बिन मौसम की बर्फबारी में छुपे खतरे

हिमनदों का ढाल, दिशा और ऊंचाई भी हिमनदों के कम और ज्यादा रिसने में योग देता होगा। यह तो विशेषज्ञ ध्यान में रखते ही हैं, और यह तो देखा तथा समझा जा सकता है। लेकिन वर्षा, तापमान तथा वनस्पति की स्थिति के बारे में तो आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए, वो हो जायं तब जाकर हम विश्व तापमान तथा स्थानीय गतिविधियों से बने तापमान का मौसम के प्रभाव का तथा हिमनदों की सही स्थिति की जानकारी पा सकेंगे तथा इसका वर्ष के आधार पर तुलना कर सकेंगे। जहां तक आंकड़ों की बात है, हिमालय के बहुत ही कम इलाकों में अभी तक जलवायु और तापमान से सम्बन्धित स्वचालित संयंत्रों की स्थापना हुई है।
तीन सितम्बर(09) की सुबह हमने हिमाचल प्रदेश के लाहौल और स्पीति जिले के काजा से प्रस्थान किया था तो उस समय मौसम सुहावना था, इस शीत रेगिस्तान की छटा देखते ही बन रही थी। पहाड़ियों पर दूर हिमनद दिखायी दे रहा था। हल्का सा काला बादल उसकी चोटी के ऊपर मंडरा रहा था। हमारे दल के प्रमुख महेन्द्र सिंह कुंवर ने अगले दिन हमें आगाह किया था कि सुबह जल्दी प्रस्थान करना है। क्योकि हमे कंजुम दर्रे (4550 मीटर) और रोहतांग दर्रे (3980 मीटर) को पार करना था।

लेकिन जैसे ही हम लोसर (4079 मीटर) पर पहुंचे तो आसमान को काले बादलों ने घेर लिया, आगे टाकचा के मोड़ों के ऊपर चढ़ते-चढ़ते हिम किलियां गिरनी शुरू हो गयी थीं, इससे आगे कंजुम पास के मैदान बर्फ की चादर से आच्छादित था। नीचे के मोड़ों पर भी काफी बर्फ गिर चुकी थी, यहां पर कुकड़ी-माकुड़ी (आइरस) बुकला (एनीसल्फिलिस) पुष्प जो पूरी तरह से खिले हुए थे, बर्फ से दब जैसे रहे थे। उस दिन हमें चन्द्रा नदी के पणढाल में 10 घन्टे तक लगातार बर्फ की झड़ी के बीच रहना पड़ा। इस तरह हमें लगभग 80 किलोमीटर दूर रोहतांग पास के निचले मोड़ों तक बर्फ ही बर्फ दिखायी दी। रोहतांग पास में 8 से 10 इंच तक बर्फ जम रही होगी।

ज्यादा बर्फ चन्द्रा नदी के पणढाल में गिर रही थी। बताया गया कि इस क्षेत्र में अक्टूबर में ही मुख्य रूप से बर्फ गिरनी शुरू होती थी, किसी-किसी वर्ष सितम्बर के अंतिम सप्ताह में गिरने की बात भी लोगों ने बतायी, लेकिन इस वर्ष सितम्बर की तीन तारीख को इतनी ज्यादा बर्फ गिर गयी। इससे हमारे मन में यह प्रश्न उठा कि क्या यह सब मौसम बदलाव का संकेत तो नहीं थे?

हमें 30 और 31 अगस्त को शिमला के आस-पास लगातार बारिश में चलना पड़ा था, तब हमने बर्फ गिरने की कल्पना भी नहीं की थी। सांगला घाटी में भी ताजी बर्फ नहीं दिखी थी। हमारे यहां एक कहावत है कि क्या सौण सपूत, क्या भादौ कपूत जैसी बारिश श्रवण के महीने में होती है, तो भाद्रपद में भी उससे कम नहीं होती है। दोनों की बराबर तुलना की गयी है। इतनी ज्यादा और लगातार बर्फ गिरना हमारे लिये आश्चर्य तो था ही।

मुझे पिछले 30 वर्षों में इससे भी अधिक ऊंचाई पर मध्य हिमालय के नन्दा देवी नेशनल पार्क, रुद्रनाथ, मनपाई आदि के आसपास के लगभग 18 हजार फुट ऊंचे शिखरों में इन्ही तारीखों पर जाने का मौका मिला था, परा हिमालय के लेह के आसपास खारदुंगला पास, चुसूल आदि में भी इसी मौसम में गया था। बारिश भी हुई थी, किन्तु इस प्रकार की बर्फ मैंने पहली बार देखी थी। अलबत्ता खरदुंगला पास के ऊपरी भाग में इस मौसम में 1-2 मिली मीटर बर्फ जरूर देखी थी, लेकिन इस प्रकार नहीं, जैसे इस बार बर्फ का सामना करना पड़ा था।

