राधा भट्ट यूं तो पहाड़ की आम महिलाओं जैसी ही नजर आती हैं. लेकिन वे आम नहीं हैं. साधारण तो कतई नहीं. हां, आप उनसे बातचीत करें तो परत दर परत संघर्ष और अनुशासन का एक ऐसा रचनात्मक संसार खुलता चला जाता है, जो उन्हें सबसे अलग करता है.
राधा भट्ट का नाम आज गांधी-विनोबा युग के बचे हुए थोड़े से गांधीवादियों में प्रमुखता से शुमार किया जाता है. वे आज देश और दुनिया के शीर्षस्थ गांधीवादी संस्थाओं और संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर हैं और इन पदों की जिम्मेदारियों का निर्वाह एक मिसाल की तरह करती रही हैं. यही वजह थी कि उनका नाम नोबल पुरस्कार के लिए मनोनीत होने वाली सौ महिलाओं की सूची में शामिल किया गया था. वे अपनी उपलब्धियों को लेकर असाधारण हैं पर वे आम लोगों से कोई दूरी नहीं बनने देती हैं.
राधा दीदी को आज की राधा भट्ट होने के लिए भले लंबे प्रयत्न करने पड़े हों और ढेरों निजी आकांक्षाओं की कुरबानी देनी पड़ी हों लेकिन वह अपने जीवन के 75वें साल के सफर में आज जिस मुकाम पर हैं, वह उनकी सूझबूझ, दृढ़ता और हिम्मत की उपलब्धि है. यह उपलब्धि बहुतों के लिए प्रेरणास्रोत्र है.
आज 75 साल की उम्र में भी वह लगातार सक्रिय हैं. पहाड़, देश और दुनिया के अनेक देशों में उनका आना-जाना लगा रहता है. उन पर उम्र का कोई असर नहीं है. यात्रा और यात्रा! इन यात्राओं से गुजर कर वे कभी थकती नहीं हैं, बल्कि और आगे और देर तक चलने के लिए नई ऊर्जा भी अर्जित कर लेती हैं.
बचपन में अल्मोड़ा जिले में अपने गांव धुरका से नैनीताल जिले के रामगढ़ तक की लंबी पदयात्रा से लेकर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन और उत्ताराखंड में चिपको आंदोलन, शराबबंदी और खनन व नदी बचाओ जैसे आंदोलनों के दौरान की गई पदयात्राओं ने राधा दीदी के व्यक्तित्व का निर्माण किया है. बचपन में बड़े भाई और बाद में सरला बहन, फिर लक्ष्मी आश्रम की बच्चियों के साथ और अब देश भर में जगह-जगह चल रहे विभिन्न आंदोलनों के लिए चलने वाली यात्राओं में भी वे शरीक होने में वे हमेशा आगे रहती हैं.
राधा दीदी की छह-सात साल की उम्र की स्मृतियों में जाएं तो उन्हें अपने गांव धुरका स्थित अपने घर से पोखरी तक अपनी मॉ के पीछे-पीछे चलने की यात्रा आज भी याद है. इसके बाद जब उन्होंने घर से ननिहाल तक करीब बारह किलोमीटर की उतार-चढ़ाव वाली लंबी पहाड़ी पगडंडियों पर यात्रा की तो इसके अनुभवों ने उनमें इतना उत्साह भर दिया था कि वह कभी भी कहीं भी अपने उद्देश्यों के लिए चल देतीं.
अल्मोड़ा जिले में अपने गांव में पढ़ाई की व्यवस्था नहीं होने के कारण राधा दीदी और उनके बड़े भाई को नैनीताल जिले के रामगढ़ में दादा की निगरानी में पढ़ने के लिए रखा. राधा दीदी और उनके बड़े भाई की छुट्टियों में अपने गांव धुरका लौटते थे. साठ-सत्तर मील की यात्रा पैदल ही करते थे. घर पहुंचते-पहुंचते उन्हें रास्ते में दो-दो रातें अनजान गांवों में पड़ाव डालना पड़ता था. इन भाई-बहनों को इन्हीं दिनों में हलद्वानी मंडी से साल भर की जरूरत के लिए गुड़ लाने वाले जत्थे मिल जाते, जिससे इनकी यात्रा न सिर्फ सुरक्षित और मजेदार बल्कि आसान हो जाती थी.
