चण्डी प्रसाद भट्ट

चण्डी प्रसाद भट्ट
सिकुड़ते जा रहे प्राकृतिक संसाधन
Posted on 01 Dec, 2017 04:42 PM

जंगल सतत एवं सन्तुलित विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षणोन्मुखी उपयोग आवश्यक होता है, लेकिन वर्तमान सदी में औद्योगिक विकास ने जहाँ इस तथ्य की अनदेखी करते हुए संसाधनों का अविवेकपूर्ण ढंग से अधिकाधिक दोहन किया और संरक्षण की दिशा में कोई व्यावहारिक परिणाममूलक कार्य योजना प्रस्तुत नहीं की। वहीं उपभोक्तावाद को चरम पर पहुँचाकर संरक्षणवादी विचार को ही विलुप्तप्राय कर दिया। इसका परिणाम हमार
अस्तित्व के आधार वन (Forest in India)
Posted on 28 Sep, 2017 12:10 PM


सतत एवं सन्तुलित विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षणोन्मुखी उपयोग आवश्यक होता है। लेकिन वर्तमान सदी में औद्योगिक विकास ने जहाँ इस तथ्य की अनदेखी करते हुए संसाधनों का अविवेकपूर्ण ढंग से अधिकाधिक दोहन किया और संरक्षण की दिशा में कोई व्यावहारिक परिणाममूलक कार्य योजना प्रस्तुत नहीं की, वहीं उपभोक्तावाद को चरम पर पहुँचाकर संरक्षणवादी विचार को ही विलुप्तप्राय कर दिया। इसका परिणाम हमारे सामने पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणी असन्तुलन के रूप में आया है।

forest
वन मिटा सकते हैं गरीबी
Posted on 20 Jul, 2012 03:43 PM

संयुक्त वन प्रबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर कोई कानूनी ढांचा नहीं हैं, जिसके कारण स्थानीय ग्रामीण समुदायों में यह पू

उत्तराखंडः प्रकृति नहीं विकास को कोसें
Posted on 15 Oct, 2010 03:43 PM अनियंत्रित और मैदानी प्रकृति का विकास उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाकों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रहा है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पड़ोस में लगी आग यदि हम नहीं बुझाएगें तो हमारा घर भी जल कर भस्म हो जाएगा। पूरा उत्तरी भारत इस बार उत्तराखंड की बाढ़ की भयावहता का विस्तार बन कर रह गया। इस विभीषिका का पुनरावृति रोकने के लिए आवश्यक भी है कि पहाड़ों को नैसर्गिक रूप से बचे रहने दिया जाए।-का.सं.सितम्बर के तीसरे सप्ताह की अखण्ड बारिश ने पूरे उत्तराखण्ड को तहस-नहस करके रख दिया था। अनुमान है कि इस दौरान दो सौ लोग तथा एकाध हजार पशु मारे गए। एक हजार मकान और फसल से भरे खेत भी नष्ट हो गए थे और अनेक सड़कें भी बह गई। वर्ष 1956, 1970 एवं 1978 में भी इस प्रकार की बारिश हुई थी। लेकिन तब इस प्रकार की तबाही नहीं हुई थी। मेरे बचपन में जहां गोपेश्वर गांव की आबादी 500 थी वह आज 15000 हो गई है। नए फैले हुए गोपेश्वर में बरसात के दिनों में टूट-फूट एवं जल-भराव की घटना कभी कभार होती रहती हैं लेकिन जो पुराना गांव है उसमें अभी तक इस प्रकार की गड़बड़ी नहीं के बराबर है। गोपेश्वर मन्दिर के नजदीक भूमिगत नाली पानी के निकास के लिए बनी थी जिसमें जलभराव की नौबत ही नहीं आती थी।

बिन मौसम की बर्फबारी में छुपे खतरे
Posted on 31 Dec, 2009 07:27 AM हिमनदों का ढाल, दिशा और ऊंचाई भी हिमनदों के कम और ज्यादा रिसने में योग देता होगा। यह तो विशेषज्ञ ध्यान में रखते ही हैं, और यह तो देखा तथा समझा जा सकता है। लेकिन वर्षा, तापमान तथा वनस्पति की स्थिति के बारे में तो आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए, वो हो जायं तब जाकर हम विश्व तापमान तथा स्थानीय गतिविधियों से बने तापमान का मौसम के प्रभाव का तथा हिमनदों की सही स्थिति की जानकारी पा सकेंगे तथा इसका वर्ष के आधार पर तुलना कर सकेंगे। जहां तक आंकड़ों की बात है, हिमालय के बहुत ही कम इलाकों में अभी तक जलवायु और तापमान से सम्बन्धित स्वचालित संयंत्रों की स्थापना हुई है।
तीन सितम्बर(09) की सुबह हमने हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले के काजा से प्रस्थान किया था तो उस समय मौसम सुहावना था, इस शीत रेगिस्तान की छटा देखते ही बन रही थी। पहाड़ियों पर दूर हिमनद दिखायी दे रहा था। हल्का सा काला बादल उसकी चोटी के ऊपर मंडरा रहा था। हमारे दल के प्रमुख महेन्द्र सिंह कुंवर ने अगले दिन हमें आगाह किया था कि सुबह जल्दी प्रस्थान करना है। क्योकि हमे कंजुम दर्रे (4550 मीटर) और रोहतांग दर्रे (3980 मीटर) को पार करना था।

लेकिन जैसे ही हम लोसर (4079 मीटर) पर पहुंचे तो आसमान को काले बादलों ने घेर लिया, आगे टाकचा के मोड़ों के ऊपर चढ़ते-चढ़ते हिम किलियां गिरनी शुरू हो गयी थीं, इससे आगे कंजुम पास के मैदान बर्फ की चादर से आच्छादित था। नीचे के मोड़ों पर भी काफी बर्फ गिर चुकी थी, यहां पर कुकड़ी-माकुड़ी
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