इतने पहले से चन्द्रा नदी के पणढाल के इलाके में बर्फ गिर रही हो, वहां के हिमनदों के पीछे सरकने की रफ्तार अन्य हिमनदों से ज्यादा हो तो यह किस बात का सूचक है। यह बात मुङो बार-बार कचोट रही थी। हिमनदों के बारे में पिछली जुलाई में एक प्रस्तुतीकरण इसरो ने किया था। इस अध्ययन पर नज़र डालें तो चन्द्रा नदी के बेसिन में कुल 116 छोटे-बड़े हिमनदों का 1962 से 2004 के बीच 20 प्रतिशत क्षेत्र कम होना बताया गया था। इसी प्रकार भागा नदी के बेसिन के 111 हिमनदों में इसी अवधि में 30 प्रतिशत क्षेत्र की कमी बतायी गयी।

इसी क्षेत्र का बड़ा सिंगरी हिमनद के बारे में भारतीय भू-गर्भ सर्वेक्षण से वर्ष 1906 से 1995 के बीच 29.8 मीटर प्रति वर्ष के हिसाब से खिसकने की जानकारी प्रकाश में आयी थी। इसी प्रकार सतलुज की सहायक वास्पा नदी के बेसिन के हिमनदों के अध्ययन में बताया कि 1962 से 2004 के बीच 19 प्रतिशत हिमनदों का भाग घट गया। वहीं शुरू नदी के बेसिन में 1969 से 2004 तक 215 हिमनदों के 38 प्रतिशत भाग घटने की जानकारी दी थी।

मध्य हिमालय के अलकनन्दा बेसिन के 126 हिमनदों में 1962 से 2004 के बीच 13 प्रतिशत, भागीरथी नदी के बेसिन के 187 हिमनदों का 11 प्रतिशत भाग पीछे सरकना बताया गया। इसी अवधि में गोरी गंगा के बेसिन के 60 हिमनदों का 16 प्रतिशत, घोली गंगा के बेसिन का 108 हिमनदों का कुल 13 प्रतिशत भाग पीछे खिसकना बताये गए, जो कि हिमाचल प्रदेश की सतलुज और चन्द्रा, भागा नदियों के मुकाबले कम दिखते हैं।

अभी तक वर्षा एवं तापमान के आंकड़े इन नदियों के बेसिन के नाकाफी हैं। इसलिए हिमालय से उद्गमित नदियां जिनके पणढाल में हर पहाड़ के आगे पीछे का तापमान और बारिश में कहीं-कहीं तो भारी अन्तर रहता है। ऐसी परिस्थिति में जबकि आंकड़ों का समुचित नेटवर्क न हो तो मौसम परिवर्तन से सम्बन्धित कोई भी बात अधिकार पूर्वक कही नहीं जा सकती है। अनुभव के आधार पर ही इसे समझा जा सकता है।

हिमनदों का ढाल, दिशा और ऊंचाई भी हिमनदों के कम और ज्यादा रिसने में योग देता होगा। यह तो विशेषज्ञ ध्यान में रखते ही हैं, और यह तो देखा तथा समझा जा सकता है। लेकिन वर्षा, तापमान तथा वनस्पति की स्थिति के बारे में तो आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए, वो हो जायं तब जाकर हम विश्व तापमान तथा स्थानीय गतिविधियों से बने तापमान का मौसम के प्रभाव का तथा हिमनदों की सही स्थिति की जानकारी पा सकेंगे तथा इसका वर्ष के आधार पर तुलना कर सकेंगे। जहां तक आंकड़ों की बात है, हिमालय के बहुत ही कम इलाकों में अभी तक जलवायु और तापमान से सम्बन्धित स्वचालित संयंत्रों की स्थापना हुई है। कुछ इने-गिने सहज पहुंच वाले हिमनदों में ही इस प्रकार के संयंत्रों द्वारा निगरानी रखने वाली जानकारी है।

अत्यन्त आवश्यक है कि हिमालय की नदियों के सूक्ष्म से सूक्ष्म पणढालों के बारिश, बर्फ, तापमान, भूक्षरण, भूस्खलन, जंगलों और जीव-जंतुओं के अन्तर सम्बन्धों के बारे में तथ्यात्मक जानकारी एकत्रित हो सके। हिमालय पर्वत श्रृंखला गंगा, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्थल है। इन नदियों की सैकड़ों जलधाराओं हिमालय की विभिन्न हिमानियों (हिमनदों) से जीवन धारण करती है, गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र के बेसिन देश के कुल क्षेत्रफल का 43.8 प्रतिशत है, इनमें देश की कुल जलराशि का 63.21 भाग भूमिगत एवं प्रवाहित रूप में है, इन नदियों की बदौलत देश हरा-भरा है। लेकिन आज हिमालय सबसे अस्थिर और संवेदनशील बन गया है। ऊपर से इस क्षेत्र में लगातार आने वाले भूकम्पों से इसकी संवेदनशीलता लगातार बढ़ती जा रही है। इस सबको समझने के लिये राजनैतिक इच्छाशक्ति का होना आवश्यक है।

लेखक पर्यावरणविद् हैं

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