राधा दीदी बताती हैं “ मैं हर साल बड़े उत्साह से इन दिनों की प्रतीक्षा करती थी जब गांवों के बीच ऐसी टोली के साथ हम फिर से पैदल चलते. गांव, उनके लोग व उनके सोच के प्रति मेरी रूचि जागी थी, पहली बार नौ-दस वर्ष की लड़की की शादी और विदाई पर उस बच्ची का जोर से चिल्ला-चिल्ला कर रोना भी मैंने तभी देखा था और मन की मन दृढ़ता से सोचा था कि मैं नहीं करूंगी शादी.”
वे अपने इस संकल्प पर टिकी रहीं. राधा दीदी ने तय कर लिया कि वह आजीवन समाज सेवा ही करेंगी. “ सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों को भी बेहतर से बेहतर काम के लिए आगे आना चाहिए”, यह संदेश उन्हें बचपन में आर्य समाज के स्कूल में पढ़ते हुए मिल गया था, जिसे राधा दीदी ने अपने जीवन में चरितार्थ करके दिखाया.
स्कूल में राधा दीदी अपनी पाठय-पुस्तकों में रमी रहतीं लेकिन सार्वजनिक जीवन का पहला पाठ उन्होंने इन यात्राओं में ही पढ़ा. ये जत्थे जिस गांव में रूकते वहां राधा दीदी ही घर-घर जाकर खाने के बर्तन और अन्य जरूरतों के लिए गृह स्वामियों से संपर्क करतीं. विश्राम के दौरान विभिन्न विषयों पर चर्चा होती. मसलन स्त्री-शिक्षा, आर्य समाज, गांधी और देश-विदेश के बारे में चर्चा होती.
राधा दीदी कहती हैं “ बचपन की इन बातों का किसी और के लिए क्या महत्व हो सकता है, नहीं जानती. लेकिन मेरे पदयात्रा के जीवन में इन यात्राओं का बड़ा महत्व है. दिन भर चलने के बाद शाम का सहजीवन हो, ग्रामवासियों का वह निष्छल विश्वास और उनकी उत्सुकतापूर्ण चर्चाएं हों या दिन में जंगलों के बीच घाटियों को गुंजाने वाले हमारी टोली के गीत हों या मन को मोहने वाली ऐसी कहानियां जो अधिकतर लंबी चढ़ाइयों को पार करने के लिए बड़े ही विश्रांत तरीके से कही जाती थीं या फिर मानव रहित स्थान पर ठिनक पाड़ कर आग जलाना, लोगों का तंबाकू पीते हुए ठहाका लगा कर हंसना हो, इस सबके बारे में मेरे मन में एक रस पैदा होता था.”
राधा दीदी ऐसी यात्राओं के आने के दिन गिनते हुए उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती थीं. बचपन की इन यात्राओं ने उन्हें सामूहिक जीवन जीने की सीख दी. उनका यह अनुभव ही बाद में लक्ष्मी आश्रम को आगे बढ़ाने में काम आया. यह संयोग ही था कि यात्राओं को अपने जीवन की पाठशाला मानने वाली राधा दीदी को इस आश्रम में आने बाद और भी बड़ी-बड़ी यात्राओं में शामिल होने का मौका मिला और ये यात्राएं उनके व्यक्तित्व को तराशती रहीं.
17 वर्ष की उम्र में 1951 में लक्ष्मी आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने यहीं सबसे पहले भूदान पदयात्रा के बारे में जाना. यात्रा से दीदी को तो कोई बैर कभी रहा नहीं, सो वे भूदान और ग्रामदान यात्राओं में शरीक होने लगी. इसके बाद तो उनकी यात्राओं का अंतहीन सिलसिला चल पड़ा.
उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और असम में सैंकड़ों किलोमीटर पैरों से ही नाप लिया. इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्हें देश भर के सर्वोदय साथियों को भी करीब से जानने का मौका मिला. इन यात्राओं का जिक्र चलता है तो राधा दीदी अक्सर कहती हैं, “ सरला बहन के साथ पदयात्रा करना जीवन को गढ़ने की एक सचल पाठशाला होती थी, एक जंगम विद्यापीठ होती थी.”
पचास के दशक में उन्होंने सरला बहन के साथ सघन यात्राएं की.
लक्ष्मी आश्रम में राधा दीदी के आने की कहानी भी अलग है. पिता ने उन्हें यहां इसलिए पहुंचा दिया था कि वह आश्रम के कड़े नियमों के सामने घुटने टेक देगी और अपने थैले-बिस्तर लेकर घर वापस लौट आएगी तब तो फिर वह शादी के लिए भी तैयार हो जाएगी. गांव के आसपास स्कूल कॉलेज नहीं होने के कारण उनके पिता को अपनी बेटी को बहुत दूर भेज कर पढ़ाने में न कोई दिलचस्पी थी और न सामर्थ्य ही था.
