Posted on 19 Jun, 2010 01:12 PMसौ वर्ष पूरे हुए हैं, हिन्द स्वराज को लिखे हुए। पुस्तक में ‘स्वराज क्या है’ नामक अध्याय में पाठक संपादक से कहता है कि ”अंग्रेजों के राज-कारोबार से देश कंगाल होता जा रहा है। वे हर साल देश से धन ले जाते हैं।“ कड़वी सचाई के इस लंबे संवाद से कोई सड़सठ बरस पहले की एक सच्ची घटना का वर्णन है फिरंगी राजा के इस किस्से में। इसमें अच्छा-बुरा सब कुछ है। हिन्द स्वराज में गांधीजी ने अपने इस पाठक से कहा था कि
Posted on 06 Feb, 2010 11:35 AMराधा भट्ट यूं तो पहाड़ की आम महिलाओं जैसी ही नजर आती हैं. लेकिन वे आम नहीं हैं. साधारण तो कतई नहीं. हां, आप उनसे बातचीत करें तो परत दर परत संघर्ष और अनुशासन का एक ऐसा रचनात्मक संसार खुलता चला जाता है, जो उन्हें सबसे अलग करता है.
Posted on 31 Dec, 2009 07:13 PMउत्तरांचल के पहाड़ों में देश के अन्य हिस्सों की तरह सामुदायिक जल प्रबंधन का एक लम्बा इतिहास रहा है। यहां नौला, धारा, मंगरा, ताल, खाल, चाल, बावड़ी, कुंडी इत्यादि जैसे पानी के स्रोत आज भी यहां की भव्य जल परम्परा के परिचायक हैं।
उफरैखाल पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा के मध्य में स्थित है, जिसे पहले राठ कहा जाता था, जिसका अर्थ है पिछड़ा इलाका। यहीं एक दूधातोली लोक विकास संस्थान (दूलोविसं) है, जिसे ‘चिपको आंदोलन’ और ‘वन संवर्धन आंदोलन’ के लिए स्थापित किया गया था। इस संस्थान के संस्थापक श्री सच्चिदानन्द भारती (ढ़ौढ़ियाल) ने इस क्षेत्र में वनों को बचाने और बढ़ाने के लिए यहां के लोगों, विशेषकर महिलाओं
Posted on 31 Dec, 2009 07:27 AMहिमनदों का ढाल, दिशा और ऊंचाई भी हिमनदों के कम और ज्यादा रिसने में योग देता होगा। यह तो विशेषज्ञ ध्यान में रखते ही हैं, और यह तो देखा तथा समझा जा सकता है। लेकिन वर्षा, तापमान तथा वनस्पति की स्थिति के बारे में तो आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए, वो हो जायं तब जाकर हम विश्व तापमान तथा स्थानीय गतिविधियों से बने तापमान का मौसम के प्रभाव का तथा हिमनदों की सही स्थिति की जानकारी पा सकेंगे तथा इसका वर्ष के आधार पर तुलना कर सकेंगे। जहां तक आंकड़ों की बात है, हिमालय के बहुत ही कम इलाकों में अभी तक जलवायु और तापमान से सम्बन्धित स्वचालित संयंत्रों की स्थापना हुई है। तीन सितम्बर(09) की सुबह हमने हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले के काजा से प्रस्थान किया था तो उस समय मौसम सुहावना था, इस शीत रेगिस्तान की छटा देखते ही बन रही थी। पहाड़ियों पर दूर हिमनद दिखायी दे रहा था। हल्का सा काला बादल उसकी चोटी के ऊपर मंडरा रहा था। हमारे दल के प्रमुख महेन्द्र सिंह कुंवर ने अगले दिन हमें आगाह किया था कि सुबह जल्दी प्रस्थान करना है। क्योकि हमे कंजुम दर्रे (4550 मीटर) और रोहतांग दर्रे (3980 मीटर) को पार करना था।
लेकिन जैसे ही हम लोसर (4079 मीटर) पर पहुंचे तो आसमान को काले बादलों ने घेर लिया, आगे टाकचा के मोड़ों के ऊपर चढ़ते-चढ़ते हिम किलियां गिरनी शुरू हो गयी थीं, इससे आगे कंजुम पास के मैदान बर्फ की चादर से आच्छादित था। नीचे के मोड़ों पर भी काफी बर्फ गिर चुकी थी, यहां पर कुकड़ी-माकुड़ी
Posted on 27 Dec, 2009 09:21 AMजोशीमठ के ऊपर 10,000 फीट ऊँचे ऑली में जो 200 करोड़ रुपए से अधिक का काम दक्षिण एशिया के शीत खेलों के लिये केन्द्र तथा उत्तराखंड सरकार ने किया था, उसका काफी कुछ भाग इस साल की पहली ही वर्षा में बह कर जोशीमठ शहर तथा उसके आसपास के गाँवों में आ गया। ये खेल पिछले शीत काल में होने थे, किंतु तब तक तैयारियाँ न होने के कारण इन्हें दिसंबर 2009 तक के लिये आगे बढ़ा दिया गया। काम
Posted on 26 Nov, 2009 08:07 AMये प्रतिगामी विकास है, प्रलय की ओर ले जाने वाला, सारी वसुधा को तापमान वृध्दि के बुखार की तपन में धकेलने वाला है ये विकास। संसार इस विकास से हुए विध्वंस को जान गया है, परेशान है कि समाधान कहां से लाएं लेकिन हमारे हुक्मरां हैं कि अभी भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। उन्हें विद्युत उत्पादन के वे तरीके सूझ ही नहीं रहे हैं जिनसे हमारा आज रौशन तो होगा ही हमारे आने वाला कल भी रौशन रहेगा। विस्थापन की मार से दूर हमारी दुनिया सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति तब और ज्यादा प्रतिबध्द होगी।देश में बांधों की बाढ़ आ गई है। हिमाचल प्रदेश से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक और उत्तराखण्ड से लेकर सुदूर केरल तक बांधों की पौ-बारह है। ‘ले बांध, दे बांध’ की तर्ज पर सरकारी मशीनरी बांध प्रस्तावों पर तेजी से कार्रवाई कर रही हैं। एक-एक नदी के प्रवाह पर दर्जनों बांध परियोजनाएं, कुछ मंझोली तो कुछ विशालकाय, कहीं पर सरकारी तो कहीं अर्ध सरकारी और कहीं गैर सरकारी निवेश से ये परियोजनाएं देश को विकास के नव युग में ले जाने को आतुर हो चली हैं।
ये अलग मुद्दा है कि इसी बीच नेपाल-बिहार सीमा पर कहीं कोई कोसी बांध दरकता है और पचासों हजार लोग एक
Posted on 24 Nov, 2009 06:49 AMनदियों के प्रति काका कालेलकर का भाव दृष्टव्य है ``नदी को देखते ही मन में विचार आता है कि यह कहां से आती है और कहां जाती है ... आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी से ही मिली होगी ....। संसार का हर व्यक्ति पेयजल, खाद्य पादर्थ, मत्स्य पालन, पशु पालन, कृषि एवं सिंचाई साधन आदि के लिए नदी जल परम्परा से जुड़ा है। जल चक्र की नियामक धारा स्वरूपा इन नदियों को सहेजना हमारा धर्म है। अब वक्त आ गया है कि हम उन कारणों को खोजे जो हमारी नदियों एवं जल वितरणिकाओं को निर्जला कर रहे हैं। हमारी रसवसना नदियों को सुखाकर अथवा प्रदूषित कर हमारी आँखों में आँसू भर रहे है।