उत्तराखंड

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उत्तर प्रदेश में भूजल सम्पदा एवं दोहन की स्थिति
Posted on 06 Jan, 2012 12:21 PM ग्रामीण एवं नगर विकास में भूगर्भ जल का दोहन विकास का पर्याय बन चुका है। सुनिश्चित एवं सामयिक सिंचाई के साथ-साथ घरेलू एवं औद्योगिक उपयोग में इसका दोहन तेजी से बढ़ा है। प्रदेश के 895 विकास खंडों में, पुनरीक्षित मानक के अनुसार उपयोगार्थ भूजल उपलब्धता 172.22 करोड़ हे. मीटर अनुमानित है, जिसमें से 146.39 करोड़ हे. मीटर सिंचाई तथा 25.83 करोड़ हे.
उत्तर बिहार में जल जमाव एक गंभीर समस्या
Posted on 06 Jan, 2012 12:20 PM जल मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है। प्राचीन काल से ही समस्त मानव समस्याओं का विकास नदियों के तटों पर ही हुआ था, जहां जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। विकास के साथ ही मनुष्य ने कृषि की तकनीक भी सीखी तथा यह भी जाना कि फसलों की पैदावार के लिए जल अति आवश्यक है। जल के द्वारा ही पौधे जल क्षेत्र से अपना भोजन एवं पौष्टिक तत्व लवण द्रव के रूप में प्राप्त करते हैं। परन्तु जब यह जल एक सीमा से अधिक हो जाता है ज
वाष्पीकरण द्वारा जलक्षति-एक सरल नियंत्रण विधि
Posted on 05 Jan, 2012 04:20 PM जल की निरंतर बढ़ती हुई खपत के फलस्वरूप उपलब्ध जल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव को ध्यान में रखते हुए जल संरक्षण अति आवश्यक हो गया है। जल के बिना जीवधारियों का संसार में रहना दुर्लभ ही नहीं बल्कि असम्भव है।
नेश निदर्शन प्राचलों का भू-आकारिकी द्वारा निर्धारण
Posted on 05 Jan, 2012 04:09 PM दो प्राचल नेश निदर्शन अक्सर उपयोग में आने वाला एक तात्कालिक एकक जलालेख है। इस निदर्शन के प्रयोग के लिए इसके प्राचलों का निर्धारण आवश्यक होता है जिन्हें अक्सर पूर्व में मापे गए वर्षा-बहाव के आंकड़ों से ज्ञात किया जाता है। परन्तु जब आंकड़ें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होते तब इन प्राचलों को जलग्रहण क्षेत्र के माप सकने वाले भू-आकारिकी स्थिरांकों से संबंधित करके निकाला जा सकता है। इस अध्ययन में को
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल एवं भूमि प्रबंधन
Posted on 05 Jan, 2012 04:07 PM जल संसाधन बहुल भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा है। इसका मुख्य कारण जल संसाधन के ईष्टतम दोहन एवं उचित प्रबंधन का अभाव है। यह विडम्बना ही है कि देश में सर्वाधिक वर्षापात के बावजूद इस क्षेत्र में न तो हरित क्रांति हो पाई, न खेत क्रांति और न और असीम अवसर उपलब्ध होने के बावजूद नील क्रांति ने इस क्षेत्र का मुँह नहीं देखा और पील क्रांति भी गायब हो रही है। जल संसाधन की अनियंत्रित
कृष्णा एवं पेनार प्रवहण क्षेत्रों (उप क्षेत्र-3 एच) के लिए बाढ़ आंकलन के सूत्र का विकास
Posted on 04 Jan, 2012 03:03 PM बाढ़ आंकलन की आधुनिक तकनीकों के विकसित हो जाने के उपरान्त भी उन क्षेत्रों के लिए जहां विस्तृत मात्रा में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, अभियन्ताओं द्वारा विशेष रूप से लघु तथा मध्यम संरचनाओं के अभिकल्पन के लिए अनुभविक सूत्रों का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि अधिकतर अनुभविक सूत्र जैसे की डिकेन का सूत्र, रीव का सूत्र, लिली का सूत्र आदि विभिन्न प्रत्यागमन काल की बाढ़ का आंकलन करने में सक्षम नहीं है।
जलविज्ञान की शिक्षा – कब, क्यों और कितनी?
Posted on 04 Jan, 2012 03:01 PM जल सम्पूर्ण जीव जगत के अस्तित्व का रक्षक है, पर्यावरण का अपरिहार्य अंग हमारे जल संसाधन सीमित हैं और अबाध गति से बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताएं सुरसा मुख की तरह फैलती जा रही हैं। यदि इन जल संसाधनों का वैज्ञानिक ढंग से सम्यक विकास नहीं किया गया और उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से संयत नहीं किए गए तो परिणामी असंतुलन विनाशकारी हो सकता है क्योंकि जल का कोई विकल्प नहीं है। इस अभीष्ट की सिद्धि में जलविज्ञान ही हमार
भारत में जलविज्ञान में प्रशिक्षण
Posted on 04 Jan, 2012 02:59 PM विश्व के अनेक देशों की तुलना में भारत में अधिक मात्रा में भूमि तथा जल संसाधन उपलब्ध हैं। किन्तु बढ़ती हुई जनसंख्या और जल से संबंधित मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपलब्ध जल संसाधन सीमित हैं। इस कारण उपलब्ध सतह और भूमिगत जलस्रोतों की सही-सही मूल्यांकन जल संसाधन के निर्धारण, विकास एवं प्रबंध हेतु अत्यन्त आवश्यक है। केंद्र और राज्य सरकारों के अधीनस्थ सिंचाई एवं जल संसाधन विभागों में
मारकोडारट प्रमेय पर आधारित ‘नैश-माडल’ द्वारा एकक जलालेख का निर्धारण
Posted on 04 Jan, 2012 02:57 PM जल संसाधनों की विभिन्न योजनाएं बनाने, उनका अभिकल्प और उचित उपयोग के लिए बाढ़ का ठीक-ठीक ज्ञात होना बहुत आवश्यक है इसके लिए एकक जलालेख सिद्धांत एक बहुत प्रचलित तकनीक है। इस तकनीक में बाढ़ जलालेख की गणना की जाती है। प्रमापी आवाह क्षेत्र के लिए एकक जलालेख की गणना करने की अनेक विधियाँ है, जिन्हें दो भागों में विभाजित किया जाता है।
शुष्क क्षेत्र के लिए एक मात्रिक जल संतुलन निदर्शन
Posted on 03 Jan, 2012 05:50 PM जलविज्ञान संबंधी जल संतुलन मॉडल अधिक प्रभावी होते हैं यदि उनमें किसी क्षेत्र के भौतिक लक्षणों का परिवलयन भी किया गया हो। जैसे कि मृदा-आर्द्रता आकलन प्रक्रिया जो कि वर्षा-अपवाह की गणना में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार की गणना में सम्येक राशि की स्थिति (जैसे मासिक या वार्षिक काल) में प्रत्ययात्मक या मासिक मॉडल अधिक उपयोगी होते हैं।
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