लेकिन ऊँची शिक्षा लेने की जिद पर अड़ी बेटी के सामने वे विवश थे. लक्ष्मी आश्रम में राधा दीदी भले ही आगे की शिक्षा के लिए आई थीं, पर उन्हें अपने से छोटियों को शिक्षित करने में लगा दिया. सरला बहन ने आश्रम आते ही राधा दीदी को अंग्रेजी पढ़ने और कविता लेखन आदि से भी परहेज करने की हिदायत दे दी. ऐसी-ऐसी कई पाबंदियों और कई कड़े नियमों को अपनाते हुए राधा दीदी ने खुद को आश्रम के मुताबिक जल्दी ही ढाल लिया और इसके बाद वह कभी भी उस तरह से घर नहीं लौटी, जैसी उम्मीदों से उनके पिता भरे हुए थे. वह खुद भी नहीं लौटीं और अपनी अन्य बहनों को भी आश्रम से जोड़ा.
यह राधा दीदी ही थीं जो अपनी बुध्दिमता, श्रमनिष्ठा और सरल-सहज व्यवहार की वजह से बहुत जल्दी ही आश्रम की एक लोकप्रिय शिक्षिका बन गईं. हालांकि आश्रम में गांधी प्रणीत बुनियादी शिक्षा का ही इंतजाम था, लेकिन उन्होंने इसे भी जल्दी समझ लिया और कौसानी से अकेले ही प्रशिक्षण के लिए सेवाग्राम भी गई. तब अकेली लड़कियां गांव-गली-मुहल्ले की यात्रा अकेले नहीं करती थी, पर राधा दीदी ने इसे कोई चुनौती नहीं समझा. वह निर्भिक होकर सेवाग्राम पहुंच गईं. राधा दीदी ने तब ही पहली बार रेल का दर्शन भी किया था और उस पर यात्रा भी की थी.
राधा दीदी ने अब तक जो भी शिक्षा हासिल की थी, वह आर्य समाज स्कूल के बंद कमरों में, लेकिन आश्रम में उन्होंने देखा कि बच्चियॉ पेड़ के नीचे अपनी शिक्षिकाओं से शिक्षा लेती थी. शिक्षा हासिल करने का यह मुक्त स्वरूप राधा दीदी को बहुत भाया. इसी के साथ उन्हें खुले मन की सरला बहन जैसी गुरू मिली.
लक्ष्मी आश्रम वास्तव में सिर्फ सरला बहन की ही नहीं, बल्कि राधा दीदी के निरंतर कोशिशों की स्मृतियों का भी केंद्र है. सालों पहले स्थापित इस आश्रम की स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया का इससे ही अंदाजा लग सकता है कि इसे एक विदेशी युवती ने शुरु किया और उसकी उतराधिकारी एक पर्वतीय युवती राधा बहन बनीं. 23 सालों तक इसके संचालन के बाद जब राधा बहन के कंधे पर देश भर की संस्थाओं-संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ती गई तो इन्होंने आश्रम का जिम्मा नीमा वैष्णव को सौंप दिया.
सरला बहन विदेशी थीं लेकिन उन्होंने देशज संस्कृति को आत्मसात कर लिया था. वे जब भारत छोड़ कर गईं तो भी राधा भट्ट उनसे लगातार पत्राचार से मार्गदर्शन लेती रहीं. यह पत्राचार अब पुस्तकाकार है, जिसे पढ़ने से राधा दीदी और सरला बहन के बीच के संबंधों का ही नहीं बल्कि बदलते विरासत होते लक्ष्मी आश्रम के निखरते नए स्वरूपों का भी दिग्दर्शन हो जाता है.
राधा दीदी को किसी भी पहल के लिए अनुमति देने के पहले सरला बहन बहुत कठोरता से जांचती तभी इजाजत देती. उन्होंने राधा दीदी को बुनियादी शिक्षा के लिए अकेले सेवाग्राम जाने की अनुमति दे दी. इसके बाद 1965 में पहली बार राधा भट्ट को विदेश यात्रा के लिए डेनमार्क जाने का निमंत्रण आया. स्कूल जीवन में अंग्रेजी को अपने कस्बे में लाने का प्रयास करने वाली राधा दीदी ने आश्रम आते ही सरला बहन के कहने पर अंग्रेजी छोड़ दी थी. लेकिन जब उनको डेनमार्क जाना था तो उन्होंने आश्रम में ही अंग्रेजी सीखनी शुरू की. इसमें उनके एक विदेशी मित्र ने मदद की.
