसम में होने वाले परिवर्तन हमेशा से हमारी पृथ्वी का हिस्सा रहे हैं। धरती पर बढ़ती गर्मी के कारण आज ये खतरनाक परिवर्तन कहीं अधिक प्रभावित कर रहे हैं। गर्म हवाओं, अकाल, टायकून, तूफान आदि से पृथ्वी का कोई भी महाद्वीप अछूता नहीं रहा है। धरती पर होने वाले 90 प्रतिशत विध्वंस के फलस्वरूप लगभग ढाई करोड़ लोग प्रति वर्ष गरीबी के जाल में फंस रहे हैं। अंतराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए भी मौसम का यह परिवर्तन बड़ा खतरा है। ज़मीन, खाद्यान्न, पानी जैसे संसाधनों के लिए संघर्ष बढ़ता जा रहा है, सामाजिक- आर्थिक तनावों में भी वृद्धि हो रही है। बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हो रहे हैं। जलवायु खतरों को बढ़ाता है। अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में पड़ने वाला सूखा राजनीतिक अशांति और हिंसा को बढ़ा रहा है। विश्व बैंक का अनुमान है कि यदि कुछ किया नहीं गया तो अफ्रीका, लातीनी अमेरिका, और दक्षिण एशिया क्षेत्रों में चौदह करोड़ से अधिक लोगों को सन् 2050 तक विस्थापन की त्रासदी झेलनी पड़ेगी।
विज्ञान हमें बताता है कि जलवायु में परिवर्तन अवश्यंभावी है, पर विज्ञान यह भी बताता है कि मौसम की इस मार के ज्वार की गति को अवश्य कम किया जा सकता है। अभी बहुत देर नहीं हुई है। इसके लिए समाज के हर पक्ष में मूलभूत परिवर्तन करने होंगे- खाद्यान्न की खेती, ज़मीन का उपयोग, माल को लाना-ले जाना, अर्थ-व्यवस्था आदि सब क्षेत्र आवश्यक परिवर्तन के दायरे में आते हैं।
जलवायु के परिवर्तन में तकनीकी का निश्चित योगदान रहा है, लेकिन यह बात भी समझनी होगी कि उपयुक्त तकनीक से हम एक बेहतर और स्वच्छ विश्व भी बन सकते हैं। पर्यावरण की 70 प्रतिशत समस्याओं से निपटने के लिए तकनीकी समाधान हमारे पास हैं। साथ ही प्रकृति आधारित समाधान भी हमारी मदद करते हैं। ये समाधान हमारी पर्यावरणीय व्यवस्था के विकार्बनीकरण होने तक हमारे काम आ सकते हैं। शुद्ध पानी, बेहतर जीवन- प्रणाली, स्वस्थ भोजन, बेहतर कृषि- संसाधन आदि के माध्यम से भी पर्यावरण- सुरक्षा की दिशा में कदम बढ़ाये जा सकते हैं। यह दिशा बेहतर विश्व की ओर जाती है। यदि सरकारें, व्यापारी, सिविल सोसायटी, युवा वर्ग, और बुद्धिजीवी साथ मिल कर काम करें तो हम एक ऐसे भविष्य का निर्माण कर सकते हैं जहां कष्ट कम होंगे और जनता और जमीन (पृथ्वी) के बीच बेहतर सामंजस्य होगा।
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