राधा दीदी ने पहली बार 1965 में विदेश की यात्रा की. इस दौरान उन्होंने डेनमार्क में प्रौढ़ शिक्षा का डिप्लोमा लिया और स्कैंडिनेवियन देशों डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में फोक हाईस्कूलों का अध्ययन किया. यह विदेश यात्रा राधा दीदी के लिए कई तरह के नए अनुभवों के रूप में सामने आई.
विदेश यात्रा से लौटने के बाद स्थितियां तेजी से बदलीं. राधा बहन लक्ष्मी आश्रम की मंत्रर और संचालिका बनाई गई. उनके संचालन के दौरान लक्ष्मी आश्रम के भले ही कुछ नियम-कायदे में संशोधन किया गया लेकिन आश्रम की मूल आत्मा को यथावत रखा गया. उनके दौर में पर्वतीय बालिकाओं और युवतियों को बेहतर शिक्षण-प्रशिक्षण का मौका मिला. साथ ही आश्रम में कई नई गतिविधियों की शुरूआत भी हुई. खादी ग्रामोद्योग और पर्यावरण के क्षेत्र में कई कार्यक्रम शुरू हुए. वर्षों से शांति से शिक्षा देने वाला आश्रम का आंदोलनो-अभियानों के रूपों में भी सामने आया.
इसी दौर में उतराखंड में शराबबंदी आंदोलन शुरू हुआ जिसमें राधा दीदी के नेतृत्व में आश्रम की युवतियों ने सक्रिय भूमिका निभाई. खुद राधा दीदी इस आंदोलन के दौरान दो बार जेल भी गईं. सरकार को उन्हें जेल भेजने की मजबूरी इसलिए आई कि राधा दीदी के नेतृत्व में महिलाओं का संगठन सशक्त और सक्रिय हुआ. इस आंदोलन का उतराखंड की महिलाओं पर ये असर हुआ कि वे अपने गांव-कस्बे के हक के लिए आज भी कहीं से भी आंदोलन छेड़ देती हैं.
आश्रम अपने नए-नए परिवर्तनों के साथ आगे बढ़ ही रहा था कि उतराखंड में चिपको आंदोलन भी शुरू हो गया. इस आंदोलन में भी राधा दीदी खूब सक्रिय रहीं और उनको इस सक्रियता की वजह से आश्रम को भी एक नई पहचान मिली और यहां पढ़ने वाली लड़कियों को भी नए-नए अनुभवों-प्रयोगों से गुजरने का मौका मिला. उत्तराखंड और देश के दूसरे हिस्सों में राधा दीदी के चलाए हुए कार्यक्रम और आंदोलन आज भी हजारों-लाखों लोगों के लिए एक उदाहरण की तरह है.
राधा दीदी का महिला व्यवसाय के विकास के क्षेत्र में किया गया योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने हस्तकलाओं द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करने वाली महिलाओं के लिए सुविधाएं संसाधन और उत्पादन के लिए बाजार प्राप्त हो- इसके मद्देनजर सरकारी नीतियां बदलने के लिए अभियान चलाया और महिला-हाट नाम की एक संस्था का गठन किया. इस संस्था से कुमाऊँ-गढ़वाल की कारीगर महिलाओं को निरंतर प्रत्यक्ष काम का मौका मिल रहा है.
इन्दौर में कस्तुरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की राष्ट्रीय सचिव के रूप में काम करने का राधा दीदी को मौका मिला तो उन्होंने अपनी कार्यक्षमता और सुझबुझ से यहां के कार्यक्रमों को अपने आठ साल के कार्यकाल में और विस्तार दिया.
देशभर की दर्जनों महत्वपूर्ण संस्थाओं में राधा दीदी ऊँचे पदों पर सम्मान के साथ बिठाई गई हैं. गांधी शांति प्रतिष्ठान की वे अध्यक्ष हैं तो लक्ष्मी आश्रम को उनका मार्गदर्शन आज भी मिल रहा है. हिमालय सेवा संघ, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट इंदौर, हिमवंती (नेपाल), केन्द्रीय गांधी स्मारक निधि, नई दिल्ली जैसी संस्थाओं में उनकी सक्रियता बनी हुई है. सक्रियता भी असाधारण. आखिर राधा दीदी साधारण नहीं हैं.
राधा भट्ट का नाम आज गांधी-विनोबा युग के बचे हुए थोड़े से गांधीवादियों में प्रमुखता से शुमार किया जाता है. वे आज देश और दुनिया के शीर्षस्थ गांधीवादी संस्थाओं और संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर हैं और इन पदों की जिम्मेदारियों का निर्वाह एक मिसाल की तरह करती रही हैं. यही वजह थी कि उनका नाम नोबल पुरस्कार के लिए मनोनीत होने वाली सौ महिलाओं की सूची में शामिल किया गया था. वे अपनी उपलब्धियों को लेकर असाधारण हैं पर वे आम लोगों से कोई दूरी नहीं बनने देती हैं.
राधा दीदी को आज की राधा भट्ट होने के लिए भले लंबे प्रयत्न करने पड़े हों और ढेरों निजी आकांक्षाओं की कुरबानी देनी पड़ी हों लेकिन वह अपने जीवन के 75वें साल के सफर में आज जिस मुकाम पर हैं, वह उनकी सूझबूझ, दृढ़ता और हिम्मत की उपलब्धि है. यह उपलब्धि बहुतों के लिए प्रेरणास्रोत्र है.
आज 75 साल की उम्र में भी वह लगातार सक्रिय हैं. पहाड़, देश और दुनिया के अनेक देशों में उनका आना-जाना लगा रहता है. उन पर उम्र का कोई असर नहीं है. यात्रा और यात्रा! इन यात्राओं से गुजर कर वे कभी थकती नहीं हैं, बल्कि और आगे और देर तक चलने के लिए नई ऊर्जा भी अर्जित कर लेती हैं.
बचपन में अल्मोड़ा जिले में अपने गांव धुरका से नैनीताल जिले के रामगढ़ तक की लंबी पदयात्रा से लेकर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन और उत्ताराखंड में चिपको आंदोलन, शराबबंदी और खनन व नदी बचाओ जैसे आंदोलनों के दौरान की गई पदयात्राओं ने राधा दीदी के व्यक्तित्व का निर्माण किया है. बचपन में बड़े भाई और बाद में सरला बहन, फिर लक्ष्मी आश्रम की बच्चियों के साथ और अब देश भर में जगह-जगह चल रहे विभिन्न आंदोलनों के लिए चलने वाली यात्राओं में भी वे शरीक होने में वे हमेशा आगे रहती हैं.
राधा दीदी की छह-सात साल की उम्र की स्मृतियों में जाएं तो उन्हें अपने गांव धुरका स्थित अपने घर से पोखरी तक अपनी मॉ के पीछे-पीछे चलने की यात्रा आज भी याद है. इसके बाद जब उन्होंने घर से ननिहाल तक करीब बारह किलोमीटर की उतार-चढ़ाव वाली लंबी पहाड़ी पगडंडियों पर यात्रा की तो इसके अनुभवों ने उनमें इतना उत्साह भर दिया था कि वह कभी भी कहीं भी अपने उद्देश्यों के लिए चल देतीं.
अल्मोड़ा जिले में अपने गांव में पढ़ाई की व्यवस्था नहीं होने के कारण राधा दीदी और उनके बड़े भाई को नैनीताल जिले के रामगढ़ में दादा की निगरानी में पढ़ने के लिए रखा. राधा दीदी और उनके बड़े भाई की छुट्टियों में अपने गांव धुरका लौटते थे. साठ-सत्तर मील की यात्रा पैदल ही करते थे. घर पहुंचते-पहुंचते उन्हें रास्ते में दो-दो रातें अनजान गांवों में पड़ाव डालना पड़ता था. इन भाई-बहनों को इन्हीं दिनों में हलद्वानी मंडी से साल भर की जरूरत के लिए गुड़ लाने वाले जत्थे मिल जाते, जिससे इनकी यात्रा न सिर्फ सुरक्षित और मजेदार बल्कि आसान हो जाती थी.
राधा दीदी बताती हैं “ मैं हर साल बड़े उत्साह से इन दिनों की प्रतीक्षा करती थी जब गांवों के बीच ऐसी टोली के साथ हम फिर से पैदल चलते. गांव, उनके लोग व उनके सोच के प्रति मेरी रूचि जागी थी, पहली बार नौ-दस वर्ष की लड़की की शादी और विदाई पर उस बच्ची का जोर से चिल्ला-चिल्ला कर रोना भी मैंने तभी देखा था और मन की मन दृढ़ता से सोचा था कि मैं नहीं करूंगी शादी.”
वे अपने इस संकल्प पर टिकी रहीं. राधा दीदी ने तय कर लिया कि वह आजीवन समाज सेवा ही करेंगी. “ सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों को भी बेहतर से बेहतर काम के लिए आगे आना चाहिए”, यह संदेश उन्हें बचपन में आर्य समाज के स्कूल में पढ़ते हुए मिल गया था, जिसे राधा दीदी ने अपने जीवन में चरितार्थ करके दिखाया.
स्कूल में राधा दीदी अपनी पाठय-पुस्तकों में रमी रहतीं लेकिन सार्वजनिक जीवन का पहला पाठ उन्होंने इन यात्राओं में ही पढ़ा. ये जत्थे जिस गांव में रूकते वहां राधा दीदी ही घर-घर जाकर खाने के बर्तन और अन्य जरूरतों के लिए गृह स्वामियों से संपर्क करतीं. विश्राम के दौरान विभिन्न विषयों पर चर्चा होती. मसलन स्त्री-शिक्षा, आर्य समाज, गांधी और देश-विदेश के बारे में चर्चा होती.
राधा दीदी कहती हैं “ बचपन की इन बातों का किसी और के लिए क्या महत्व हो सकता है, नहीं जानती. लेकिन मेरे पदयात्रा के जीवन में इन यात्राओं का बड़ा महत्व है. दिन भर चलने के बाद शाम का सहजीवन हो, ग्रामवासियों का वह निष्छल विश्वास और उनकी उत्सुकतापूर्ण चर्चाएं हों या दिन में जंगलों के बीच घाटियों को गुंजाने वाले हमारी टोली के गीत हों या मन को मोहने वाली ऐसी कहानियां जो अधिकतर लंबी चढ़ाइयों को पार करने के लिए बड़े ही विश्रांत तरीके से कही जाती थीं या फिर मानव रहित स्थान पर ठिनक पाड़ कर आग जलाना, लोगों का तंबाकू पीते हुए ठहाका लगा कर हंसना हो, इस सबके बारे में मेरे मन में एक रस पैदा होता था.”
राधा दीदी ऐसी यात्राओं के आने के दिन गिनते हुए उत्साह के साथ प्रतीक्षा करती थीं. बचपन की इन यात्राओं ने उन्हें सामूहिक जीवन जीने की सीख दी. उनका यह अनुभव ही बाद में लक्ष्मी आश्रम को आगे बढ़ाने में काम आया. यह संयोग ही था कि यात्राओं को अपने जीवन की पाठशाला मानने वाली राधा दीदी को इस आश्रम में आने बाद और भी बड़ी-बड़ी यात्राओं में शामिल होने का मौका मिला और ये यात्राएं उनके व्यक्तित्व को तराशती रहीं.
17 वर्ष की उम्र में 1951 में लक्ष्मी आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने यहीं सबसे पहले भूदान पदयात्रा के बारे में जाना. यात्रा से दीदी को तो कोई बैर कभी रहा नहीं, सो वे भूदान और ग्रामदान यात्राओं में शरीक होने लगी. इसके बाद तो उनकी यात्राओं का अंतहीन सिलसिला चल पड़ा.
उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और असम में सैंकड़ों किलोमीटर पैरों से ही नाप लिया. इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्हें देश भर के सर्वोदय साथियों को भी करीब से जानने का मौका मिला. इन यात्राओं का जिक्र चलता है तो राधा दीदी अक्सर कहती हैं, “ सरला बहन के साथ पदयात्रा करना जीवन को गढ़ने की एक सचल पाठशाला होती थी, एक जंगम विद्यापीठ होती थी.”
पचास के दशक में उन्होंने सरला बहन के साथ सघन यात्राएं की.
लक्ष्मी आश्रम में राधा दीदी के आने की कहानी भी अलग है. पिता ने उन्हें यहां इसलिए पहुंचा दिया था कि वह आश्रम के कड़े नियमों के सामने घुटने टेक देगी और अपने थैले-बिस्तर लेकर घर वापस लौट आएगी तब तो फिर वह शादी के लिए भी तैयार हो जाएगी. गांव के आसपास स्कूल कॉलेज नहीं होने के कारण उनके पिता को अपनी बेटी को बहुत दूर भेज कर पढ़ाने में न कोई दिलचस्पी थी और न सामर्थ्य ही था.
लेकिन ऊँची शिक्षा लेने की जिद पर अड़ी बेटी के सामने वे विवश थे. लक्ष्मी आश्रम में राधा दीदी भले ही आगे की शिक्षा के लिए आई थीं, पर उन्हें अपने से छोटियों को शिक्षित करने में लगा दिया. सरला बहन ने आश्रम आते ही राधा दीदी को अंग्रेजी पढ़ने और कविता लेखन आदि से भी परहेज करने की हिदायत दे दी. ऐसी-ऐसी कई पाबंदियों और कई कड़े नियमों को अपनाते हुए राधा दीदी ने खुद को आश्रम के मुताबिक जल्दी ही ढाल लिया और इसके बाद वह कभी भी उस तरह से घर नहीं लौटी, जैसी उम्मीदों से उनके पिता भरे हुए थे. वह खुद भी नहीं लौटीं और अपनी अन्य बहनों को भी आश्रम से जोड़ा.
यह राधा दीदी ही थीं जो अपनी बुध्दिमता, श्रमनिष्ठा और सरल-सहज व्यवहार की वजह से बहुत जल्दी ही आश्रम की एक लोकप्रिय शिक्षिका बन गईं. हालांकि आश्रम में गांधी प्रणीत बुनियादी शिक्षा का ही इंतजाम था, लेकिन उन्होंने इसे भी जल्दी समझ लिया और कौसानी से अकेले ही प्रशिक्षण के लिए सेवाग्राम भी गई. तब अकेली लड़कियां गांव-गली-मुहल्ले की यात्रा अकेले नहीं करती थी, पर राधा दीदी ने इसे कोई चुनौती नहीं समझा. वह निर्भिक होकर सेवाग्राम पहुंच गईं. राधा दीदी ने तब ही पहली बार रेल का दर्शन भी किया था और उस पर यात्रा भी की थी.
राधा दीदी ने अब तक जो भी शिक्षा हासिल की थी, वह आर्य समाज स्कूल के बंद कमरों में, लेकिन आश्रम में उन्होंने देखा कि बच्चियॉ पेड़ के नीचे अपनी शिक्षिकाओं से शिक्षा लेती थी. शिक्षा हासिल करने का यह मुक्त स्वरूप राधा दीदी को बहुत भाया. इसी के साथ उन्हें खुले मन की सरला बहन जैसी गुरू मिली.
लक्ष्मी आश्रम वास्तव में सिर्फ सरला बहन की ही नहीं, बल्कि राधा दीदी के निरंतर कोशिशों की स्मृतियों का भी केंद्र है. सालों पहले स्थापित इस आश्रम की स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया का इससे ही अंदाजा लग सकता है कि इसे एक विदेशी युवती ने शुरु किया और उसकी उतराधिकारी एक पर्वतीय युवती राधा बहन बनीं. 23 सालों तक इसके संचालन के बाद जब राधा बहन के कंधे पर देश भर की संस्थाओं-संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ती गई तो इन्होंने आश्रम का जिम्मा नीमा वैष्णव को सौंप दिया.
सरला बहन विदेशी थीं लेकिन उन्होंने देशज संस्कृति को आत्मसात कर लिया था. वे जब भारत छोड़ कर गईं तो भी राधा भट्ट उनसे लगातार पत्राचार से मार्गदर्शन लेती रहीं. यह पत्राचार अब पुस्तकाकार है, जिसे पढ़ने से राधा दीदी और सरला बहन के बीच के संबंधों का ही नहीं बल्कि बदलते विरासत होते लक्ष्मी आश्रम के निखरते नए स्वरूपों का भी दिग्दर्शन हो जाता है.
राधा दीदी को किसी भी पहल के लिए अनुमति देने के पहले सरला बहन बहुत कठोरता से जांचती तभी इजाजत देती. उन्होंने राधा दीदी को बुनियादी शिक्षा के लिए अकेले सेवाग्राम जाने की अनुमति दे दी. इसके बाद 1965 में पहली बार राधा भट्ट को विदेश यात्रा के लिए डेनमार्क जाने का निमंत्रण आया. स्कूल जीवन में अंग्रेजी को अपने कस्बे में लाने का प्रयास करने वाली राधा दीदी ने आश्रम आते ही सरला बहन के कहने पर अंग्रेजी छोड़ दी थी. लेकिन जब उनको डेनमार्क जाना था तो उन्होंने आश्रम में ही अंग्रेजी सीखनी शुरू की. इसमें उनके एक विदेशी मित्र ने मदद की.
राधा दीदी ने पहली बार 1965 में विदेश की यात्रा की. इस दौरान उन्होंने डेनमार्क में प्रौढ़ शिक्षा का डिप्लोमा लिया और स्कैंडिनेवियन देशों डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में फोक हाईस्कूलों का अध्ययन किया. यह विदेश यात्रा राधा दीदी के लिए कई तरह के नए अनुभवों के रूप में सामने आई.
विदेश यात्रा से लौटने के बाद स्थितियां तेजी से बदलीं. राधा बहन लक्ष्मी आश्रम की मंत्रर और संचालिका बनाई गई. उनके संचालन के दौरान लक्ष्मी आश्रम के भले ही कुछ नियम-कायदे में संशोधन किया गया लेकिन आश्रम की मूल आत्मा को यथावत रखा गया. उनके दौर में पर्वतीय बालिकाओं और युवतियों को बेहतर शिक्षण-प्रशिक्षण का मौका मिला. साथ ही आश्रम में कई नई गतिविधियों की शुरूआत भी हुई. खादी ग्रामोद्योग और पर्यावरण के क्षेत्र में कई कार्यक्रम शुरू हुए. वर्षों से शांति से शिक्षा देने वाला आश्रम का आंदोलनो-अभियानों के रूपों में भी सामने आया.
इसी दौर में उतराखंड में शराबबंदी आंदोलन शुरू हुआ जिसमें राधा दीदी के नेतृत्व में आश्रम की युवतियों ने सक्रिय भूमिका निभाई. खुद राधा दीदी इस आंदोलन के दौरान दो बार जेल भी गईं. सरकार को उन्हें जेल भेजने की मजबूरी इसलिए आई कि राधा दीदी के नेतृत्व में महिलाओं का संगठन सशक्त और सक्रिय हुआ. इस आंदोलन का उतराखंड की महिलाओं पर ये असर हुआ कि वे अपने गांव-कस्बे के हक के लिए आज भी कहीं से भी आंदोलन छेड़ देती हैं.
आश्रम अपने नए-नए परिवर्तनों के साथ आगे बढ़ ही रहा था कि उतराखंड में चिपको आंदोलन भी शुरू हो गया. इस आंदोलन में भी राधा दीदी खूब सक्रिय रहीं और उनको इस सक्रियता की वजह से आश्रम को भी एक नई पहचान मिली और यहां पढ़ने वाली लड़कियों को भी नए-नए अनुभवों-प्रयोगों से गुजरने का मौका मिला. उत्तराखंड और देश के दूसरे हिस्सों में राधा दीदी के चलाए हुए कार्यक्रम और आंदोलन आज भी हजारों-लाखों लोगों के लिए एक उदाहरण की तरह है.
राधा दीदी का महिला व्यवसाय के विकास के क्षेत्र में किया गया योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने हस्तकलाओं द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करने वाली महिलाओं के लिए सुविधाएं संसाधन और उत्पादन के लिए बाजार प्राप्त हो- इसके मद्देनजर सरकारी नीतियां बदलने के लिए अभियान चलाया और महिला-हाट नाम की एक संस्था का गठन किया. इस संस्था से कुमाऊँ-गढ़वाल की कारीगर महिलाओं को निरंतर प्रत्यक्ष काम का मौका मिल रहा है.
इन्दौर में कस्तुरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की राष्ट्रीय सचिव के रूप में काम करने का राधा दीदी को मौका मिला तो उन्होंने अपनी कार्यक्षमता और सुझबुझ से यहां के कार्यक्रमों को अपने आठ साल के कार्यकाल में और विस्तार दिया.
देशभर की दर्जनों महत्वपूर्ण संस्थाओं में राधा दीदी ऊँचे पदों पर सम्मान के साथ बिठाई गई हैं. गांधी शांति प्रतिष्ठान की वे अध्यक्ष हैं तो लक्ष्मी आश्रम को उनका मार्गदर्शन आज भी मिल रहा है. हिमालय सेवा संघ, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट इंदौर, हिमवंती (नेपाल), केन्द्रीय गांधी स्मारक निधि, नई दिल्ली जैसी संस्थाओं में उनकी सक्रियता बनी हुई है. सक्रियता भी असाधारण. आखिर राधा दीदी साधारण नहीं हैं.
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